मित्रों! आनंद की चाहत हर किसी को होता है। पर यह क्या है ? और हम इसे किस प्रकार प्राप्त कर सकते हैं ? आइए यह जानने का प्रयास करते हैं कि जीवन का भरपुर आनंद कैसे उठाया जाय। यह एक ऐसी मान्सिक अवस्था है, जब मनुष्य पीड़ा से मुक्त हो जाता है। आनंद का तात्पर्य मन की शान्ति से हैै , दुखों से मुक्त होने से है। जब कोई इस अवस्था को पा लेता है, तो उसका चित पुर्ण शान्ति की स्थिति में होता है
मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभुति दुख की, एक अनुभुति सुख की और एक अनुभुति आनंद की होती है। सुख और दुख की अनुभूति बाहर से होती है, जबकि आनंद की अनुभूति भीतर से होती है। बाहर से हम जो चाहते हैं वो मिल जाए तो सुख की अनुभूति होती है। और अगर ऐसा ना मिले तो दुख की अनुभूति होती है। सुख एक संवेदना है और दुख भी एक संवेदना है। सुख! दुख की अनुपस्थिति है और दुख! सुख की अनुपस्थिति है। आनंद, सुख और दुख दोनों की अनुपस्थिति है। आनंद की स्थिति मन की ऐसी स्थिति है, जब वह बाहर से घटित किसी भी घटना से प्रभावित नहीं होता।
आनंद की अनुभूति के लिए गलत प्रवृत्तियों से सुख को प्राप्त करने की चेष्टा न करें !
साधारण दृष्टिकोण से सुख मन का वह भाव है, जो किसी मनोकामना के पुर्ण होने पर महसूस होता है। जिन क्रियाओं से मनुष्य को सुख प्राप्त होता है, उसे वह बार-बार दोहराना चाहता है। सकारात्मक विचारों के साथ सुख का प्रयास होना चाहिए। अगर ऐसा ना हो तो इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं। सुख सभी को चाहिए, आनंद सभी को चाहिए। परन्तु जो सुख को ही आनंद समझ बैठे हैं वे इसे ही प्राप्त करने में लगे रहते हैं। और इसे पाने के लिए अवांक्षित कार्यो में संलिप्त हो जाते हैं। अहितकर साधनों का उपयोग करने लग जाते हैं। नशीले पदार्थों के सेवन से मस्तिस्क में उन्माद पैदा होता है। मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार ऐसी अनुभूति की इच्छा मनुष्य को व्यसन की ओर ले जाती है। और गलत प्रवृतियों के कारण व्यक्ति स्वयं को बरबाद कर डालता है।
आकांक्षा ही दुख का कारण है ! जो दुख से मुक्त होना चाहता है, वह कभी भी दुख से मुक्त नहीं हो पाता है, क्योंकि वह सुख की आकांक्षा करता है। हर सुख के पीछे दुख मौजूद रहता है। जिन क्रियाओं से, जिन साधनों से सुख मिलता है, वही दुख देने का कारण बन जाते हैं। सुख की आकांक्षा करना गलत नहीं है, पर सुख की आकांक्षा शर्तों पर नहीं होनी चाहिए। सुख और दुख दोनो से अप्रभावित होने की चेष्टा से आनंद का अनुभव होता है। आनंद की अवस्था सुख और दुख के भाव से परे है।
आनंद कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो एकदम से अचानक मिल जाता है। ना कोई तीर्थ में ना कोई मंदिर में! ऐसा कोई जगह नहीं जहाँ पहुँच गये और आनन्द मिल गया हो। वो तो हमारे अन्दर है, जो हमारे अन्दर है वो हमसे दुर है। और जो बाहर है, उसके पीछे हम भागे चले जाते हैं।
एक इंसान ने सपना देखा, जिसमें उसने एक सुंदर, विलक्षण चेहरा देखा। उसे वह चेहरा इतना पसंद आया कि वह उस चेहरे का आशिक हो गया। वह उस चेहरे को ढूँढ़ने निकल पड़ा। परन्तु वह चेहरा उसे कहीं दिखाई नहीं दिया, जो उसने सपने में देखा था।
