सामान्य शब्दों में महत्त्वाकांक्षा का आशय है महत्व की आकांक्षा। यह महत्व और आकांक्षा दो शब्दों का योग है। महत्व से आशय है बड़ा होने का भाव! बड़ा होने का भाव के अलग-अलग रुप होते हैं। धनाढ्य होने का भाव, शिक्षित होने का भाव, प्रतिष्ठित होने का भाव, सेवा का भाव, नेतृत्व का भाव, उन्नत होने का भाव, मुक्त होने का भाव आदि इसके अनेक रूप होते हैं।
आकांक्षा का आशय है चाह! यह एक प्रकार का मनोभाव है। इच्छा, अपेक्षा, लालसा, कामना आदि सभी इसके समानार्थी शब्द हैं। बड़ा होने के भाव का प्रबल आकांक्षा में रुपांतरित हो जाना ही महत्त्वाकांक्षा है। इच्छा, आकांक्षा किसी भी चीज कि हो सकती है। समय और परिस्थिति के अनुसार ये बदलती भी हैं। लेकिन कुछ आकांक्षा ऐसी भी होती है, जो एक बार मन में जग जाती है, तो फिर मिटती नहीं है। महत्त्वाकांक्षा इसी तरह की इच्छा को कहते हैं, यह कभी नहीं मिटनेवाली प्रबल इच्छा है।
महत्व की आकांक्षा के नकारात्मक और सकारात्मक दो पहलू होते हैं। पर महत्वाकांक्षी वो नहीं होता जो सिर्फ इच्छाओं के साथ जीता है, जो केवल कल्पना करता है। कर्मरहित महत्त्वाकांक्षा केवल एक कल्पना है। पर्वत के शिखर तक वही पहूंच सकता है, जिसके भीतर ऐसा कर गुजरने की प्रबल इच्छा होती है।
संसार में अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए प्रसिद्ध Napoleon Bonaparte के अनुसार “महान महत्त्वाकांक्षा महान चरित्र की अभिलाषा होती है। जिनके पास ये होती है वे बहुत अच्छे या बुरे काम कर सकते हैं।
महर्षि रमण के कथनानुसार महत्त्वाकांक्षा के मूल में हीनता का भाव है। सामान्य व्यक्ति के लिए यह बात अटपटी हो सकती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि हीनता और महत्व की आकांक्षा एक ही भावदशा के दो छोर हैं। एक छोर में जो हीनता है दुसरे छोर में वह महत्त्वाकांक्षा है। व्यक्ति जब हीनता से पीछा छुड़ाने का प्रयास करता है तो वह किसी न किसी प्रकार से महत्त्वाकांक्षा के जाल में उलझ जाता है।
हीनता के कारण उपस्थित यह मनोभाव व्यक्ति को कभी संतुष्ट नहीं कर पाता। स्वयं को दुसरों से अधिक महत्वपूर्ण साबित करने की दौड़ में व्यक्ति घृणा एवम् इर्ष्या के चपेट में आ जाता है। महत्त्व की आकांक्षा अहंकार का ही एक रुप है। और अहम् भाव से ग्रसित व्यक्ति की सोच कभी सकारात्मक नहीं हो सकता।
अहंकार से जो भी निर्मित होगा सभी कुछ असत्य होगा, क्योंकि अहंकार असत्य है! परमात्मा का जो भी कुछ है, वह सत्य है। तुम्हारा जो कुछ भी है, वह असत्य है।
Osho
महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति को उसका लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में प्रेरित तो करती है। परन्तु उसका लक्ष्य क्या है? उसका निर्धारण वह स्वयं करता है। कोई जो कुछ भी पाने की चाह रखता हो, अगर इसके लिए उचित तरीके से प्रयास करता है, तो यह ठीक है। परन्तु किसी भी प्रकार से इन चीजों को पाने की तीव्र लालसा सर्वथा अनुचित है। इस तरह के महत्त्वाकांक्षा से युक्त व्यक्ति अपने लालसा को पूर्ण करने के लिए कुछ भी कर सकता है। उसकी दृष्टि में सकारात्मकता और नकारात्मकता का कोई मतलब नहीं होता। उसके मन में स्वयं की इच्छापूर्ति करने की भावना प्रबल होती है।
सदगुरु जग्गी वासुदेव के अनुसार: “महत्त्वाकांक्षा एक विचार है जिसे आप एक खास महत्व देने का संकल्प करते हैं, जो धीरे-धीरे जीवन के लक्ष्य में बदल जाता है। आप इन विचारों में इतनी जीवन ऊर्जा डाल देते हैं कि वह आपके अस्तित्व पर हावी हो जाता है। आप भूल जाते हैं कि आपने ही इसे बनाया है। विचार सृजनकर्ता से ज्यादा विशाल हो जाता है। अधिकांश लोग महत्त्वाकांक्षा चूनते हैं। क्योंकि उन्हें जीने का कोई दुसरा तरीका नहीं पता। लक्ष्य तय किये विना खुद को सफलता के लिए प्रेरित कैसे करें? यह मूलभूत सवाल है।”
महत्त्वाकांक्षा अगर आध्यात्मिक हो तो वह व्यक्ति को सांसारिकता से मुक्त कर सकती हैं। क्योंकि अध्यात्म ऐसी विधा है जिसके माध्यम से स्वयं को जाना जा सकता है। रूग्न मन कभी संतुष्ट नहीं हो सकता! स्वस्थ मन में ही सकारात्मक विचारों का प्रादुर्भाव संभव है। अध्यात्मिकता व्यक्ति के मन को स्वस्थ कर देता है। मन जब स्वस्थ होता है तो सृजनात्मक चेतना का विकास होता है। इससे उत्पन्न महत्त्वाकांक्षा व्यक्ति को प्रगतिशील बनाता है।
महत्व का एक अर्थ है उन्नति का भाव। और वास्तव में ऐसी आकांक्षा ही व्यक्ति को जीवन पथ पर आगे की ओर ले जाता है। विवेकशील व्यक्ति अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने का प्रयास करने से पूर्व उचित-अनुचित का विचार करता है। अगर कोई वास्तव में कुछ अच्छा करना चाहता है! अगर वह यह सोचता है कि उसके संबंध में कुछ अच्छा समझा जाय, तो वह अनिवार्य रूप से,
अच्छे विचारों, अच्छे कार्यों का चुनाव करता है। एक विवेकशील व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण जीवन जीता है, वहीं एक सामान्य व्यक्ति केवल मनोकामनाओं के साथ जीता है। विडम्बना यह है कि अधिकांश लोग धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा आदि प्राप्त करने में जीवन की सारी ऊर्जा लगा देते हैं।
ओशो के शब्दों में ; “लोग प्रतिष्ठा दें, इसके लिए तुम जीवन गंवा देते हो। लोगों की प्रतिष्ठा का क्या अर्थ है ? कौन हैं ये लोग जिनकी प्रतिष्ठा के लिए तुम दिवाने हो? नासमझों से अगर प्रतिष्ठा मिल भी जाए, तो तुम्हें क्या मिलेगा ? और नासमझ भीड़ का कोई हिसाब है!
