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सकल पदारथ एही जग माहीं

Sakal padarath ehi jag mahin

सकल पदारथ एही जग माहींयह उक्ति पंडित तुलसीदास ने कही है। प्रकृति के द्वारा इस जगत में विभिन्न प्रकार के संसाधनों की रचना की गई है। परन्तु इन समस्त संसाधनों का उपभोग करने के लिए कर्म करने पड़ते हैं। प्रकृति ने कर्म करने हेतु विधि और कौशल की भी रचना की है। कर्मठ व्यक्ति कुशलता को अर्जित कर संसाधनों का उपयोग कर पाने में सफल हो जाता है। जो अज्ञान के अंधकार में पड़ा रहता है, वह कर्महीन होकर दुख उठाता है, और इस जगत को ही कोसता रहता है। कर्म में संलग्न व्यक्ति को वह हर वस्तु प्राप्त हो जाता है, जिसे पाने का वह प्रयास करता है। मान-सम्मान, सुख, धन-संपत्ति अथवा जो कुछ भी वह प्राप्त करना चाहता है, उसे पा लेता है।

सकल पदारथ ऐही जग माहीं। करमहीन नर पावत नाहीं।।

tulsidas

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि इस संसार में हर चीज उपलब्ध है। ‘सकल पदारथ ऐहि जग माहीं’ यानि वो सबकुछ जो आपको चाहिए होता है, इसी जगत में है। मनुष्य अगर चाह ले तो जगत में अवस्थित सारी चीजों को प्राप्त कर सकता है। परन्तु ‘करमहीन’ यानि कर्म से विमुख व्यक्ति को सबकुछ होते हुए भी कुछ भी प्राप्त नहीं होता। परन्तु ये तभी मिलती हैं जब आप कुछ कर सकने का प्रयत्न करते हैं। और ठीक इसके विपरीत असफलता का कारण कुछ नहीं कर सकने की स्थिति से है।

किसी व्यक्ति ने एक संत से पूछा कि आपके जीवन में इतनी शांति क्यों है ? संत ने मुस्कुराते हुए उस व्यक्ति से कहा कि अपने कर्मों के प्रति यदि तुम सजग रहो तो यह तुम्हें भी प्राप्त हो सकता है। अगर कर्म अच्छे नहीं होंगे और फल अच्छा चाहोगे! तो यह भला कैसे संभव हो सकता है ?

सफल होने के अनिवार्य तत्व :

मन की एकाग्रता:

यह सफलता का जो मार्ग है, इतना सरल भी नहीं होता। सफलता के मार्ग पर चलने के लिए अपने मन पर नियंत्रण करना आवश्यक होता है। अगर आप मन को नियंत्रित कर पाने में सफल हो जाते हैं, तो आपका मन एकाग्र हो जाता है। ‘सकल पदारथ एही जग माहीं’ इस जगत में सब-कुछ मौजूद है, लेकिन सबको दिखाई नहीं पड़ता।

मन अगर भटकता रहता है तो मनुष्य की शक्तियां विखरने लगती हैं। जिसका मन एकाग्र हो जाता है, उसके लिए प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उन्हें वह सबकुछ दिखाई पड़ने लगता है, जिसके लिए वे प्रयास करते हैं।

दुरदृष्टि:

दुरदृष्टि से आपके भीतर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। यह भविष्य दृष्टि है, जो एकाग्रता से जागृत होती है। इस अद्भूत शक्ति के उत्पन्न होने से व्यक्ति भविष्य की योजनाओं का क्रियान्वयन कर पाता है। दुरदृष्टि के लिए लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना सीखना पड़ता है।

लक्ष्य और उसे पाने की योजना :

किसे क्या चाहिए, इसके लिए एक लक्ष्य का निर्धारण करना जरुरी होता है। और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करना पड़ता है। दुर तक देखने की आपमें जितनी शक्ति होती है, उसी के अनुसार मस्तिष्क कार्य करता है।

रुची पैदा करना:

अगर आप जबरन कोई काम कर रहे हों, तो उसमें सफल होने की संभावना कम होती है। ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र कर उस चीज के प्रति भी रुची पैदा किया जा सकता है, जो आपको नापसंद हो। जहां आपका मन लगा रहता है, वहां वह पुरी ताकत लगा देता है।

प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के साथ कभी ऐसा भी होता था कि उनका मन लिखने में नहीं लगता। लेकिन फिर भी नियमित रूप से लिखते रहते थे। उन्होंने अपने लक्ष्य को हमेशा अपने समक्ष रखा। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने संकल्प लिया कि वे हर रोज पांच पृष्ठ अवश्य लिखेंगे। सफल होने के लिए कर्मशील होना और तब तक कर्मरत रहना पड़ता है, जब तक कि सफलता मिल नहीं जाती। सफलता के लिए नियमित होना और योजना बनाकर चलना महत्त्वपूर्ण है।

इच्छाशक्ति:

सफलता की मुश्किल भरी राह को तय करने के लिए अपनी इच्छाशक्ति को दृढ़ करना आवश्यक है। दृढ़ संकल्प के विना लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।

