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आत्मनिर्भरता का अर्थ —

सामान्य शब्दों में आत्मनिर्भरता अपने सामर्थ्य पर जीवन-यापन करने की अवस्था है। अधिकांशतः आर्थिक रूप से समर्थ व्यक्ति को ही आत्मनिर्भर समझा जाता है। परन्तु ऐसा नहीं है, वास्तव में यह स्वयं पर पूर्ण रुप से निर्भर होने की अवस्था है। मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमता को धारण किए विना कोई पूर्ण रुप से आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है। 

आत्मनिर्भरता स्वयं पर निर्भर होना है !

आत्म का आशय स्वयं से है ! सिर्फ आर्थिक रुप से निर्भर रहने का विचार मनुष्य को महत्त्वाकांक्षी बना देता है। फिर वह इसी में उलझकर रह जाता है। आर्थिक निर्भरता में आत्म नहीं रहता, जीवन में सिर्फ निर्भरता आ जाती है। सही रुप में आत्मनिर्भर होने के लिए स्वयं को जानना आवश्यक हो जाता है। 

ज्ञानियों के अनुसार धनवान वे होते हैं जिसके पास सबसे ज्यादा वो चीजें होती हैं, जिसका कोई मोल नहीं होता। परन्तु साधारण मनुष्य इस बात को समझ नहीं पाता। वास्तव में मनुष्य के जीवन में तीन तरह की जरुरतें होती हैं। शरीर की जरुरतें, मन की जरुरतें और फिर आत्मा की जरुरतें। मुख्यत: शरीर की जरुरतें हैं रोजी, रोटी, कपड़ा और मकान। फिर मन की जरुरते होती है, संगीत, नृत्य, साहित्य, कला आदि। तन और मन की जरुरतों से वंचित व्यक्ति आत्मिक जरुरतों को महसूस ही नहीं कर पाता है। 

भुखे भजन ना होई गोपाला !

ओशो के शब्दों में ; “जब पेट खाली हो, तो सारी चेतना पेट के इर्द गिर्द ही घूमती है। शरीर भुखा हो तो चेतना ऊंचाइयों पर उड़ ही नहीं सकती, शरीर के आसपास ही मंडराती है। जिसका पेट भुखा है वो शेक्सपियर को पढ़ेगा ! कालिदास को समझेगा! और कैसे समझेगा !”

एक पुरानी कहावत है कि “भुखे भजन ना होई गोपाला” अर्थात् पेट भुखा हो, मन भुखा हो, तो भगवान के भजन में मन नहीं लगता। भजन के लिए मन को शान्त रखना जरूरी होता है। और मन को शान्त के लिए भुख को मिटाना जरूरी होता है।

पैर में जब कांटा चुभता है, तो सारा ध्यान वहीं अटक जाता है। सिर में अगर दर्द हो तो चेतना वहीं रुक जाती है। इस बात की जानकारी सभी को है कि जहां दर्द होता है, चेतना वहीं रुक जाती हैं। जो आदमी भुखा है, उसे शरीर ही शरीर दिखाई पड़ता है। उसका मन भी वहीं अटक जाता है। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए छटपटाता रहता है। ऐसी अवस्था में साधारण मनुष्य आत्मा की जरुरतों के बिषय में सोच ही नहीं पाता। इसलिए तो कहा गया है “भुखे भजन ना होई गोपाला।” हां जो असाधारण होते हैं, उनकी बात ही कुछ और होती है।

प्रत्येक व्यक्ति को पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी करना पड़ता है। अतः गृहस्थ जीवन की शुरुआत से पहले जीवन-यापन करने के लिए रोजी रोजगार का व्यवस्था कर लेना आवश्यक है। दुसरों पर निर्भर लोगों के लिए गृहस्थ जीवन कष्टदायक होता है। अतः पहले अपने तन और मन की जरुरतों को पूरा करने के लिए समर्थ होना आवश्यक होता है।

जब तन और मन की जरुरतों से जी भर जाता है, तब कुछ और की चाहत होने लगती है। ओशो के शब्दों में :  “गीत संगीत में भी तब कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तब किसी और बड़े संगीत की खोज शुरू हो जाती है। एक ऐसे संगीत की खोज शुरू हो जाती है, जहां बाध्य यंत्रों की जरूरत नहीं रह जाती। एक ऐसे संगीत की खोज शुरू हो जाती है जो भीतर ही बज रहा होता है। जिसको बजाना नहीं पड़ता…! तब आत्मा की जरुरतें पुरी होती हैं।”