उस वक्त दर्पण नहीं हुआ करते थे, अत: उसने कभी अपना चेहरा भी नहीं देखा था। अंत में ढूँँढ़ते-ढूँँढ़ते वह पह़ाडी के नीचे एक गांव में पहुँँचा। वहां के लोगों से पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि पह़ाडी पर एक ऋषि रहते हैं। उनके पास जाओ, हो सकता है तुम्हें कुछ पता चल जाये।
इंसान उस पहाड़ पर गया और ऋषि से मिला। उसने ऋषि को सारी बात बताई। यह सुनकर ऋषि ने कहा, “इसके लिए तुम्हें यहां रहना होगा और जो मैं कहुँ; सब करना होगा। इस पर उस इंसान ने ऋषि से कहा, “मैं सब करने को तैयार हूं। हर तरह की सेवा करने को तैयार हूं।” फिर गुरूजी ने उसे एक पत्थर घिसने का काम दिया। वह उस पत्थर को घिसता रहा, चमकाता रहा और हर रोज ऋषि को दिखाता रहा। ऋषि उससे कहते, “नहीं थो़डा और घिसो।” फिर दूसरे दिन वह इंसान अपने सारे काम निपटाकर पत्थर घिसने बैठ जाता। पत्थर घिसते-घिसते कई दिन बीत गये। उसके मन में विचार आता, “मैं यह क्या कर रहा हूँँ, यहाँँ क्यों आया हूँँ, क्या पत्थर घिसने ही आया हूँँ ” उसका मन कहता, “अपने घर भाग जाओ।” मगर उसे उस चेहरे को जानने की ललक भी थी। वह उस पत्थर को घिसता रहा।
स्वयं की खोज का उद्देश्य : purpose of self descovery.
एक दिन ऐसा हुवा कि घिसते-घिसते वह पत्थर आइना बन गया। अचानक उसमें उसे अपना चेहरा दिखाई पड़ा। यह देखते ही उसने कहा, “अरे! यह तो वही चेहरा है जिसे मैं ढूंढ़ रहा हूँँ।” वह नाचते हुए ऋषि के पास गया और बोला, “पत्थर में मुझे वह चेहरा मिल गया, जिसे मैं इतने सालों से ढूंढ़ रहा था।” ऋषि ने उससे कहा, “तुम्हें कोई और नहीं मिला है, यह तुम्हारा खुद का चेहरा है।”
स्वयं के भीतर टटोलने से वास्तव में सुख मिलता है ! एक गाँव में एक बहुत अमीर व्यक्ति रहता था। उसके जीवन में कोई कमी नही थी। परन्तु वह फिर भी बहुत चिंतित रहता था। एक दिन उसके एक मित्र ने उसे एक ऋषि के बारे में बताया और कहा कि वह ऋषि बहुत ज्ञानी है। तुम्हे उनके पास अपनी चिंता का हल अवश्य मिल जायेगा। अपने मित्र की सलाह से वह व्यक्ति ऋषि के पास गया और अपनी सारी समस्या ऋषि को बताई।
ऋषि ने उसकी समस्या सुनकर कहा – तुम कल आना मैं तुम्हे खुश और चिंतामुक्त रहने का तरीका बताऊंगा। अगले दिन व्यक्ति फिर आश्रम में पहुँच गया। वहां पहुँच कर उसने देखा कि ऋषि अपने आश्रम के बाहर कुछ ढूंढ रहे थे। यह देखकर व्यक्ति ने ऋषि से पूछा कि वह क्या ढूंढ रहे हैं? ऋषि ने व्यक्ति से कहा कि मेरी अंगूठी खो गयी है वही ढूंढ रहा हूँ। यह सुनकर वह व्यक्ति भी ऋषि के साथ उनकी अंगूठी ढूँढने में लग गया। काफी देर ढूंढने तक जब वह अंगूठी नही मिली तो उस व्यक्ति ने ऋषि से पूछा – आपकी अंगूठी कहाँँ पर गिरी थी ?ऋषि ने जवाब में कहा कि मेरी अंगूठी आश्रम की कुटिया में गिरी थी। लेकिन वहां काफी अँधेरा है इसलिए मैं अंगूठी यहां पर आश्रम के बाहर ढूंढ रहा हूँ।
ऋषि की यह बात सुनकर व्यक्ति बहुत हैरान हुआ और उसने आश्चर्य से पूछा जब आपकी अंगूठी कुटिया में गिरी थी, तो आप उसे यहाँ बाहर क्यों ढूंढ रहें है? गुरु ने कहा यही तुम्हारी समस्या का हल है। खुशी तुम्हारे अन्दर है, आनंद तुम्हारे अंदर है, लेकिन तुम उसे बाहरी वस्तुओं में ढूंढ रहे हो! पूरा का पूरा समुन्द्र तुम्हारे अन्दर है लेकिन फिर भी तुम चम्मच लेकर बाहर पानी ढूंढ रहे हो!
