शारदिय नवरात्र हिन्दू धर्मावलंबियों के बीच प्रचलित एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर नवमी तिथि तक दैवी शक्ति की आराधना की जाती है। इस नौ दिनों तक चलने वाले पावन अनुष्ठान को शारदिय नवरात्र कहा जाता है। इस आलेख में अध्ययन के आधार पर शारदिय नवरात्र के विषय में चर्चा की जा रही है। इस आशा के साथ कि इसे पढ़कर पाठकों के जीवन में दैवी शक्ति की आराधना का भाव उत्पन्न होगा। और उनके जीवन में इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
यह जो समय है ऋतु परिवर्तन का होता है। यह समय शरद ऋतु के आगमन एवम् वर्षा ऋतु के गमन के बीच का मध्य काल होता है। इस अवधि में प्रकृति के वातावरण में परिवर्तन का दौर चलता है। संधिकाल में परिवर्तन के इन घटनाओं का असर हमारे तन-मन को भी प्रभावित करता है। ऋतु परिवर्तन की अवधि विभिन्न प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने की संभावना प्रबल होती हैं। इस अवधि में अपने भीतर प्रतिरोधक क्षमता के विकास लिए विशेष प्रक्रिया का पालन करना जरूरी माना गया है। सात्त्विक आहार लेना, उत्तम विचारों के साथ उत्तम कर्मों में लगे रहने का विशिष्ट प्रभाव तन-मन पर पड़ता है। इन क्रियाओं का नियमानुसार पालन करने से तन और मन विकार मुक्त हो जाता है।
या देवी सर्वभूतेषु चेत्यनित्यविधियते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
शास्त्रों में उल्लेखित है कि जगत के कण-कण में, समस्त प्राणियों में चेतना स्वरुप में आदि शक्ति का वास है। गहन अर्थों में शादिय नवरात्र को आत्मशुद्धि और मुक्ति का आधार माना गया है। इस पवित्र अनुष्ठान के द्वारा दैवी शक्ति की उपासना करने से नकारात्मक शक्तियों का शमन होता है।
शास्त्रों में चेतन तत्त्व यानि प्रकृति के तीन गुणों का उल्लेख किया गया है। ये तीन गुण हैं- सत , रज और तम! पहले तीन दिनों तक तमोगुणी प्रकृति की उपासना की जाती है। बीच के तीन दिन रजोगुणी प्रकृति का एवम् आखिरी के तीन दिन सतोगुणी प्रकृति की उपासना का विधान है। प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर स्वयं के भीतर के चेतन तत्त्व को जगाना ही इस व्रत का उद्देश्य होता है।
इस अवधि में शक्ति के नौ रूपों की आराधना की जाती है। अपने तन-मन की शुद्धि , पूजा-अर्चना एवम् भीतर सकारात्मक ऊर्जा के संचय के लिए श्रद्धालु विभिन्न प्रकार से व्रत, पूजा-अर्चना, यज्ञ-हवन, जप-तप आदि शुभ कर्म किया करते हैं।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतियं चन्द्रघंटेति कुष्मांडेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमाता षंष्ठमं कात्यायनी च। सपत्मं कालरात्रि: महागौरी चाष्टमं।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।उक्ताणयेतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।
शारदिय नवरात्र की प्रतिपदा, द्वितिया एवम् तृतिया तिथि को मॉं के शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी एवम् चन्द्रघंटा स्वरुप की आराधना की जाती है। चौथी, पंचमी एवम् छठी तिथि को कुष्मांडा, स्कंदमाता एवम् कात्यायनी स्वरुप की आराधना होती है। और सातवीं, आठवीं एवम् नौवीं तिथि को कालरात्रि, महागौरी एवम् सिद्धिदात्री स्वरुप के आराधना का विधान है। इस प्रकार नवरात्र के नौ तिथियों में मॉं नवदुर्गा के नौ स्वरुपों की उपासना की जाती है। शास्त्रानुसार प्रत्येक तिथि एवम् प्रत्येक स्वरूप के पूजा-अर्चना का विशेष महत्व होता है।