जिन्दगी की यात्रा निर्भरता से ही शुरू होती है। दुसरे शब्दों में इसे निर्भरता से आत्मनिर्भरता की यात्रा भी कहा जा सकता है। निर्भरता से आत्मनिर्भरता की दुरी तय करने के क्रम में परस्पर निर्भरता के उद्देश्य का उद्भव होने लगता है। परस्पर निर्भरता से सबको साथ लेकर चलने का संकल्प उभरता है। कोई भी व्यक्ति सबको साथ लेकर तभी चल पाता है, जब  वह भीतर की शक्ति को जगाकर आत्मनिर्भर बनता है। आत्मनिर्भरता एक ऐसी शक्ति है, जो हमें उन्नत बनाती है। 

जब हम बड़े होते हैं, तो आत्मनिर्भरता से हमारा परिचय होता है। बड़ा होने का तात्पर्य बड़प्पन का दिखावा करना नहीं होता। वास्तव में बड़ा वही होता है, जिसमें मानवता के गुण स्थापित होते हैं। जो आत्मनिर्भर होते हैं, जिनसे मिलने जुलने वाले किसी न किसी रूप में लाभान्वित होते रहते हैं। संत कबीरदास ने कहा है कि खजुर के पेड़ की भांति बड़ा होने का क्या लाभ, जिससे ना तो पंक्षियों को छाया ही मिल पाती है। और नाही इसके फलों को आसानी से तोड़ा जा सकता है।

बड़ा हुवा तो क्या हुवा जैसे पेड़ खजूर। पंक्षी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।

योगक्षेम वहाम्यहम्..!

आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करनी चाहिए क्योकि आत्मनिर्भरता सभी सुखों से बढ़कर है। स्वाध्याय से व्यक्ति के जीवन में स्वावलंबन का मार्ग प्रशस्त होता है। स्वाध्याय योग का एक अंग है। योग का अर्थ है जोड़ना, अप्राप्त को प्राप्त करना। और क्षेम का आशय जो प्राप्त है उसका उपयोग करना, अर्जित साधनों से सुख पाना। साधारण मनुष्य अपने भौतिक जरुरतों को पुरा करने और उसी के संग्रह में लगे रहने को ही योग समझ बैठता है। उनका हर कर्म अपने निहित स्वार्थ के लिए ही होता है।

योग क्या है! जानिए : Know what is yoga ! 👈

योग का वास्तविक उद्देश्य है, अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति। और क्षेम से तात्पर्य है प्राप्त शक्तियों के द्वारा परम आनंद की प्राप्ति। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि “जो अनन्य भक्त मेंरा चिंतन करते हुए मेंरी उपासना में लगे रहते हैं, उन भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूं।”

अनन्याश्चिन्तयो मां ये जनाब: पर्युपासते। तेषां नित्यभियुक्ताना योगक्षेम वहाम्यहम्।।

निर्वाण सबसे बड़ा सुख है !

एक समय की बात है, भगवान बुद्ध अपने भिक्षुओं के साथ एक नगर में आये। नगरवासियों ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया। उस नगर में एक निर्धन व्यक्ति रहता था, वह धर्मपरायण था। भगवान के आगमन की सूचना मिलने पर उपदेश सुनने को उसका मन आतुर हो गया।  किन्तु प्रात: ही उसका एक बैल कहीं चला गया। वह उसे खोजने निकल पड़ा। वह भुखे प्यासे दोपहर तक बैल को खोजता रहा। बैल के मिलते ही वह उसी हाल में भगवान के दर्शन को पहुंच गया। उनके चरणों को स्पर्श कर धर्म श्रवण के लिए बैठ गया। परन्तु बुद्ध ने उसे देखा और पहले उसके लिए भोजन मंगवाया। उसे भोजन करवाने के पश्चात उपदेश की दो बातें कही। भगवान की बातें सुनकर वह धन्य हो गया।  ऐसा पहली बार हुवा था। बीच में ही धर्मोपदेश रोककर भगवान ने किसी को भोजन करवाया था। इस घटना की चर्चा होने लगी। अन्तत: भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की तो भगवान बुद्ध ने अपने भिक्षुकों को समझाते हुए यह बात कही। उन्होंने कहा ; भुखे पेट भजन नहीं होता,  भुखे पेट धर्म समझा नहीं जा सकता। भिक्षुओं भुख सबसे बड़ा रोग है, संस्कार सबसे बड़ा दुख है। ऐसा यथार्थ को जो जानता है, वही समझ पाता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है। 

जिद्धच्छा परमा रोना संखारा परमा दुखा। एवम् एवम् जत्वा यकभूतं निबानं परमं सुखं।।