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जानिए समाज क्या है — Learn What Is Society

युनानी दार्शनिक अरस्तु ने मनुष्य को  एक सामाजिक प्राणी की संज्ञा दी है। व्यक्ति के विना समाज और समाज के विना व्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। सामाजिक होने का आशय है समाज में रहना और समाज के नियमों का पालन करना। व्यक्ति के विना समाज और समाज के विना व्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। अत: हममें से प्रत्येक के लिए यह जानना आवश्यक है कि समाज का तात्पर्य क्या है? 

सामान्यतः एक से अधिक व्यक्तियों के समूह को समाज समझा जाता है। परन्तु विस्तार रुप में यह एक समूह मात्र नहीं है। एक समूह समाज का अंग होता है, समाज अपने आप में एक संघ है। यह एक से अधिक व्यक्तियों के समूहों से मिलकर बना एक वृहद समूह है। 

एक समूह या संगठन का अपना उद्देश्य होता है। यह किसी विशेष गतिविधि में लगा होता है। और इसके निर्माण में सहयोग को प्राथमिकता दिया जाता है। जबकि समाज अमूर्त होता है, यह सामाजिक संबंधो की एक व्यवस्था है। 

एक व्यक्ति के अनेक व्यक्तियों के साथ सामाजिक संबंध होता है। साथ ही उन व्यक्तियों के भी अनेक सामाजिक संबंध होते हैं। जब दो या अधिक व्यक्ति आपस में मिलते हैं तो निर्दिष्ट नियमानुसार एक दुसरे से व्यवहार करते हैं। जब इन व्यवहारों की पुनरावृत्ति होती रहती है तो इनसे सामाजिक संबंधो का निर्माण होता है। इन्हीं संबंधों से समाज का निर्माण होता है। समाजशास्त्र मानव समाज का अध्ययन है। अनेक विचारकों ने समाज को अपने तरीके से परिभाषित किया है।

मैकाईवर एवम् पेज के अनुसार समाजशास्त्र सामाजिक संबंधो के विषय में है। उन्होंने समाज को सामाजिक संबंधो का जाल कहा है।

मैकाईवर एवम् पेज ने समाज को विस्तृत रुप से परिभाषित करते हुए कहा है कि “समाज रीति-रिवाजों, कार्य-प्रणालियों, पारस्परिक सहयोग, समूह एवम् विभाजनों, मानव व्यवहार के नियंत्रणों एवम् स्वतंत्रता की व्यवस्था है।” 

समाज एक ऐसी व्यवस्था है, जो व्यक्ति के क्रिया-कलाप को निर्दिष्ट करता है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कुछ आवश्यकताएं होती हैं, सबका कुछ न कुछ लक्ष्य होता है। और व्यक्ति का व्यवहार इन्हीं आवश्यकताओं, लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों की अभिव्यक्ति है। अपने सभी जरुरतों को पूरा करने में कोई भी अकेला समर्थ नहीं होता, फलस्वरूप मनुष्य के द्वारा एक सामुहिक व्यवस्था को विकसित किया गया है। इस व्यवस्था को ही समाज के रुप में जाना जाता है। यह व्यक्तियों का एक ऐसा वृहद समूह है जिसमें सभी विशिष्ट आचरण द्वारा आपस में जुड़े होते हैं।

मेकाईवर के अनुसार : समाज का अर्थ मानव द्वारा स्थापित ऐसे संबंधों से है, जिन्हें स्थापित करने के लिए उसे विवश होना पड़ा है।”

प्रसिद्ध विचारक एडम स्मिथ के अनुसार : “मनुष्य ने पारस्परिक लाभ के निमित्त जो कृत्रिम उपाय किया है, वह समाज है।”

ग्रीन के शब्दों में: “समाज एक बहुत बड़ा समूह है, जिसका कोई भी व्यक्ति सदस्य हो सकता है। समाज जनसंख्या, संगठन, समय, स्थान और स्वार्थ से बना होता है।”

