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प्रारब्ध और पुरुषार्थ — Destiny and Efforts

प्रारब्ध क्या है !

प्रारब्ध पूर्व जन्म में किए गये कर्मों के फल का अंश है, जो इस जन्म में भोगने के लिए निश्चित होता है। यह किसी एक कर्म का परिणाम नहीं होता बल्कि अनेक कर्मों के यानि संचित कर्म के फल का अंश है। कोई भी सभी संचित कर्मों का फल इस जन्म में नहीं भोग सकता है। क्योंकि यह जो संचित कर्म हैं बहुत से पूर्व जन्मों में किये गये कर्मों का बहुत बड़ा संग्रह है। प्रत्येक जन्म के कर्मों के संस्कार और फल भाव का एक सचित कोष तैयार हो जाता है। यह संचित कोष उस जीव की व्यक्तिगत संपति होती है। यह संपति अच्छी या बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है। किसी को अपने वर्तमान जीवन में केवल प्रारब्ध को भोगना होता है, जो उसके कुल कर्मों के परिणाम का एक अंशमात्र है। और प्रत्येक जीव इसे हर जन्म में नये रुप में अर्जित करता रहता है। 

कोई लाख करे चतुराई  करम का लेख मिटे ना रे भाई। जरा समझो इसकी सच्चाई रे करम का लेख मिटे ना रे भाई।।

संचित कर्म का संबंध मान्सिक कर्म से होता है। अशुभ चिंतन से अशुभ संचित कोष तथा शुभ चिंतन से शुभ संचित कोष का निर्माण होता है। जीवन में जो भोग होते हैं, तीन प्रकार के होते हैं। एक अनिच्छा से, जिन पर किसी का वश नहीं होता। दुसरा वैसे भोग होते हैं जो दुसरों के द्वारा दिए गए सुख-दुख होते हैं। और तीसरा स्वेच्छा से भोगने वाले भोग होते हैं। मनुष्य की बुद्धि ही ऐसी हो जाती है, जिससे वह नियति के प्रभाव में आकर भोग के लिए स्वयं कारक हो जाता है। 

जीवन में तीन चीजों का संयोग होता है आत्मा, मन और तन का। तन और आत्मा के बीच जो कड़ी है वह है मन। सब मन का ही खेल है!  यदि मन किसी प्रकार का संस्कार का निर्माण ना करे और पूर्व संस्कारों का नाश करे तो मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा। परिणाम स्वरुप आत्मा अपने शुद्ध स्वरुप को प्राप्त हो कर लेगा और मुक्त हो जायगा। यह जो संचित कर्म है, यही पाप और पुण्य का संचित कोष है। 

दार्शनिकों ने तीन तरह के संस्कार बताये हैं दैहिक, दैविक और भौतिक। दैहिक और दैविक संस्कार मनुष्य जन्म के साथ लेकर आता है। दैहिक संस्कार माता-पिता से, पूर्वजों से प्राप्त होता है। दैविक अथवा आत्मिक संस्कार संचित कर्म के फल का हिस्सा होता है। यही प्रारब्ध है, इसे भाग्य, किस्मत, नियति आदि नामों से भी व्यक्त किया जाता है। भोतिक संस्कार का निर्माण मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में स्वयं करता है। शिक्षा के द्वारा, योग-ध्यान के द्वारा, शुभ चिंतन के द्वारा अच्छे भौतिक संस्कारों का निर्माण किया जा सकता है। ऐसा करके वह स्वयं को जानने में समर्थ हो सकता है। 

पुरुषार्थ क्या है !

वास्तव में स्वयं के भीतर की यात्रा कर स्वयं को जानने का भागीरथी प्रयास ही पुरुषार्थ है। पुरूष और अर्थ दो शब्दों का मेंल है पुरुषार्थ। पुरुषार्थी होने से आशय विवेक से, सद्गुणों से संम्पन्न मनुष्य से है। विवेकशील मनुष्य का जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करना ही पुरुषार्थ है। 

क्रियामान कर्म करना ही पुरुषार्थ नहीं है। क्रियामान कर्म तो शारिरीक कर्म होते हैं, जिनका फल प्राय: साथ ही साथ मिलता रहता है। क्रियामान तात्कालिक किये जाने वाले कर्म होते हैं, जिसे व्यक्ति दिन रात जीवन में कर रहा होता है। क्रियामान कर्म से ही संचित कर्म का निर्माण होता है। 

भौतिक संस्कार जो कि बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। प्रत्येक मनुष्य के अंदर असीम क्षमता का भंडार है। तन और मन के अलावा जो आत्मा है वह परमात्मा का अंश है। जरूरत है इसे जानने का, आत्मा के शुद्धतम स्वरुप को जानने का। और इसके लिए मन का मिटना जरुरी है। जहां तक तन की बात है यह तो जड़ त्तत्वों से बना है। मिट्टी का शरीर को तो एक दिन मिट्टी में मिलना ही है। माटी कहे कुम्हार से ! इस मन का अस्तित्व अगर मिट जाता है तो आत्मा अपने शुद्ध स्वरुप को प्राप्त हो जाता है। स्थूल शरीर में ही अगर मन लगा रहे तो संचित कर्मों का निर्माण होता रहता है और बार बार जन्म-मरण के चक्र से गुजरना होता है। इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना ही मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। और इस परम लक्ष्य को प्राप्त करना ही पुरूषार्थ है। 

इसलिए ज्ञानियों ने कहा है कि पुरुषार्थ से प्रारब्ध पर विजय पाया जा सकता है। कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga अपने पुरुषार्थ से अर्जित ऐश्वर्य का ही दुसरा नाम सौभाग्य है। स्वामी रामतीर्थ के शब्दों में ; मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करता है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में ; मृत अतीत को दफना दो, अनंत भविष्य तुम्हारे सामने है। और स्मरण रखो कि प्रत्येक शब्द, विचार और कर्म तुम्हारे भाग्य का निर्माण करता है। मनुष्य का प्रारब्ध उसके कर्म पर निर्भर करता है और उसके पुरूषार्थ के कारण अच्छे कर्म संपन्न होते हैं। महर्षि वेदव्यास ने कहा है; जो जैसा शुभ या अशुभ कार्य करता है वह वैसा ही फल भोगता है। इस प्रकार से सबकुछ कर्म पर ही निर्भर करता है। इसिलिए तो स्वामी तुलसीदास ने कहा है:

सकल पदारथ एही जग माही। करम हीन नर पावत नाही।।

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