मन चंगा तो कठौते गंगा !
जो भीतर है वो बाहर ढुंढ़ने से नहीं मिल सकता ! कहानियां तो प्रतीक होती हैं, हमें समझाने के लिए। ये जो बाहर है, हम उसके पीछे भाग रहे हैं। यहां बात चल रही है, अंदर के चेहरे की। आपके अन्दर जो चेहरा है, वह आपका असली रूप है। उस रूप को जानने के लिए अपने भीतर प्रवेश करना होगा। आपके भीतर जो वस्तु छुपा है, उसे बाहर खोजने से नहीं मिल सकता। एक कहानी में अंदर के चेहरे को समझाने के लिए, बाहर के चेहरे को प्रतीक के रूप में लिया गया है। दुसरे कहानी में अंदर का प्रतीक अंगुठी है। वह वस्तु, वह अनुभव हमारे पास ही है। सिर्फ किसी के बताने की देर है कि यह जीवन है, ये आप हैं और ये नियम हैं। इन नियमों का आप पालन करेंगे तो आपका जीवन आनंद से भर जायगा।
यह एक मुहावरा है, इसका आशय है कि मन अगर साफ हो तो हरियाणा नदी, पोखर आपको गंगा की भांति पवित्र लगेगा। आनंद की अनुभूति उसे ही होती है जो भीतर से स्वच्छ होता है। जरुरत भीतर के सफाई की है, अगर भीतर साफ होगा, तो हमारे जीवन में आनंद ही आनंद होगा।
एक बार तीर्थ यात्रा में जानेवाले लोगो का एक जत्था संत संत तुकाराम जी के पास जाकर उनसे साथ चलने की प्रार्थना की। तुकारामजी ने अपनी असमर्थता बताई। उन्होंने तीर्थयात्रियो को एक कड़वा कद्दू देते हुए कहा : “मै तो आप लोगो के साथ आ नहीं सकता लेकिन आप इस कद्दू को साथ ले जाईए और जहाँ – जहाँ भी स्नान करे, इसे भी पवित्र जल में स्नान करा लाये।”
लोगों को उनके कहने का तात्पर्य समझ में नहीं आया। सभी संत का बहुत सम्मान करते थे, अत: उन्होंने वह कद्दू ले लिया और जहाँ – जहाँ गए, स्नान किया; वहाँ – वहाँ स्नान करवाया; मंदिर में जाकर दर्शन किया तो उसे भी दर्शन करवाया। यात्रा पूरी होने के पश्चात सभी वापस आए और उन लोगो ने वह कद्दू संतजी को लौटा दिया।
तुकारामजी ने सभी यात्रिओ को प्रीतिभोज पर आमंत्रित किया। तीर्थयात्रियो को विविध पकवान परोसे गए। तीर्थ में घूमकर आये हुए उस कद्दू की सब्जी भी विशेष रूप से तैयार की गयी थी। सभी यात्रिओ ने खाना शुरू किया और सबने कहा कि यह सब्जी कड़वी है। तुकारामजी ने आश्चर्य बताते कहा कि यह तो उसी कद्दू से बनी है, जो तीर्थ स्नान कर आया है। बेशक यह तीर्थाटन के पूर्व कड़वा था, मगर मैंने सोचा कि तीर्थ दर्शन तथा स्नान के बाद इसमें स्वाद आ गया होगा, फिर भी यह कड़वा कैसे रह गया।
यह सुनने के बाद सभी यात्रिओ को समझ में आ गया कि ‘हमने तीर्थाटन किया है लेकिन अपने मन को एवं स्वभाव को सुधारा नहीं तो तीर्थयात्रा का अधिक मूल्य नहीं है। तीर्थाटन के बाद भी हमारे विचारों में कोई परिवर्तन नहीं हुवा है। हम भी इस कड़वे कद्दु की तरह ही कड़वे रहकर वापस लौटे।
करे दिखावा भक्ति का क्यों उजली ओढें चदरिया।
भीतर से मल साफ किया ना बाहर मांजे गगरिया।।
छोटी छोटी चीजों में खुशियां ढूंढ़ें !
