जड़ क्या है ..?
सामान्यतः पौधे का वह भाग जो बीजांकुर से विकसित होकर भूमि के भीतर प्रवेश करता है, जड़ कहलाता है। जड़ का काम पौधे को भूमि पर स्थिर रखना और उसके पोषण हेतू भूमि से खनिज और लवण प्राप्त करना होता है। जड़ अगर जीर्ण-शीर्ण हो जाय अथवा पौधे को इससे अलग कर दिया जाय तो वह हरा-भरा नहीं रह सकता, नष्ट हो जाता है। किसी पौधे अथवा वृक्ष का अस्तित्व उसके जड़ के साथ जुड़ा होता है।
परन्तु इस शब्द का कोई एक अर्थ नही है। जड़ शब्द को एक और शब्द के साथ जोड़कर देखा जाता है, वह है मूल। मूल शब्द किसी विषय-वस्तु के वास्तविक रुप को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे कोई रोगग्रस्त व्यक्ति अगर किसी वैध के पास जाता है, तो पहले वैद्य व्यक्ति से रोग के बिषय विस्तार से जानने का प्रयास करता है। भिन्न-भिन्न प्रकार से शरीर परीक्षण करता है, तत्पश्चात ही औषधि देता है। अगर वैद्य से पूछा जाय तो वह कहता है; पहले यह ज्ञात होना जरूरी है कि बीमारी का जड़ क्या है। अगर वैद्य को रोग के मूल कारण का पता नहीं चलता, तो चिकित्सा कार्य में वह असफल हो जाता है।
सुती के वस्त्र को ही लिजिए, उसके मूल में क्या है? उसके मूल में कपास है, कपास के रुई के धागे से यह बना है। और इसके निर्मित होने का भी कोई ना कोई उद्देश्य है। अगर वस्त्र का उपयोग ही ना हो तो फिर यह निरर्थक है।
गहन अर्थों में पुरा का पुरा वृक्ष ही जड़ है। वृक्ष का एक अंग जिसे हम जड़ कहते हैं; यह वृक्ष के पोषण क्रिया में सहायता करता है। परन्तु जड़ के द्वारा यह क्रिया संचालित कैसे होता है? यह क्रिया भी किसी ऊर्जा से संचालित होता है। किसी विधि से संचालित होता है। इस ऊर्जा के अभाव में समस्त वृक्ष ही जड़ है।
जड़ भूमि से खनिज और लवण लेकर तना के माध्यम से पतियों तक पहुंचाता है, और सुर्य के प्रकाश के सहायता से पत्तियां वृक्ष के लिए भोजन तैयार करती हैं। इस क्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। यह समस्त क्रिया किसी ऊर्जा से संचालित होता है, जिसके ना होने पर पुरा का पुरा वृक्ष ही जड़ हो जाता है। जड़, तना पत्तियां आदि सभी वृक्ष के अंग होते हैं। वृक्ष के जड़ का जो कार्य है वही उसका उद्देश्य है। और उसके सहयोग से ही वृक्ष के मूल में जो है, वृक्ष का जो उद्देश्य है, वह पूर्ण होता है। वृक्ष का उद्देश्य समस्त जन्तु जगत का पोषण करना और पर्यावरण को शुद्ध करना है। प्रकृति के द्वारा इसी के निमित्त उसका निर्माण किया गया है।
चेतन तत्त्व क्या है ..?
संसार में उपस्थित सभी वस्तुएं जड़ पदार्थ हैं और किसी न किसी रूप में सभी में उस अपरिमित ऊर्जा का अंश विद्यमान है, जो समस्त संसार को संचालित कर रहा है। सुर्य का उद्देश्य संसार को प्रकाशित करने से है। इसी प्रकार पर्वत, नदियां, वनस्पति, जीव-जंतु सबका इस संसार में होने का कोई ना कोई मूल कारण है। और सभी विधि के विधान से ही संचालित होते हैं।
मानव का शरीर भी जड़ त्तत्वों से बना है और शरीर के भीतर एक ऊर्जा है, जिससे यह शरीर संचालित होता है। यह जो ऊर्जा है! चेतन त्तत्व है! जिसे आत्मा की संज्ञा दी गई है। शरीर जड़ है, नश्वर है और आत्मा चेतन है! अविनाशी है। शरीर के भीतर जो आत्मा है, उसी परम ऊर्जा का अंश है। इस ऊर्जा के विना इस शरीर का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
जिस प्रकार जड़ के रुग्न हो जाने पर वृक्ष की पत्तियां भी सुख जाती हैं, समूचा वृक्ष ही सूखने लगता है। ठीक उसी प्रकार मानव शरीर का भी कोई अंग अगर रोगग्रस्त हो, तो समस्त शरीर रोगग्रस्त होने लगता है। जिस प्रकार एक अस्वस्थ वृक्ष हरा-भरा नहीं रह सकता और उसमें फल फूल नहीं लगते, वह अपने कार्यों में असफल हो जाता है। ठीक उसी प्रकार एक अस्वस्थ शरीर अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असमर्थ हो जाता है।
शरीर जड़ है, नश्वर है और आत्मा चेतन है! अविनाशी है। शरीर के भीतर जो आत्मा है, उसी परम ऊर्जा का अंश है। इस ऊर्जा के विना इस शरीर का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
मानव का तन एक सराय है, जहां आत्मा कुछ समय के लिए ठहरती है। यही जो समय है मनुष्य का जीवन काल है। जब यह ऊर्जा तन से बाहर चली जाती है, तो यह नष्ट हो जाता है। यही मृत्यु है, मृत्यु शरीर की होती है। जन्म और मृत्यु के बीच का समयांतराल ही जीवन है। और इसी छोटी सी अवधि में मनुष्य को उसे जानने के लिए पुरुषार्थ करने होते हैं, जिसके निमित्त यह जीवन , Life है।
चेतन को जानने के लिए जड़ का पोषण और संरक्षण आवश्यक है, और इसके लिए भी कार्य करने होते हैं। शरीर को स्वच्छ रखने, स्वस्थ रखने हेतू परिश्रम करना पड़ता है। एक स्वच्छ और स्वस्थ शरीर से चेतना को जगाने के लिए पुरूषार्थ करना संभव हो पाता है। मनुष्य के भौतिक क्रिया-कलापों में संलग्न रहने का यही अर्थ है। चुंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः विस्तृत दायरे में पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी उसके भौतिक क्रिया-कलापों में संलग्न होता है। परन्तु इन क्रियाओं में उलझकर रह जाना सर्वथा अनुचित है।
मूल के मूल को जानना ही जीवन का उद्देश्य है !