पूजा-आराधना एक धार्मिक क्रिया है, जो दैवी शक्ति के किसी स्वरुप के मुर्तरुप के समक्ष भौतिक वस्तुएं रखकर की जाती है। वस्तुओं में फूल, फल, नैवेद्य, वस्त्र-आभुषण आदि होते हैं, जो आराध्य को अर्पित किए जाते हैं। यह अपनी मनोकामनाओं को पूर्ण करने के लिए दैविक शक्तियों को प्रसन्न करने की एक क्रिया है। विभिन्न दैविक शक्तियों की पूजा इसलिए भी की जाती है कि हम उनसे सांसारिक जीवन में इच्छित कामनाओं की पूर्ति कर सकें।
वस्तुत: यह एक ऐसी क्रिया है जिसमें श्रद्धा, विश्वास और समर्पण जैसे मनोभावों का समावेश होता है। पूजा-अर्चना अपने आराध्य के प्रति समर्पण की प्रक्रिया है। पूजा-अर्चना के द्वारा हम अपने इष्ट की आराधना करते हैं। दैवी शक्तियों की आराधना के अनेक तरीके हो सकते हैं। आराध्य के नाम-रूप का स्मरण, भजन-कीर्तन, पूजा-अर्चना, जप-तप, यज्ञ-हवन आदि के द्वारा दैविक शक्तियों की उपासना की जाती है।
पूजा में अर्पित की गई भौतिक वस्तुएं और की गई क्रियाएं कर्ता के आध्यात्मिक योग्यता को विकसित करती हैं। इन अनुष्ठानों को करने से कर्ता का मन शांत होता है। इनके द्वारा भीतर मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। जिससे कर्ता जीवन के अन्य कर्तव्यों के निर्वहन में समर्थ हो जाता है।
हिन्दू प्राचीन ग्रंथों में कर्मकांड का उल्लेख किया गया है। कर्मकांड में विभिन्न अनुष्ठानों के निर्देश भी दिए गए हैं। इन अनुष्ठानों में दैविक शक्ति के विभिन्न स्वरुपों में उनकी पूजा, जप-हवन की जाती है। शास्त्रों में पूजन के विशेष पद्धतियों का वर्णन मिलता है। षोडशोपचार विधि एक ऐसी ही प्रक्रिया है जो सौलह चरणों में संपन्न की जाती हैं।
पांच चरणों अर्थात् पंचोपचार विधि से भी पूजा का विधान है। पंचोपचार में पांच चरणों में पूजा किया जाता है। इन पांच चरणों में चंदनादि द्रव्य, पुष्प, धुप, दीप एवम् नैवेद अर्पित किए जाते हैं। पंचोपचार द्वारा पांचो इन्द्रियों को क्रिया में लगाया जाता है। पंचोपचार पूजा विधि षोडशोपचार विधि का ही संक्षिप्त कड़ी है।
अगर मन में श्रद्धा हो तो एक दीपक जलाकर भी शांतचित्त होकर प्रभु नाम-रूप का स्मरण किया जा सकता है। पूजा-आराधना संयमित होकर एवम् श्रद्धापूर्वक की जाने वाली एक पावन क्रिया है।
सर्व मंगल मांगल्ये ..!” माता के आराधना करने के लिए प्रचलित मंत्रों में से एक है। मां जगतजननी के आठवीं स्वरुप महागौरी को समर्पित यह मंत्र सुख-शांति, सौभाग्य एवम् समृद्धि प्रदान करने वाली है।
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्येत्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।
हे नारायणी! सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी मॉं! हे शिवे! सब प्रकार की सिद्धियों को साधनेवाली सर्वार्थसाधिके! शरणांगतवत्सला! सद्बुद्धि देनेवाली त्रिकालदर्शी मॉं गौरी के श्री चरणों में नमस्कार है !!!
जानकारों का कहना है कि समस्याओं से छुटकारा पाने हेतु मां दुर्गा का आराधना अत्यंत फलदायी होता है। मां दुर्गा को दुर्गतिनाशिनी भी कहा जाता है। शारदिय नवरात्र के दिनों में दैवी शक्तियों की आराधना अगर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जाय। तो इस शुभ कर्म के परिणाम भी शुभ प्राप्त होते है। इन दिनों माता का पूजा-आराधना करने से भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने की संभावना प्रबल होती है।
सबकी मान्यताएं अलग होती हैं, और श्रद्धा, विश्वास जैसी भावनाएं किसी पर जबरन थोपा नहीं जा सकता। परन्तु सकारात्मक विचारों को अपनाने से, शुभ कर्मों को करने से जीवन में सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अत: हमें शादिय नवरात्र के व्रत के महत्व पर गहराई से विचार करना चाहिए। और हो सके तो हर किसी को अपने समझ और सामर्थ्य के अनुसार इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए।