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आप भला तो जग भला ..!

आप भला तो जग भला! इस पद का का अर्थ है, अपने आप में जो अच्छा है, भला है, उसे सब अच्छा लगता है, सभी लोग अच्छे लगते हैं, समस्त संसार उसे अच्छा जान पड़ता है। अब प्रश्न है कि बुरा कौन है ? तो इसका सरल उत्तर यही है कि जो अच्छा नहीं है। तो फिर अच्छाई क्या है ? अच्छा कौन है ? इसका भी सरल उत्तर है कि जो अभिष्ट है! वह त्तत्व  जिसके होने से कोई अच्छा हो सकता है, अच्छाई है। और जिसमें यह त्तत्व विद्यमान है, वह अच्छा है। 

अवांछनीय विचार-व्यवहार से किसी को कोई लाभ नहीं होता। नकारात्मक सोच से हम दुसरों का तो अहित करते ही हैं, स्वयं का भी अहित करते हैं। किसी व्यक्ति के विचार और व्यवहार से ही उसका आकलन होता है कि वास्तव में वह क्या है। जो स्वयं ही स्वयं का आकलन करने का प्रयास करता है, निश्चित ही उसमें वांछनीय गुणों का विकास हो जाता है। 

मतलब साफ है कि व्यक्ति के मन में अगर अच्छाई है तो वह अच्छा है। और जो अच्छा है, उसे सबकुछ अच्छा लगता है। उसका विचार, उसका व्यवहार दुसरों के प्रति अच्छा होता है। और क्रिया के विपरीत समान  प्रतिक्रिया के नियम पर विचार करें तो यह उसके ऊपर भी लागू होता है। उसके प्रति भी सबका विचार, व्यवहार अच्छा होने लगता है। इसलिए तो कहा गया है कि आप भला तो जग भला!

खुद से बहस करोगे तो सारे सवालों का जबाव मिल जाएंगे … दुसरों से बहस करोगे तो नये सवाल खड़े हो जाएंगे! सत्य जब भी मिला है अपने भीतर ही मिला है, और जिन्हें भी मिलेगा अपने भीतर ही मिलेगा। _ ओशो

Osho

ज्ञानियों के अनुसार व्यक्ति को दुसरों की नहीं स्वयं के विषय में सोचना चाहिए। ओशो के शब्दों में : “तुम सिर्फ अपनी ही चिंता कर लेना। तुम्हारे ऊपर तुम्हारे अतिरिक्त और किसी का दायित्व नहीं है। तुम अगर उतरदायी हो तो सिर्फ अपने लिए। करते तो तुम ये हो कि जो कुछ भी तुम गलत करते हो, उसके लिए तुम तर्क खोज लेते हो। खुद से नहीं पूछते कभी कि क्या कहीं मैं गलत तो नहीं ? दुसरों से बहस कर लेते हो! इससे धीरे-धीरे दुसरे के दोष तो बड़े होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, और तुम्हारे दोष उनकी तुलना में छोटे होने लगते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है दुर्भाग्य की जब दुसरों के दोष तो आकाश छूने लगते हैं ; गगनचुंबी हो जाते हैं – तुम्हारे दोष खुद की नजरों में तिरोहित हो जाते हैं। तुम विना अच्छे हुवे अच्छे होने का मजा लेने लगते हो। खुद में अपने दोष देखोगे तो दुसरों पर सवाल नहीं करोगे। दुसरा जो करता है, वह उसकी मौज, उसकी जिम्मेदारी है।”

सफल व्यक्ति बनने की कोशिश ना करें, लेकिन गुणों वाला व्यक्ति बनने का प्रयत्न अवश्य करनी चाहिए।