ओशो के शब्दों में; लोग दुखी होने के लिए जरा भी कंजुसी नहीं करते। समय असमय कुछ नहीं देखते, बात बात में दुखी हो जाते हैं। लेकिन सुख के सम्बन्ध में बहुत कंजुसी है। हँसना कठिन मालुम होता है, गीत गुनगुनाना कठिन हो जाता है। खुश होने के लिए शर्तें लगा रखीं है लोगों ने। जिन्हें जो मिला है, उसे उसकी कद्र नहीं, लेकिन जो नहीं मिला उसके लिए हर कोई दुखी है।
एक होली आती है तो हम गीत गा लेते हैं, नाचते हैं। उस दिन कोई निति-नियम नहीं मानते। ईद आती है तो सबसे गले लग जाते हैं। एक दिवाली घर में दिये जला लेते हैं। एक दिन नदी बहे तो इससे सागर नहीं मिल सकता? यह सिर्फ बहाना है, अपने रुग्ण मन को बहलाने का।
जिन्दगी में सुख लेना पड़ेगा, फिर छोटी छोटी खुशी के बुंदों से मिलकर यह जीवन खुशियों का सागर बन जायगा। लेकिन अगर कोई कहे: बुंदों से हमें कोई मतलब नहीं, हमें तो सागर चाहिए। बस यहीं गड़बड़ हो जाती है।
मनुष्य के मन की बुनियादी भूल यह है कि जो है वह उसे दिखाई नहीं पड़ता। जिन्दगी में सुख लेना पड़ेगा, छोटी छोटी चीजों में खुशियां ढूंढ़नी पड़गी, फिर छोटी छोटी खुशी के बुंदों से मिलकर यह जीवन खुशियों का सागर बन जायगा। लेकिन अगर कोई कहे: बुंदों से हमें कोई मतलब नहीं, हमें तो सागर चाहिए। बस यहीं गड़बड़ हो जाती है।
ओशो के अनुसार खुशी एक संवाद है, खुशी एक समष्टि की घटना है। उदास आदमी अकेला हो सकता है, लेकिन आनंदित होना एक बंटवारा है। दुख सिकोड़ता है, आनंद फैलाता है। दुख अहंकार मे केन्द्रित कर देता है।
आनंद अहंकार को तोड़ डालता है। जो फुलों के बीच जीना चाहता है, वो किसी के रास्ते पर कांटा नहीं रख सकता। दुसरों को दुख देना अपने लिये दुख को आमंत्रण भेजना है। अगर आप चाहते हो कि आप पर आनंद की वर्षा हो जाय, तो प्रतिपल आपको आनंद को बांटते हुवे जीना पड़ेगा। स्मरण रक्खें! जितना आनंदित आप होना चाहते हैं, उतना ही आनंद आपको बांटना पड़ेगा।
लोग दुखी होने के लिए जरा भी कंजुसी नहीं करते, समय असमय कुछ नहीं देखते, बात बात में दुखी हो जाते हैं। लेकिन सुख के सम्बन्ध में बहुत कंजुसी है। हँसना कठिन मालुम होता है, गीत गुनगुनाना कठिन हो जाता है। खुश होने के लिए शर्तें लगा रखीं है लोगों ने। जिन्हें जो मिला है, उसे उसकी कद्र नहीं, लेकिन जो नहीं मिला उसके लिए हर कोई दुखी है।
आनंद कदम कदम पर है ! धैर्य के बिना, संतोष के बिना, कर्म के बिना, कर्तव्य के बिना हमें आनंद कैसे मिलेगा। भाग्य अवसर देता है और पुरुषार्थ से सबकुछ हासिल होता है। ( प्रारब्ध और पुरुषार्थ : destiny and efforts..! ) यह जो मानव जीवन हमें मिला है, यह अपने आप में बहुत बड़ी घटना है। इसलिए फिक्र होने चाहिए सुख को चुनने की, वह भी बिना शर्तों के, क्योंकि ना कभी नौ मन तेल होगा और ना ही राधा नाचेगी! हमारा प्रयास होना चाहिए उठते- बैठते, सोते जागते, प्रत्येक कृत्य में, हरेक परिस्थितियों में आनंद के साथ जीने का।
स्वभाव का अर्थ क्या है : Meaning of nature
ये जो साँसे चल रही है वो उस ऊर्जा के कारण है जो भीतर है। और यह ऊर्जा परम आनंद का अंश है। जब भीतर आनंद से भरा है तो दुखी होना मनुष्य का स्वभाव हो ही नहीं सकता। बात बस इतनी है कि हम जीते कैसे हैं। सब कुछ समझ के स्तर पर निर्भर है।
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मैं काफी प्रभावित हुआ हूं आपकी विचार को जानकर इस नए साल 2020 मे बहुत काम आएगा मुझे ऐसा लगता है शुक्रिया
Thank you. May God bless you!