लेकिन आदमी जीवन लगा देता है कि कैसे प्रतिष्ठा मिले, कैसे पद मिले, कैसे लोगों का आदर मिले! लोग धन खोज रहे हैं, पद खोज रहे हैं, अहंकार के लिए नये नये श्रृंगार खोज रहे हैं। जिसे भी एक बार सत्य की झलक मिल गयी, वो व्यक्ति उसे भूल नहीं सकता। वह फिर सांसारिक सुखों से दुर हो गया, उसे फिर संसार भटका नहीं सकता।”
जीवन है तो महत्त्वाकांक्षा भी है। महत्व की आकांक्षा का संबंध मस्तिष्क से है, यह मन की चाहत है। प्रत्येक व्यक्ति में आगे बढ़ने की, कुछ कर गुजरने की आकांक्षा का होना स्वाभाविक है। परन्तु कौन किस दिशा में आगे बढना चाहता है, यह उसके सोच पर निर्भर करता है। महत्वांकाक्षा सकारात्मक भी होता है! और यह नकारात्मक भी होता है। यह चूनाव कि प्रकिया है, कौन क्या चाहता है और क्या करता है, यह उसके स्वयं का निर्णय होता है। स्वयं झंको उत्तमता की ओर ले जाना है! अथवा कुछ और पाने में लगा रहना है, यह स्वयं की विचारधारा पर, खुद के कर्म पर निर्भर है।
सांसारिक वस्तुओं को पाने की महत्वाकाक्षी व्यक्ति के जीवन में सुख और संतोष नहीं हो सकता। इसका एक उदाहरण सिकंदर महान का दिया जा सकता है। सिकंदर के महत्व की आकांक्षा से कौन अपरिचित हैं, दुनिया में उसे समर्थ और शक्तिशाली व्यक्ति के रुप में जाना जाता है। लेकिन गहराई से विचार करें तो यह प्रतीत होगा कि उसकी महत्त्वाकांक्षा सीमित थी। वह समस्त विश्व पर अपना अधिकार कायम करना चाहता था। उसके लिए उसकी इच्छा प्रबल थी। परन्तु जीवन के अंत समय में उसे भी यह ज्ञात हो गया कि उसने जो किया सब निरर्थक था। और वह लोगों को यह संदेश दे गया कि सिकन्दर महान इस दुनिया से खाली हाथ जा रहा है। जिस पृथ्वी को जीतने के लिए उसने जीवन का सारा ऊर्जा लगा दिया, वह तो विशाल ब्रम्हांड का एक कण मात्र है।
मनुष्य के जीवन में असीमित संभावनाएं हैं, यह एक अंतहीन और अनंत खोज है। मनुष्य का जीवन इसी असीमितता को खोजने के लिए है। महत्त्वाकांक्षा अगर आध्यात्मिक हो तो जीवन यात्रा सफल हो सकता है। सिद्धांत अगर महत्त्वाकांक्षी थे, तो उसमें हीनता का कोई भाव नहीं था। उनकी महत्त्वाकांक्षा में यह चिंतन था कि जीवन में दुख क्यों है? जिसे जानने के लिए उन्होंने जीवन की सारी ऊर्जा को लगा दिया। और अत में उस त्तत्व को पा लिया जिसे पा लेने के बाद जीवन में आनंद ही आनंद है!
महत्व की आकांक्षा अपने नकारात्मक स्वरुप में खुद के लिए और समाज के लिए भी विनाशकारी परिणाम लेकर आता है। महाभारत के प्रसिद्ध पात्र कर्ण के विषय में भी सभी जानते हैं। दानवीर के नाम से विख्यात कर्ण विलक्षण प्रतिभा लेकर पैदा हुवा थे। आगे जाकर अपने दृढ़ निश्चय एवम् प्रयासों के बलपर वे एक श्रेष्ठ धनुर्धर और अपराजेय योद्धा हुवे। परन्तु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित करने की महत्वाकांक्षा ने उन्हें अर्जुन से संघर्ष की ओर अग्रसर कर दिया। अगर ऐसा नहीं हुवा होता तो संभवतः महाभारत नहीं हुवा होता।
जरा सोचिए…! चिंता नहीं चिंतन करो ..! क्योंकि चिंता नहीं चिंतन से ही समाधान हो सकता है। आप का आदर्श कौन है? कर्ण, सिकन्दर अथवा बुद्ध! या फिर आप केवल सामान्य इच्छाओं के साथ जी रहे हैं ? आपकी महत्त्वाकांक्षा किस स्वरुप में उपस्थित हैं! ज्ञानीजनों का तो बस यही कहना है कि अपनी आकांक्षाओं के अनुसार कर्म करते हुए सुख_समृद्धि, प्रतिष्ठा सबकुछ अर्जित किया जा सकता है, परन्तु यह सबकुछ अस्थायी होता है। स्थायी सुख को पाने के लिए समस्त इच्छाओं, अपेक्षाओं से मुक्त होना आवश्यक है। जीवन में जब सब प्रकार की इच्छाओं का अंत हो जाता है, तब आनंद का उद्भव होता है। और इसके लिए एक ही मार्ग है, एक ही विधा है, जिस पर चलकर, जिसका अभ्यास कर समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं से मुक्त हुवा जा सकता है। और वह है अध्यात्म ! अध्यात्म क्या है ! Know what is spirituality.!
Pingback: जहां चाह वहां राह ।। - Adhyatmpedia