वैरागी मन संयमित होता है !
मन मनुष्य के मस्तिष्क का वह प्रक्रिया है जो किसी विषय, वस्तु या घटना के संबंध में सोचने और समझने का कार्य करता है। मन जब ऐसी अवस्था में हो, कि उसे कुछ भी आकर्षित नहीं कर पाता, वैरागी मन समझा जाता है। वैरागी मन राग अथवा आसक्ति से परे होता है। जिस मन में सांसारिक विषयों, वस्तुओं तथा सुखों के प्रति उदासीनता का भाव हो! जिस मन में वैराग्य उत्पन्न हुवा हो, वैरागी मन कहलाता है।
वि और राग इन दो शब्दों से बना है वैराग्य, जिसका अर्थ है राग से अलग होना। दार्शनिक नजरिये से वैराग्य एक अवधारणा है, जिसका सामान्य अर्थ संसार के उन विषय-वस्तुओं, कर्मों से विरत रहना है, जिसमें साधारण लोग लगे रहते हैं। वैराग्य का अर्थ है, वस्तुओं के लिए नहीं, पर के लिए नहीं, दूसरे के लिए नहीं, आकर्षण अगर हो, तो स्वयं के लिए हो। वैराग्य का अर्थ है, विषय से मुक्ति और स्वयं की तरफ यात्रा।
मन के मते न चलिये – Man Ke Mate mat Chaliye
ओशो का वैरागी मन का भाव कुछ इस तरह प्रगट हुवा है। ओशो के शब्दों में ‘वैराग्य का अर्थ है ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे पाए बिना मनुष्य का जीवन व्यर्थ है। अब मैं उसे जान लेना चाहता हूं, जो सुख पाना चाहता है। क्योंकि जिन-जिन से सुख पाना चाहा, उनसे तो दुख ही मिला। अब एक दिशा और बाकी रह गई कि मैं उसको ही खोज लूं, जो सुख पाना चाहता है। पता नहीं, वहां शायद सुख मिल जाए। मैंने बहुत खोजा, कहीं नहीं मिला; अब मैं उसे खोज लूं, जो खोजता था। उसे और पहचान लूं, उसे और देख लूं।’
बुद्ध को वैराग्य उत्पन्न होने की जो बड़ी कीमती घटना है, वह मैं आपसे कहूं। बुद्ध के पिता ने बुद्ध के महल में उस राज्य की सब सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर दी थीं। रात देर तक गीत चलता, गान चलता, मदिरा बहती, संगीत होता और बुद्ध को सुलाकर ही वे सुंदरियां नाचते-नाचते सो जातीं। एक रात बुद्ध की नींद चार बजे टूट गई। एर्नाल्ड ने अपने लाइट आफ एशिया में बड़ा प्रीतिकर, पूरा वर्णन किया है।
चार बजे नींद खुल गई। पूरे चांद की रात थी। कमरे में चांद की किरणें भरी थीं। जिन स्त्रियों को बुद्ध प्रेम करते थे, जो उनके आस-पास नाचती थीं और स्वर्ग का दृश्य बना देती थीं, उनमें से कोई अर्धनग्न पड़ी थी; किसी का वस्त्र उलट गया था; किसी के मुंह से घुर्राटे की आवाज आ रही थी; किसी की नाक बह रही थी; किसी की आंख से आंसू टपक रहे थे; किसी की आंख पर कीचड़ इकट्ठा हो गया था।
बुद्ध एक-एक चेहरे के पास गए और वही रात बुद्ध के लिए घर से भागने की रात हो गई। क्योंकि इन चेहरों को उन्होंने देखा था; ऐसा नहीं देखा था। लेकिन ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। जिन चेहरों को देखा था, वे मेकअप से तैयार किए गए चेहरे थे, तैयार चेहरे थे। ये चेहरे असलियत के ज्यादा करीब थे। यह शरीर की असलियत है।
