साधना ..! एक ऐसा शब्द जिसे समझना जरूरी है। यह एक ऐसी क्रिया है, जो बहुआयामी है। साधना का संबंध सिद्धि से है। भौतिक हो या आत्मिक, यह किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किया जाने वाला कृत्य है।
साधना का अर्थ और महत्व !
साधना का एक अर्थ है नियंत्रित करना, नियंत्रण में लाना। अब नियंत्रण में किसे लाना है? किसी विषय-वस्तु को, दुसरों को अथवा स्वयं को! यह चुनाव का विषय है। परन्तु बात अगर स्वयं की हो तो साधना का संबंध संयम से है। यह अपने मन को नियंत्रित करने की क्रिया है। साधना में धैर्य, लगन, आत्मविश्वास एवम् प्रयत्न जैसी भावों का समावेश है।
जहां तक बात साधना के महत्व का है, तो स्पष्ट रूप से यह समझना होगा कि जीवन में इसका होना अनिवार्य है। संक्षेप में कहा जाय तो कर्म ही साधना है, और कर्महीन जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
साधना को व्यवहार में कैसे लाएं..?
इसके पहले यह विचार करना होगा कि हम क्या चाहते हैं ? हमारा लक्ष्य क्या है ? अथवा फिर मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? चिंतन करना भी साधना का ही एक रुप है। चिंता अनिष्टकारी है! कोई भी क्रिया जो अनिष्टकारी हो, साधना नहीं हो सकता। साधना एक उत्कृष्ट क्रिया है।
अधिकांश लोगों की चाहत भौतिकता में ही होती है। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी जरूरी है। और इन साधनों को प्राप्त करना भी एक तरह से साधना है। और सर्वप्रथम हर किसी को इसके लिए प्रयासरत होना जरूरी भी है। क्योंकि जबतक कोई व्यक्ति स्वावलम्बी नहीं होता, उसके आत्मिक विकास की ओर अग्रसर होने की संभावना न्युनतम होती है।
सामान्यतः भौतिक संसाधनों को पाने में जो सफल होते हैं, वे स्वयं को उन्नत समझते हैं और अन्य के दृष्टि में भी वे वैसा ही समझे जाते हैं। यही कारण है अपने जीवन काल में अधिकांश मनुष्य अपनी समस्त शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का उपयोग भौतिक सुखों को प्राप्त करने में लगाता है।
सामान्य दृष्टि में एक विद्यार्थी भी साधक है, एक गृहस्थ भी साधक है। एक संगीतज्ञ, एक कवि-लेखक, एक वैज्ञानिक भी साधक है। अपने-अपने कार्य में लगे हर वो व्यक्ति जो उत्तमता के साथ कार्यों का निर्वहन कर रहा हो, एक तरह से साधना कर रहा है। जीवन-यापन के लिए, पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के लिए, किए जाने वाले कर्म भी साधना का ही रूप है। परन्तु इस बात को भी समझना होगा कि केवल भौतिकता ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। बल्कि अपने बौद्धिक स्तर को उत्तमता की ओर ले जाना उन्नति है। इस बात को समझने का प्रयास बहुत कम लोग करतें हैं।
साधना एक आध्यात्मिक क्रिया है!
वास्तव में यह एक आध्यात्मिक क्रिया है। आंतरिक विकास के लिए किया जाने वाला निरंतर अभ्यास है। पूजा-पाठ, आराधना, उपासना, जप-तप आदि पावन क्रियाएं साधना के ही रुप हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती! तब तक प्रतिदिन नियमानुसार कुछ शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएं करनी पड़ती हैं!!
अगर स्वामीजी ने ऐसा कहा है, तो कहने का अर्थ भी निहित होगा। तो यह कौन सी शारीरिक एवम् मान्सिक क्रियाएं हैं जो नित्य प्रतिदिन नियमबद्व होकर करना जरूरी है ? मान लीजिए कि हमने इन क्रियाओं के विषय में पढ़ा-सुना और जान भी लिया। परन्तु क्या जबतक इन क्रियाओं का अभ्यास न करें, तो हम इनके विषय में जान सकते हैं? केवल विचार करने पर मन में संदेह भी उपस्थित हो सकता है।
स्वामीजी ने स्वयं इस बात को समझाने का प्रयास किया है कि सदा अभ्यास आवश्यक है। तुम रोज देर तक बैठे हुवे मेंरी बात सुन सकते हो! परन्तु अभ्यास किए विना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सबकुछ साधना पर निर्भर है!!
शास्त्रों में योग को एक उत्तम साधना की श्रेणी में रखा गया है। योग शरीर, मन और आत्मा को संतुलित रुप से विकसित करने का कला है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार मन को संयमित करने का रहस्य जानना योग है।
वास्तव में सामान्य मन साधना के उत्कृष्ट पहलु को जान ही नहीं पाता। और इसमें जो सबसे बड़ा विघ्न है, वह है संदेह। सामान्य मन जिसे प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर पाता, उसके प्रति संदिग्ध हुवा रहता है। यही कारण है कि ज्ञानीजनों की कही बातों के विषय में वह संशय में पड़ जाता है।
दरअसल अल्पज्ञान की धुंध में हमें चीजें उनके सही स्वरुप में दिखाई नहीं पड़ती। फलस्वरूप हमारा मन उन चीजों के प्रति कोई स्पष्ट विचार नहीं बना पाता है। जब तक मन में संदेह है, मन अविश्वास और विश्वास के बीच का द्वंद है। संदेह का आशय अविश्वास करना नहीं है, यह विश्वास की ओर आगे बढंने की जिज्ञासा है। संदेह से ऊपर है विश्वास! विश्वास यानि भरोसा! यह निसंदेह होने की अवस्था है।
इस संबंध में स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि संदेह बहुत अच्छे व्यक्तियों में भी देखने को मिलता है। परन्तु साधना का शुरुआत कर देने पर बहुत थोड़े दिनों में ही कुछ कुछ अलौकिक व्यापार देखने को मिलने लगेंगे और तब तुम्हारा उत्साह बढ़ जाएगा।
प्रारंभ में विवेकानंद के मन में भी संदेह के भाव थे। लेकिन उनमें इससे बाहर निकलने की जिज्ञासा थी। उन्हें एक विलक्षण गुणों से सम्पन्न गुरु का सानिध्य प्राप्त हुवा। और वे साधना के मार्ग पर निकल पड़े। रामकृष्ण परमहंस के मार्गदर्शन में उन्होंने अभ्यास करना प्रारंभ किया और उनके भीतर का संदेह मिट गया।
साधना के द्वारा मन को अनुशासित किया जाता है। सामान्यतः अनुशासन के द्वारा हम अपने आचरण में सुधार करते हैं। अपने ऊपर शासन करना और उस शासन के अनुसार जीवन को चलाना ही अनुशासन है। गहनता से विचार करें तो यह मनुष्य जीवन के उद्देश्य और उपलब्धि के बीच की कड़ी है।
हर किसी को इस बात को समझना कि अपने शारीरिक, मानसिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। साधना को व्यवहार में लाने का उपयुक्त तरीका है नित्य प्रतिदिन नियमानुसार अभ्यास में लग जाना। धीरे-धीरे मन एकाग्र होना शुरू हो जाता है।
अब प्रश्न यह है कि कौन से ऐसे नियम हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है! संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जो जरूरी हैं, उन आदतों, गतिविधियों को नियम कहते हैं। साधना के विभिन्न आयामों की चर्चा अगले आलेख में किया जायगा। अभी के लिए इस बात को समझ लिजिए कि साधना को साधना के मार्ग पर चलकर ही जाना जा सकता है।
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