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दिल जलता है तो जलने दे।।

दिल जलता है और दीया भी जलता है। दीया जलता है तो अंधेरा मिट जाता है। उसकी लौ उष्मा के साथ साथ प्रकाश भी उत्पन्न करती है। उसके आसपास का स्थान आलोकित हो जाता है। और दिल जलता है तो भीतर प्रकाश उत्पन्न होता है। भीतर जो अंधेरा है, वह मिट जाता है। 

अब जरा सोचिए कि हम दीप प्रज्वलित क्यों करते हैं? अपने लिए या किसी और के लिए। दीपक जलाकर हम किसे रोशनी प्रदान करते हैं, स्वयं को या किसी और को। दीप प्रज्वलित करने का आशय क्या है? 

भौतिक और अभौतिक! इसे दो प्रकार से समझा जा सकता है। इसकी दो प्रकार से विवेचना की जा सकती है। इसका भौतिक संदर्भ यह है कि किसी स्थान विशेष के अंधेरे को मिटाने के लिए दीपक को जलाया जाता है। जहां कहीं भी अंधेरा होता है, और हमें प्रकाश की आवश्यकता महसूस होती है। हम दीप जलाकर कर उस स्थान विशेष को आलोकित कर सकते हैं। ऐसा हम अपने लिए भी और दुसरों के लिए भी करते हैं। 

अभौतिक संदर्भ में ऐसी धारणा है कि दीप प्रज्वलित करने से आशा और उत्साह का संचार होता है। अंधेरा निराशा एवम् दुख का प्रतीक है, और उजाला आशा एवम् उत्सव का प्रतीक है। इसलिए तो उत्सव के माहौल में दीया जलाने की परम्परा है। ऐसा करते हुवे हम सकारात्मक ऊर्जा का विस्तार करने का प्रयास करते हैं। अपने भीतर आशा का संचार करने के लिए भी दीप प्रज्वलित करने की परम्परा है। इसी धारणा के अनुसार जब हम पूजा, प्रार्थना कर रहे होते हैं, तो दिया जलाया करते हैं। जिस शक्ति की, जिस ऊर्जा की हम अराधना कर रहे होते हैं, उसे समक्ष मानकर दीपक जलाते हैं। 

लेकिन क्या कभी यह विचार भी करते हैं कि हम ऐसा करते क्यों हैं? ऊर्जा तो ऊर्जा है, जो विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित होती है। और मनुष्य की प्रकृति यह है कि वह हमेशा अपने से अधिक ऊर्जावान की स्तुति करता है। तो जो स्वयं ऊर्जावान हो, प्रकाशमय हो, उसे हम आलोकित कैसे कर सकते हैं? यह तो सुरज को दीया दिखाने जैसी बात है। यह आडंबर से अधिक कुछ भी प्रतीत नहीं होता। तो फिर दीया जलाने का वास्तविक आशय क्या है?

दिल जलता है तो जलने दे,
आंसू न बहा फरियाद न कर।
ये पर्दानशी का आशिक है,
यूं नाम-ए-वफा बरबाद न कर।दिल जलता है तो जलने दे।

गीतकार – सीतापुरी, गायक – मुकेश

दिल जलता है तो जलने दे – इस गीत की पंक्तियों में गहन भाव निहित है। यह बात अलग है कि कौन किस पंक्ति को, किस कथन को किस रूप में लेता है। दिल जलता है और दीया भी जलता है। दीया का जलना एक भौतिक घटना है। यह एक भौतिक क्रिया है, जो प्रकाश उत्पन्न करता है। दिल का जलना एक आध्यात्मिक क्रिया है। हमारा दिल भी दीये के समान है, जो जलता है तो भीतर आलोकित कर देता है। भीतर जो पर्दानशी है, जो धुमिल हुवा रहता है, उससे साक्षात्कार हो जाता है। 