यह बात गौरतलब है कि पारस्परिक सहयोग और संबंध का आधार समान स्वार्थ होता है। और समान स्वार्थ की पूर्ति समान आचरण से ही संभव हो पाता है। अगर सामाजिक संबंधो का निर्वहन सही तरह से हो, तो समाज का व्यवस्था शांतिपूर्ण तरीके से चलता है। परन्तु समस्या यह है कि यहां लोगों को लाभ की भाषा ही याद है। कोई विना लाभ के कुछ करना ही नहीं चाहता। लोगों की यही चाहत समाज में अनेक समस्याओं का जड़ है। 

डॉ जेम्स के शब्दों में : “मनुष्य के शांतिपूर्ण सम्बन्धों की अवस्था का नाम समाज है।” 

संस्था समाज का महत्वपूर्ण अंग होता है।

एक ऐसा समूह अथवा संगठन जो एक निश्चित गतिविधि में लगी हुवी हो और जिससे समाज को लाभ हो, एक उत्तम संस्था के रुप में जाना जाता है। शैक्षणिक, व्यावसायिक, औधोगिक, वैज्ञानिक, सामाजिक आदि इसके अनेक स्वरुप होते हैं। किसी संस्था का अपना उद्देश्य होता है और किसी विशेष कार्य अथवा कार्यों को करने के लिए कार्यरत रहता है। प्रत्येक संस्था के कुछेक नियम, आचरण एवम् कर्तव्य होते हैं। 

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किसी संस्था की कार्यप्रणाली उस संस्था की संरचना को निर्धारित करते हैं। किसी संस्था में विभिन्न कर्त्ताओं का समावेश होता है। व्यक्तियों की सामूहिक व्यवस्था ऐसी होती है जिसमें वे निश्चित संबंध और विशेष आचरण द्वारा एक दुसरे से जुड़े होते हैं। व्यक्तियों कि संगठित व्यवस्था विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न मानदंडों को विकसित करती है। परन्तु इस व्यवस्था में संयोजक और वियोजक दोनों ही त्तत्वो का समावेश होता है या हो सकता है। प्रत्येक कर्ता अधिकतम संतुष्टि के लिए अग्रसर होता है। इस क्रम में व्यक्तिगत लाभ लेने की कोशिश भी की जाती है।

स्वार्थी और वियोजक त्तत्व संस्था के कार्यों में व्यवधान उपस्थित करते हैं। इन त्तत्वों को नियंत्रित करने के लिए संस्थाकरण द्वारा कर्ताओं के संबंधों एवम् क्रियाओं समायोजन किया जाता है। इससे पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती है और अंतर्विरोधों का शमन होता है। संयोजक त्तत्व संस्था के नियमों के अनुसार और अपनी सुध-बुझ से अंतःक्रिया की प्रणाली को संतुलित करते हैं। संस्था के कार्यप्रणाली में व्यक्ति को कार्य एवम् पद, दंड एवम् पुरस्कार उसके योग्यता एवम् गुण-दोष तथा स्वीकृत नियमों एवम् मानदंडों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं। स्वीकृत अवधारणाओं की विसंगति में व्यक्ति संस्था के मान्यताओं के अनुसार नहीं चल पाता। फलस्वरूप उसका सामुहिक व्यवहार विफल हो जाता है। 

समाज के निर्माण में शिक्षक की भूमिका !

