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याचना का अर्थ क्या है — Meaning of Solicitation

याचना शब्द एक क्रिया है, यह एक संस्कृत भाषा का शब्द है। सामान्यतः याचना का अर्थ है मांगने की क्रिया, अर्थात् किसी से कुछ मांगना। इस क्रिया के कई स्वरुप होते हैं, जैसे परामर्श मांगना, सहायता मांगना, भीख मांगना आदि। इस क्रिया के दो पहलू हैं, एक अपने लिए मांगना और दुसरा है किसी और के लिए मांगना।

बात अगर खुद के लिए किसी कुछ मांगने की है, तो ऐसी याचना से अंतत: याचक का भला नहीं होता। इस भौतिक जगत में हर व्यक्ति को सांसारिक कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। जीवन में ऐसी भी परिस्थितियां आती है कि वह चारों दिशाओं से समस्याओं से घिर जाता है। इन परिस्थिति में वह समाधान की आश लेकर किसी और व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के पास जाता है। ज्ञानियों का कहना है कि भविष्य में इससे याचक के जीवन में और अधिक संकट उत्पन्न हो जाता है। 

रहिमन वे नर मर चूके जो कहीं मांगन जाहिं।

तिनसे पहिले वे मुये जिन मुख निकसत नाहिं।।

रहीम कहते हैं: वे लोग मरे समान हो जाते हैं, जो कहीं किसी कुछ मांगने जाते हैं। और उनसे पूर्व वो मृतप्राय हो जाते हैं जिनके मुख से याचकों के लिए ना निकलता है।

मांगन मरण समान है मत मांगो कोई भीख।

मांगन से मरना भला ये सद्गगुरु की सीख।‌।

कबीर के कहने का भाव भी वही है जो रहीम ने कहा हैं। कबीर कहते हैं: किसी से भीख मत मांगो, मांगना मृत्यु के समान है, मांगने से मर जाना अच्छा है। 

रहीम और कबीर दोनों के दोहे हमें बतलाते हैं कि किसी से कुछ मांगना और मृत्यु के समान है। इन ज्ञानियों का कहने का ऐसातात्पर्य क्या है? जरा सोचिए! मांगने से मृत्यु शरीर की नहीं होती, पर आत्मबल का ह्रास हो जाता है। हो सकता है कि याचक को बाहर के समस्याओं से तत्काल  निजात मिल जाए। पर भीतर से वह खोखला हो जाता है। वह ऋण के भार से दब जाता है, उसकी आत्मा धुमिल हो जाती है। ऐसा व्यक्ति कभी आत्मनिर्भर नहीं हो सकता, उसका जीवन  ही एक समस्या बन कर रह जाता है। अर्थात् दुसरों पर आश्रित होना आत्मघाती कदम होता है।

कवि रहीम यह भी कहते हैं कि याचना करने वाले का तो पतन होता ही है, उसे ना कहने वाले उससे भी अधिक निकृष्ट हो जाते हैं हैं। दुसरों की भलाई करने से भीतर के ऊर्जा का विकास होता है।

सहज मिले सो दुध है, मांगी मिलै सो पानी।

कहै कबीर वह रक्त है, जामै  ऐचा तानि।।

कबीर कहते हैं कि जो सहज मिल जाता है वह दुध समान है, मांगने से मिलता है वह पानी के समान है। और जो  खींचतान से मिले वह रक्त के समान है। 

व्यक्ति को स्वयं के प्रयास से कठिनाइयों से निकलना उसके लिए सर्वोतम होता है। सहज रुप से अगर कहीं से किसी से सहायता उपलब्ध हो तो यह उचित है, क्योंकि ऐसा संयोग स्वत: उपस्थित होता है। याचना करना अनुचित क्रिया है, इससे किसी के ऊपर आश्रित होने की शुरुआत हो जाती है। और अगर मांगने पर भी ना मिले अथवा पाने के लिए गिड़गिड़ाना पड़े तो जीवन को वीषाक्त कर देता है।