दिल जलता है तो जलने दे – यह जो दिल है, इस पर्दानशी का ही आशिक है। यह जलेगा नहीं तो उस जगह पर नहीं पहुंच सकता, जहां उसे जाना है। उस पर्दानशी और उसके बीच जो पर्दा है, जो अंधेरा है, वह उसके जलने से ही मिट सकता है।

यह जो पर्दानशी है, हमारे भीतर है। और यह जिसका अंश है वह भी पर्दानशी है। यह जो पर्दानशी है, जिसे हम देख नहीं पाते। जो पर्दे में है हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता। उसे समक्ष मानकर दीप प्रज्वलित करना आडंबर प्रतीत होता है। परन्तु उस पर्दानशी का साक्षात्कार करना ही तो जीवन का उद्देश्य है। जब हम स्वयं के भीतर के पर्दानशी को जान जाते हैं, तो सारा रहस्य खुल जाता है। फिर उस पर्दानशी के भी करीब पहुंच सकते हैं, जो सारे संसार के लिए रहस्य है। 

प्रथम दृष्टया यह आडंबर प्रतीत होता है, परन्तु यह आडंबर निरर्थक नहीं है। इसे गंतव्य तक पहुंचने के मार्ग पर चलने की शुरुआत कहा जा सकता है। वास्तव में मनुष्य के जीवन का जो उद्देश्य है, उसके अपने भीतर छाए अंधेरे को मिटाना है। मन के भीतर गहराइयों में उतरकर उस प्रकाश के किरणों को प्रस्फुटित करना है, जो धुमिल है। वास्तव में यह आडंबर इसलिए किया जाता है कि हममें ऐसा करने का आदत विकसित हो। हो सकता है कि ऐसा करते हुवे एक दिन ऐसा महसूस हो कि दीया हमारे भीतर जल रहा है। यह ध्यान की क्रिया है, ध्यान में डुब जाने की प्रक्रिया है।

यह जो सांसारिकता है, यहां दुख ही दुख है। सांसारिक जीवन में सुख कहां है।  सुख की खोज अवश्य है, मगर मिलता किसी को नहीं। मिलता भी है तो क्षण भर के लिए। यह जो क्षणिक सुख है, इसे सुख नहीं कहा जा सकता। इसलिए तो सांसारिकता की तुलना मृगतृष्णा से की जाती है। सांसारिक सुख को पाने के लिए लाख दीये जला लो, चाहे जितना भी उत्सव मना लो, वह स्थायी रुप से नहीं मिलेगा। इसके लिए तो वह दीप जलाना होगा जो दुख के अंधेरा को मिटा सके। इसके लिए दिल को जलाना होगा।

दिल जलता है तो जलने दे- यह जो दिल है ज्ञान का दीपक है। यह जब जलता है, तो प्रेम का लौ प्रस्फुटित होता है। और ज्ञान का आलोक अंतरमन में फैल जाता है। दिल जब जलता है तो मन के अहंकार को मिटा देता है। यही दिल रूपी दीये का तेल है, आहुति है। 

सामान्यतः दिलजला का अर्थ कुछ और समझ लिया जाता है। जब कोई दुखी होता है, निराश होता है, तो दिल पर बोझ महसूस करता है। वह समझ लेता है कि दिल जलता है। परन्तु सही मायने में उसका मन जल रहा होता है। क्रोध की अग्नि में, निराशा की अग्नि में, चिंता की अग्नि में उसका मन सुलग रहा होता है। मन दुखी इसलिए होता है कि उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती। जबकि दिल के दुखी होने का कारण कुछ और है। दिल का संबंध अंतर्मन से है, आत्मा से है। वह उस ओर जाने के लिए तड़पता है। दिल जलता है अपने माशुका के लिए, जिसका वह आशिक है। वह जलेगा तभी आहुति लेगा। तभी उसकी तड़प मिटेगी, और समस्त दुखों से मुक्ति मिलेगी। इसलिए तो कहा गया है कि दिल जलता है तो जलने दे।

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