लक्ष्य के प्रति समर्पण:

सफलता का पथ संघर्ष का पथ है। अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित होना नितांत आवश्यक है।

एक समय की बात है। एक युवक ने सुकरात से प्रश्न किया कि सफलता का रहस्य क्या है ? सुकरात उस युवक से दुसरे दिन एक नदी के तट पर मिलने को कहते हैं। युवक उनसे निर्दिष्ट स्थान पर मिलने जाता है। युवक के आते ही सुकरात उसे अपने साथ नदी की ओर बढ़ने को कहते हैं। आगे की ओर जाते हुवे जब पानी गले तक आ जाता है‌, तो अचानक सुकरात उस युवक का सर पकड़कर पानी में डुबो देते हैं। युवक बाहर निकलने के लिए हाथ पैर चलाने लगता है। फिर सुकरात उसका सर पानी से बाहर निकाल देते हैं। बाहर निकलते ही युवक जोर जोर से सांस लेने लगता है। सुकरात उस युवक से पूछते हैं कि जब तुम्हारा सर पानी के अंदर था तो तुम्हारे मन में क्या चल रहा था ? युवक ने कहा ; बाहर निकलकर सांस लेना और कुछ नहीं। इस पर सुकरात ने कहा ; यही सफलता का रहस्य है! जब तुम सफलता को उतना चाहोगे जितना तुम सांस लेना चाहते थे, तो वह तुम्हें अवश्य प्राप्त होगी।

धैर्य रखना:

अगर आप सफल होना चाहते हैं तो धैर्य रखना सीखना होगा। जगत में जितने भी सफल लोग हुवे हैं, उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य धारण किया था। 

सकल पदारथ ऐही जग माहीं – इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। परन्तु जीवन में कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ करने के वावजूद आप असफल हो जाते हैं। इन परिस्थितियों में यह चिंतन करना चाहिए कि इसका कारण क्या है? कार्य के चुनाव में, योजना में, लगन में, परिश्रम में कोई त्रुटि तो नहीं रह गयी? गलतियों में सुधार करते हुवे पुरे धैर्य के साथ पुनः प्रयास करना ही सफलता का मूलमंत्र है। 

आप हार मत मानिए, विजेता कभी हार नहीं मानते और हार मानने वाले कभी जीत नहीं सकते। _ Ted Turner

जिस व्यक्ति ने कभी कोई गलती नहीं की, समझो उसने कभी कुछ नया करने की कोशिश ही नहीं की।  _ Alberta Einstein

महानता कभी न गिरने में नहीं है, बल्कि हर बार गिरकर उठ जाने में है। _ Confucius

किसी वृक्ष को काटने के लिए आप मुझे छ: घंटे दे दो। और मैं पहले चार घंटे कुल्हाड़ी की धार तेज करने में लगाऊंगा। _ Abraham Lincoln

कोई काम करने से पहले स्वयं से तीन प्रश्न किजिए – मैं वह क्यों कर रहा हूं ? इसके परिणाम क्या हो सकते हैं ? और क्या मैं इसे कर पाऊंगा ? जब गहराई से विचार करने पर इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर मिल जाए, तभी आगे की ओर बढ़ें। _आचार्य चाणक्य

कर्म के सिद्धान्त

कर्म के सिद्धान्त की अवधारणा सबके साथ समान रुप से लागू होता है। यह जगत कर्म के सिद्धांत के आधार पर चलता है। शास्त्रों में इस पृथ्वी को कर्मभुमि की संज्ञा दी गई है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में एक चौपाई के माध्यम से इसी बात को समझाने का प्रयास किया है। उनके अनुसार जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही परिणाम भुगतना पड़ता है। 

करम प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।

कर्म का सिद्धांत एक निश्चित अवधारणा है। कर्म का तात्पर्य क्रिया से है और सिद्धांत सिद्ध होने के पश्चात प्रतिपादित होता है। इसके अनुसार जैसा कर्म होता है, उसी के अनुरूप परिणाम भी भोगना पड़ता है। जहां शुभ कर्म व्यक्ति को उन्नति की ओर अग्रसर करता है, वहीं अशुभ कर्म उसे पतनशील करता है। यहां तक कि इस जन्म में किए गए कर्मों का फल दुसरे जन्म में भी भोगने पड़ते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कर्म को ही महत्त्वपूर्ण बताया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि व्यक्ति की जीवन यात्रा का अंत जहां से होता है, अगले जन्म में वहीं से शुरू होता है। पूर्व जन्म के कर्मों के फल से ही प्रारब्ध का निर्माण होता है।

तुलसीदास कर्म के मर्म को समझते थे, इसलिए तो उन्होंने कहा है; कि सकल पदारथ एही जग माहीं इस जगत में सब-कुछ विद्यमान है, जो पुरे मन से जिस चीज को चाहता है। और पुरे लगन के साथ प्राप्त करने की चेष्टा करता है। मुश्किल से ही सही, पर उसे वह वस्तु निश्चित ही प्राप्त होता है। 

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