अब जरा सोचिए! मनुष्य का भी तो इस संसार में आने का कोई ना कोई मूल कारण तो अवश्य ही होगा। वह मूल उद्देश्य क्या है? मनुष्य का शरीर जड़ है, परन्तु इस जड़ का मूल क्या है? इसी को जानना ही तो मनुष्य का मूल उद्देश्य है। इसलिए तो इस शरीर में कुछ समय के लिए परम ऊर्जा का अंश विद्यमान रहता है।
जीवन में दुख क्यों है? – Jeevan Me Dukh Kyun Hai?
और जब तक यह ऊर्जा शरीर में विद्यमान है, इसका उपयोग मूल उद्देश्य की प्राप्ति ही होना चाहिए। जड़ से चेतन नहीं है, चेतन से जड़ का अस्तित्व है! जड़ के माध्यम से जड़ के मूल में क्या है? अर्थात् शरीर के माध्यम से शरीर के भीतर के ऊर्जा का अनुभव करने में ही इस शरीर की सार्थकता है।
मनुष्य को अपने शरीर को स्वस्थ और स्वच्छ रखने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। उसे अन्य प्रकार के सांसारिक दायित्वों का निर्वहन भी करना पड़ता है। परन्तु इन समस्त कर्मों को तुच्छ कर्म माना गया है। क्योकि इन कर्मों से जो सुख प्राप्त होता है, वह क्षणिक होता है। सुख का संबंध जड़ त्तत्वों से है, बाह्य जगत से है, जबकि आनंद का संबंध चेतन तत्त्व से है, आंतरिक जगत से है। परन्तु सामान्य मनुष्य क्षणिक सुख को ही जीवन का आनंद समझ लेता है, और भौतिक क्रिया-कलापों में , कामना पूर्ण करने में ही लगा रहता है, और ऐसा करते हुवे एक दिन उसके जीवन का अंत हो जाता है।
मनुष्य के भीतर चेतना का विकास में बाधक उसका मन है। यह जो मन है शरीर और आत्मा के बीच स्थित एक अवरोध है। मनुष्य जीवन के तीन स्तर हैं – शारिरीक, मानसिक और आध्यात्मिक। मनुष्य का मन भौतिकता की ओर भागता है। जो मनुष्य अपने मन को नियंत्रित कर अपने मानसिक स्तर को स्वच्छ कर पाता है! मन पर नियंत्रण कर शुभदिशा में, अर्थात् आध्यात्मिकता की ओर ले जाने का जो प्रयत्न करता है, वह मनुष्य पुरुषार्थी होता है।
प्रारब्ध और पुरुषार्थ : destiny and efforts..!
मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है, ओर कार्य बड़ा करना है। प्राण शक्ति यानि परम ऊर्जा का थोड़ा ही अंश जड़ शरीर के भीतर मौजूद है। शरीर के नष्ट होने तक, यानि इसे जीते जी समस्त बंधनों से मुक्त कर देने में ही जीवन की सार्थकता है। जीवन में भटकाव बहुत हैं! अतः इन भटकावों में भटकने के बजाय तन-मन को श्रेष्ठ कार्यों में लगाने के लिए पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है।
पुरुषार्थी मनुष्य मान्सिक जगत में अपने लक्ष्य को निर्धारित कर आगे बढ़ता है। भौतिकता में संलग्न रहते हुवे भी वह इसमें लिप्त नहीं होता। भौतिकता में आगे बढ़ना वास्तव में उन्नति नहीं है। उन्नति क्या है जानिए ..! केवल आध्यात्मिक पथ ही सही दिशा दे सकता है। अध्यात्म क्या है .! आध्यात्मिक साधना के बल पर ही मनुष्य आनंद का अनुभव कर सकता है। उपनिषद कहा गया है कि अनंत आनंद का अनुभव ही ब्रम्ह का अनुभव है। यही जड़ से चेतन तक की यात्रा है! और यही जीवन का मूल उद्देश्य है।
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