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मानो तो देव, ना मानो तो पत्थर!!

मानो तो देव! इस कथन का आशय क्या है?  ‘देव’ अर्थात् परमात्मा! इस कथन का आशय है कि मानो तो परमात्मा है। यह बात मान लेने की है, इसलिए कि परमात्मा अदृश्य है। हर जगह, हर चीज में परमात्मा है, लेकिन दिखाई नहीं देता। जो अप्रत्यक्ष होता है, उसके विषय में संदेह बना रहता है। 

एक प्रचलित लोकोक्ति है, ‘मानो तो देव, नहीं तो पत्थर’। पत्थर तो पत्थर है, एक निर्जीव पदार्थ। यहां पत्थर प्रतीक है, ऊर्जा विहीन होने का। और देव परम ऊर्जा का प्रतीक है। तो क्या पत्थर में परमात्मा हो सकते हैं? 

यह उक्ति तो यही कहती है कि पत्थर में भी परमात्मा होते हैं। लेकिन यह जो विषय है, मान्यता की है, ऐसी मान्यता, जिसमें कोई संदेह न हो। क्योंकि मानने में अगर कोई दुविधा हो, तो ऐसी अवस्था में विश्वास का अभाव होता है। इस उक्ति के कहने का आशय है कि ईश्वर आस्था का विषय है, श्रद्धा एवम् विश्वास का विषय है। अगर मन में इन त्तत्वों का अभाव रहेगा, तो ईश्वर के होने पर संदेह बना रहेगा।

समस्त धर्मों ने परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। जिसकी व्याख्या सभी धर्मो के ग्रंथों, शास्त्रों में की गई है। और इस परम सत्ता को सभी धर्मों ने सत्य माना है। परन्तु साधारण व्यक्ति का मन इस विषय में संदिग्ध रहता है। क्योंकि मन अपने इंद्रियों के द्वारा जो अनुभव करता है, उसी पर विश्वास करता है।

यह भी देखा जाता है कि किसी न किसी रूप में लोग परमात्मा को मानते भी हैं। लोग कहते तो हैं कि परमात्मा है, लेकिन मन में दुविधा की स्थिति बनी रहती है। हिन्दू कहते हैं ‘कण कण में भगवान है’। ईसाई कहते हैं कि ‘God is in everything ‘। मुसलमान कहते हैं कि ‘जर्रे जर्रे में खुदा है’। लेकिन मन में संदेह बना रहता है! मंदिरों, मस्जिदों, गुरुदारों, गिरिजाघरों में भीड़ बनी रहती है। लेकिन मन में संदेह बना रहता है। संदेह इसलिए बना रहता है, क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्ष नहीं है।

अगर किसी से पूछो कि परमात्मा क्या है? किसी के पास सटीक उत्तर नहीं होता। लोग तर्क वितर्क अवश्य करते हैं। अनेक उपमाओं से समझाने की कोशिश करते हैं। परन्तु इस विषय में सटीक जबाब किसी के पास नहीं होता है। वास्तव में ईश्वर को तर्क वितर्क से समझा अथवा समझाया नहीं जा सकता। अगर ऐसा हो पाता, तो इस विषय पर संदेह न होता।

मानो तो देव! आखिर ऐसा क्यों मान लिया जाए? परमात्मा सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है, ऐसा मान लेने की सार्थकता क्या है? कुछ तो है! जिसपर संदेह भी किया जाता है, और विश्वास करने को भी कहा जाता है। संसार में ऐसे महापुरुषों का अवतरण भी हुवा है, जिन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया है। यह जो ‘कुछ’ है, यह तर्क का नहीं, खोज का विषय है।

मानो तो देव! बात मान्यता की है, लोग ईश्वर को मानते तो हैं। लेकिन क्या ईश्वर को जानते भी हैं? वास्तव में ईश्वर मानने का नहीं, जानने का विषय है। किसी चीज के विषय में जाने विना उस पर पूर्णतया विश्वास कैसे किया जा सकता है? 

एक और उक्ति है — मन चंगा तो कठौती गंगा! भारतीय पौराणिक शास्त्रों में गंगा को पवित्र नदी की संज्ञा दी गई है। यह बात भी मानने की है, मानो तो गंगा की धारा पावन है। और ना मानो तो गंगा की पवित्र धारा बहता हुआ पानी है। सबकुछ मन का ही खेल है। संदेह भी मन का भाव है, और आस्था, श्रद्धा एवम् विश्वास भी मन की ही अवस्थाएं हैं। मन स्वच्छ हो तो कठौते का जल भी गंगा जल के समान पावन प्रतीत होता है।

संदेह का होना स्वाभाविक है, परन्तु यह जो संदेह है, विश्वास की ओर अग्रसर कर सकता है। जिस तथ्य के विषय में संदेह हो, उसके विषय में जानने की प्रबल इच्छा, उस तथ्य के विषय में जानने को प्रवृत्त कर सकता है। और जानने के पश्चात उस तथ्य के प्रति संदेह का भाव मिट जाता है। उस तथ्य के प्रति ज्ञान की उपलब्धता समस्त संदेह को मिटा देता है। 

मानो तो देव! बात मानने की है, क्योंकि मान लेने से ही जानने की प्रक्रिया शुरू होती है। जिसे जानना है, उसे जानने से पहले मानना जरूरी है। लेकिन जो मान्य है, उसके प्रति आस्था का होना भी जरूरी है। संदेह हो सकता है, लेकिन यह खोज करना होगा कि संदेह क्यों है? 

मानो तो देव! नहीं तो पत्थर। पत्थर तो पत्थर है, एक निर्जीव पदार्थ, ऊर्जा से विहीन पदार्थ। लेकिन क्या वास्तव में यह ऊर्जा विहीन है? अगर पत्थर के टुकड़ों में ऊर्जा नहीं है, तो फिर भिन्न भिन्न आकार किस प्रकार ग्रहण कर लेता है। छोटे छोटे कंकड़ो से लेकर  बड़े बड़े चट्टानों का रुप कैसे ग्रहण कर लेता है। चट्टानों से निर्मित पर्वत विशालकाय आकार लिए स्थिर क्यों बना रहता है। वास्तव में कण कण में ऊर्जा है। और ये जो कण हैं, आपस में एक दुसरे से जुड़े होते हैं, और आकार ग्रहण करते हैं। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है। विज्ञान यह भी कहता है कि कण कण ऊर्जा विद्यमान है और इसका क्षरण भी नहीं होता, अर्थात् यह अविनाशी है। 

इस जगत में सब ऊर्जा का खेल है। जल, थल, नभ, समस्त ब्रह्मांड ऊर्जा से ओतप्रोत है। आखिर यह जो ऊर्जा है, इसका स्रोत कहां है? या यों कहें कि समस्त संसार में जो गतिविधियां हो रही हैं, इन्हें संचालित कौन कर रहा है? कोई तो है जो सुरज को, चांद को, इस धरा को, यानि कि समस्त जगत को संचालित कर रहा है। एक एक कण में उपस्थित ऊर्जा नष्ट नहीं होता है,  केवल इसका रुपांतरण होता है। इसी प्रकार परम ऊर्जा यानि ऊर्जा का जो स्रोत है, वह भी अक्षय है, और अनंत है। यह जो परम ऊर्जा है, इसे ही परमात्मा कहा गया है। 

मानो तो देव! मान लेने के बाद ही जानने की प्रक्रिया शुरू होती है। परमात्मा है! और सर्वव्यापी है! अगर इस बात में सत्यता नहीं होती, तो यह अवधारणा भी नहीं होती। ईश्वर, भगवान, अल्लाह, God आदि परमात्मा के समानार्थी शब्द न होते। युग युगांतर से भिन्न भिन्न मतों एवम् विधियों से इसकी उपासना न होती। 

परमात्मा है, लेकिन अदृश्य है। जगत में उपस्थित समस्त पदार्थों में विद्यमान ऊर्जा भी अदृश्य है। कंकड़, पत्थर दिखाई पड़ते हैं। चांद, सुरज, पहाड़, नदियां, झरने, प्रकृति की मन मोहक छटाएं सब दिखाई देते हैं। इनकी गतिविधियां भी प्रत्यक्ष होती हैं, दिखाई पड़ती हैं। लेकिन इन सबमें विद्यमान ऊर्जा किसी को दिखाई नहीं देती है। तो फिर ऊर्जा का जो स्रोत है, वह कैसे प्रत्यक्ष हो सकता है। यह जो रहस्य है, यही परमात्मा के अस्तित्व पर संदेह खड़ा करता है। यह जो रहस्य है, यह खोज का विषय है।

ईश्वर मन का नहीं, आत्मा का विषय है। मानकर आगे बढ़ना, अर्थात् अपने प्रयासों से मन को भीतर उन्मुख करने से इस त्तत्व का आभास हो सकता है। संदेह से विश्वास तक की यात्रा, मन से आत्मा तक की यात्रा है। आत्मज्ञान के द्वारा ही परमात्मा को जाना जा सकता है। यह जो ज्ञान है, भीतर का त्तत्व है, बाहर केवल भटकाव है। और मन का स्वभाव ही बाहर के संसार में भटकने का है। विना मन को नियंत्रित किए आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। 

सर्व प्रथम मन में परमात्मा के अस्तित्व को धारण करना अनिवार्य है। और इस धारणा के प्रति कोई संदेह न रहे, इसके लिए मन के भटकाव को रोककर लक्ष्य यानि आत्मा की ओर मोड़ना आवश्यक है। यह कठिन है, परन्तु असंभव नहीं है। सद्विचार, सत्कर्म, जप-तप, योग, ध्यान आदि के द्वारा मन को एकाग्र कर आत्मज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।जिन्होंने प्रयास किया है परमात्मा को खोजने का, उन्होंने पाया भी है। जो अज्ञानी हैं, जिनके मन में संदेह होता है, जो केवल सवाल खड़ा करते हैं। उनके लिए यह कथन चरितार्थ होता है कि ‘मानो तो देव नहीं तो पत्थर ‘। सब कुछ समझ के स्तर पर निर्भर करता है।

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