जीवन के जो चेहरे हमें दिखाई पड़ते हैं, वे असलियत नहीं हैं। इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे, जब तुम्हें कोई चेहरा सुंदर दिखाई पड़े, तो आंख बंद करके स्मरण करना, ध्यान करना, चमड़ी के नीचे क्या है? मांस। मांस के नीचे क्या है? हड्डियां। हड्डियों के नीचे क्या है? उस सब को तुम जरा गौर से देख लेना। एक्सरे मेडिटेशन, कहना चाहिए उसका नाम। बुद्ध ने ऐसा नाम नहीं दिया। मैं कहता हूं, एक्सरे मेडिटेशन! एक्सरे कर लेना, जब मन में कोई चमड़ी बहुत प्रीतिकर लगे, तो दूर भीतर तक। तो भीतर जो दिखाई पड़ेगा, वह बहुत घबड़ाने वाला है।
जैसी शरीर की असलियत है, वैसे ही सभी सुखों की असलियत है। और एक-एक सुख को जो एक्सरे मेडिटेशन करे, एक-एक सुख पर एक्सरे की किरणें लगा दे, ध्यान की, और एक-एक सुख को गौर से देखे, तो आखिर में पाएगा कि हाथ में सिवाय दुख के कुछ बच नहीं रहता। और जब आपको एक सुख की व्यर्थता में समस्त सुखों की व्यर्थता दिखाई पड़ जाए, और जब एक सुख के डिसइलूजनमेंट में आपके लिए समस्त सुखों की कामना क्षीण हो जाए, तो आपकी जो स्थिति बनती है, उसका नाम वैराग्य है।
सामान्यतः वैराग्य का आशय समझ लिया गया है कि घर बार छोड़कर जंगल में चले जाना। जो गृहस्थ है उसके विषय में कहा जाता है कि वह राग मन वाला है। प्राय: ऐसा समझा जाता है कि जो संसारी है, उसका मन वैरागी मन नहीं हो सकता है। परन्तु घर बार छोड़कर हिमालय की गुफाओं में रहना वैराग्य नहीं है। संसार में रहने से वैराग्य नष्ट नहीं होता। गृहस्थ का मन अगर उदार हो, तो तन अनुरागी होन पर भी उसका मन वैराग्य को प्राप्त कर लेगा। संसार छोड़ देने से भी मन आसक्ति से मुक्त हो जायगा, यह समझना भी सही नहीं है। संसार में रहते हुए संसार को असंसार जानना वैरागी मन का चिंतन है।
वैरागी विरकत भला गिरही चित उदार। दुहूं चूका रोता पड़ै वाकूं वार न वार।। _ संत कबीरदास
कबीर कहते हैं कि वैरागी वही अच्छा जिसके मन में विरक्ति हो, वैराग्य हो। और गृहस्थ वही अच्छा जो उदार हो, निश्छल हो। यदि वैरागी के मन में विरक्ति नहीं और गृहस्थ के मन में उदारता नहीं तो दोनों का जीवन व्यर्थ है।
जिसके मन में राग बसा हो, वह मृत्यु के पश्चात भी मुक्त नहीं हो पाता है। मन की दो परतें होती हैं, चेतन और अचेतन। चेतन मन तो शरीर के साथ छोड़ते ही छुट जाता है। पर अचेतन मन तब भी आत्मा के साथ रहते हुवे अपना अस्तित्व बनाए रखता है। यह देह मिट्टी से बना है और मिट्टी में मिल जायगा। यह संसार जो आज है कल नहीं रहेगा, ऐसा जो जानता है वह वैरागी है।
जीवन में दुख क्यों है? – Jeevan Me Dukh Kyun Hai?
मनुष्य का जीवन एक यात्रा है ही तो है। जो उसके जन्म लेने के साथ शुरू होता है और मरण तक चलता है। यह संसार एक सराय है, जहां कुछ देर तक ठहरना है और फिर चले जाना है। इस सराय को घर समझ बैठना मन के आसक्ति के कारण है। हमारे जीवन काल में जो कुछ भी सांसारिक बंधन, वस्तु उपलब्ध है, उसे पकड़ कर रहना वैराग्य नहीं है। इन विषयों के साथ मैत्री भाव रखना खुद को दुखी करना है। जिस मन को पकड़ने की आदत हो, जिसके मन में राग है। वह सब-कुछ छोड़कर किसी आश्रम में चला जाय, तब भी वहां राग लगा लेगा। धन है फिर जिसका मन व्यसन में न लगे, ऐसा भाव वैराग्य है। मन संयमित हो, आत्मसंयम से जीवन जीना ही वैराग्य है।
मन वैरागी तन अनुरागी कदम कदम दुशवारी है। जीवन जीना सहल ना जानो बहुत बड़ी फनकारी है। _निदा फाजली
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