किसी संगठन, संस्था एवम् समाज के निर्माण में शिक्षक की भुमिका महत्त्वपूर्ण होती है। शिक्षक के कार्य और आचरण का प्रभाव उसके विद्यार्थियों, संस्था एवम् समाज पर पड़ता है। 

आचार्य चाणक्य ( Chanakya )के अनुसार शिक्षक असाधारण होता है। प्रलय और निर्माण उसकी गोद में खेलते हैं। अगर किसी संस्था अथवा समाज को योग्य शिक्षकों का मार्गदर्शन मिलता रहे, तो वह समाज प्रगतिशील हो जाता है। संयम, सदाचार, विवेक, सहनशीलता, सृजनशीलता आदि गुण किसी शिक्षक को योग्य शिक्षक बनाती है। क्रोध और घृणा की भावना उनमें नहीं होती। योग्य शिक्षक अनुशासन के महत्व को समझते हैं। शिक्षक को प्रभावशाली वक्ता, आत्मविश्वासी, कुशल निर्देशक एवम् नेतृत्वकर्ता होना चाहिए। जिन शिक्षकों में श्रेष्ठ गुणों का समावेश होता है, वे अपना प्रत्येक कार्य योजनानुसार करते हैं। ऐसे शिक्षक ही एक आदर्श संस्था, प्रगतिशील सामाजिक व्यवस्था के निर्माण एवम् विकास में योगदान दे सकते हैं।

जीवन एक सामूहिक उपक्रम है!

किसी भी संस्था अथवा समूह में व्याप्त विसंगतियों का मुख्य कारण क्या है? बर्नाड शॉ से किसी ने पूछा कि आपने बहुत सी पुस्तकें पढ़ी है, आप सबसे ज्यादा लाभांवित किस पुस्तक से हुवे। उन्होंने कहा किसी अन्य पुस्तक (Book) से उतना लाभ नहीं हुवा, जितना कि चेकबुक से हुवा। जरा सोचिए! उनके ऐसा कहने का तात्पर्य क्या है? 

समस्या यह है कि यहां लोगों को केवल लाभ की भाषा याद है। विना लाभ के कोई कुछ करना ही नहीं चाहता। व्यक्ति की यही चाहत अनेक समस्याओं का जड़ है। धन, पद, प्रतिष्ठा सभी को चाहिए और हर हाल में चाहिए। हर व्यक्ति कुछ न कुछ पाना चाहता है, यदि लाभ न हो तो उसका मन टुटता है। यदि व्यक्ति इसे पाने की आकांक्षा से मुक्त हो जाए, तो उसके कर्म के बदले वास्तव में उसे बहुत कुछ मिलने लगेगा। 

यदि समाज की यही स्थिति होगी तो लोग उसी से मतलब रखेंगे, जिससे उन्हें लाभ होता दिखाई देगा। जिससे कोई स्वार्थ पुरा न होता हो, उसे अभिवादन करना भी पसंद नहीं करेंगे। यह आसक्ति का संसार है। जिससे मतलब सिद्ध हो रहा है, लोग उसके आगे-पीछे घुम रहे हैं। और जिससे मतलब सिद्ध न होता हो, तो उसकी तरफ देखना भी पसंद नहीं करते। समाज में तेजी से व्याप्त हो रही इस भावना के रहते एक आदर्श व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सकता। 

ज्ञानियों का कहना है कि जीवन एक सामूहिक उपक्रम है! अगर समूह में रहने वाले लोग इस अवधारणा से सहमत हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। तो एक सामूहिक दृष्टि पैदा करनी ही होगी। अगर समाज में रह रहे व्यक्तियों में सामूहिक चेतना जैसी कोई चीज ना हो तो विकासोन्मुख एवम् शांतिपूर्ण संबंधो का अभाव हो जाता है। महत्व प्रदर्शित करने के मनोभाव से अन्ततः किसी का कोई भला नहीं होता। केवल अपने लाभ के लिए कार्य करने वाले लोग दुसरे का तो कोई भला नहीं कर पाते, खुद को भी हानि पहुंचाते हैं। समाज को ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ के विचारधारा से चलाना सीखना होगा। समाज को साधना से जोड़ना होगा। परंतु यह तभी संभव हो सकता है, जब प्रत्येक के जीवन में अनुशासन हो, साधना हो। 

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