व्यक्ति को चाहिए कि वह हर संभव दुसरो की सहायता करे पर किसी से सहायता प्राप्त करने की आश लगाए न रखे। बीते समय में अगर उसने किसी को शारीरिक,मान्सिक अथवा आर्थिक किसी प्रकार का कोई सहायता की हो। तो बदले में उसे उनसे सहायता मिले, यह अपेक्षा रखना भी कष्टकारक है। वास्तव में किसी से किसी प्रकार का आशा, अपेक्षा रखना ही अनुचित है। यह जीवन में संकट उत्पन्न करता है।

किसी को कुछ देने और बदले में कुछ ना लेने की प्रवृत्ति व्यक्ति को भीतर से दृढ़ करता है। देने से खुशी मिलती है, अन्तर्मन में सुख-शांति का विकास होता है। आस लगाए रखने से मन अशांत होता है, में असंतोष का भाव उत्पन्न होता है, आत्मनिर्भरता (आत्मनिर्भरता का अर्थ : Meaning of self Reliance ) का भाव नष्ट हो जाता है। ऐसा जीवन का कोई अर्थ नहीं है, यह मृतप्राय है।

याचना का एक अर्थ है प्रार्थना।( प्रार्थना क्या है जानिए! Know what is prayer.) इस क्रिया में मांगना शामिल है, पर यहां मांगने का उद्देश्य बदल जाता है। प्रार्थना व्यक्ति को पराश्रित नहीं करता, आत्मनिर्भरता की ओर ले जाता है। प्रार्थना करना एक सत्कर्म है, और सत्कर्म से सुख-शान्ति का विस्तार होता है। प्रार्थना में हम अपनी मन की व्यथा को स्वयं से ही व्यक्त कर रहे होते हैं। यहां हम याचक नहीं होते, क्योंकि यहां कोई दुसरा नहीं होता। हां साधारण मन को ऐसा लगता है कि हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। अपने इष्ट से, जिसे हम जिस रूप में भी मानते हों, उनसे अपने मन की व्यथा को व्यक्त करते हैं। परन्तु ईश्वर दुसरा नहीं है, वही वह परम ऊर्जा है,  जिसका अंश हम सब के भीतर स्थित है।

परम ऊर्जा के इसी अंश को आत्मा कहा गया है। वास्तव में हम प्रार्थना कर रहे होते हैं तो स्वयं से ही कह रहे होते हैं। प्रार्थना करने से मन की ग्रंथियां टुटती हैं, मन साफ होता है। और स्वयं के भीतर स्थित ऊर्जा का विकास होता है। प्रार्थना का मूख्य उद्देश्य स्वयं से यह कहते रहना अथवा ईश्वर से यही मांगना कि हम हमेशा सही मार्ग पर चलते रहें। जीवन में कुछ भी बुरा ना हो, हर परिस्थिति का सामना कर सकें, इतनी शक्ति का हमारे भीतर विकास हो। 

दुख में सुमिरन सब करै सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करै तो दुख काहे का होय।।

कबीर कहते हैं कि जब कोई सुख में होता है तो उसी में रम जाता है, उसे स्वयं की सुध नहीं रहती। उसका मन तो अस्थायी भौतिक सुख को भोगने में लगा रहता है। अगर सुख के समय में भी वह प्रार्थना में लगा रहे तो जीवन में दुख का अनुभव ही नहीं होता। मन में सुविचारों का प्रभाव बना रहता है, संतोष भरा रहता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रार्थना का होना अनिवार्य है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के आत्मविकास का आधार भी यही है।

कबीर सुता क्या करै, जागी न जपै मुरारी।

एक दिन तु भी सोवेगा, लम्बी पांव पसारी।।

कबीर के इस दोहे का भावार्थ है: साधारण मनुष्य को वे आगाह करते हुवे कहते हैं कि इस संसार में आये हो और स्वयं को ही भूल बैठे हो। उसे ही भुल बैठे हो जिसने तुम्हें यहां भेजा है। अज्ञान के अंधरे में कब तक सोये रहोगे। जागो! ज्ञान का दीपक जलावो! जीवन को सुधारने के ईश्वर से याचना करो! अगर ऐसा नहीं करोगे तो अंधकार में ही पड़े पड़े एक दिन ऐसा आएगा कि सदा के लिए सो जावोगे। वास्तव में याचना का अर्थ है स्वयं के उत्थान के लिए एवम् दुसरों के कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना है, और जगत के कल्याण का आधार भी यही है।

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