अल्वर्ट आइंस्टीन

सदगुरु जग्गी वासुदेव के अनुसार “आपकी इच्छाएं वास्तव में आपकी नहीं होती, आप बस उन्हें अपने सामाजिक परिवेश से उठा लेते हैं। आप अपने भीतर छोटी-छोटी चीज के विषय में इतना संघर्ष पैदा कर लेते हैं कि कहीं आपसे कुछ गलत न हो जाय। आप पुरे तौर से यह नहीं जानते कि आप जो कर रहे हैं, वह सही ही होगा। आपके लिए यह महत्वपूर्ण होना चाहिए जो भी कुछ आप कर रहे हैं, वह आपको और आपके आसपास के लोगों को खुशियां देगा। उस मार्ग में अपनी अपनी पुरी ऊर्जा लगा दीजिए।”

भय, क्रोध, दुख, कुंठा, अवसाद और हताशा सभी ऐसे मन की ऊपज हैं, जिसका नियंत्रण आपके हाथ में नहीं है। एक बार आपका मन पूर्ण रूप से स्थिर हो जाये तो आपकी बुद्धि मानवीय सीमाओं को पार कर जाती है। ध्यान करने से जब आपको यह अहसास होता है कि आपकी कई सारी सीमाएं हैं, और वो सब आपकी बनायी हुवी हैं, तब आपके अंदर उन्हें तोड़ने की चाहत पैदा होगी।

सदगुरु

सामान्यतः व्यक्ति बुद्धि के अनुसार कार्य करता है।  सामान्य व्यक्ति के सोच-विचार करने का दायरा सीमित होता है। शरीर मन का अनुसरण करता है, मन के इशारों पर चलता है। व्यक्ति का मन उसे अपने अनुसार चलाता है।  दुसरों से अपेक्षाएं रखना भी अंततः कष्टकारी होता है। दुसरों से अपेक्षा रखना, दुसरों में कमियां ढ़ुंढना, दुसरों के विषय में सोचना, ऐसा करके अंततः हम अपने मन को ठेस पहुंचाते रहते हैं। और आहत मन अशांत हो जाता है, क्रोध, निराशा जैसी नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव में आ जाता है। 

भला क्या है और बुरा क्या है? अभीष्ट क्या है और भीष्ट क्या है? यह लगभग सबको पता होता है। परन्तु सुख के लालसा में व्यक्ति मनोनुकूल आचरण करता है, और वह भटक जाता है। मनुष्य की बुद्धि उसके मन के अनुसार ही कार्य करती है। और अनियंत्रित मन किसी को निरंतर अच्छाई के मार्ग चलने नहीं देता। अगर किसी को निरंतर अच्छाई के मार्ग पर बढ़ना हो तो ज्ञान के अनुसार चलना होगा। इसके लिए आत्ममंथन, आत्मचिंतन की आवश्यकता होती है। व्यक्ति अगर चाहे तो स्वयं ही स्वयं पर प्रतिबंध लगा सकता है।

आपके मस्तिष्क के अलावा कोई दुसरा आपको दुखी नहीं कर सकता। आपको ऐसा लगता है कि दुसरे लोग आपको परेशान कर रहे हैं, दुखी कर रहे हैं, पर वास्तव में यह आपका मस्तिष्क ही है। यदि आप खुद के दिमाग पर काबु पा सकते हैं तो आपमें पुरी दुनिया जीतने की काबिलियत है। _ श्रीश्री रविशंकर

श्री श्री रविशंकर

विचार भ्रष्ट हो सकते हैं, संस्कार भ्रष्ट हो सकते हैं, जिसके कारण कार्य और व्यवहार में बुराई आ जाती है। वास्तव में कोई बुरा नहीं होता। क्योंकि सबके भीतर एक ही परम तत्त्व का अंश विद्यमान होता है। सबके भीतर अच्छाई मौजूद होती हैं। इस बात को हम सभी सुनते आये हैं कि प्रत्येक के भीतर एक त्तत्व विद्यमान है, जो जीवन ऊर्जा का आधार है। बुद्धि मन का विषय है तो ज्ञान उस त्तत्व का विषय है जिसके कारण जीवन है। यही वह त्तत्व है जिसके कारण जीवन है और जीवन में अच्छाई भी है।

अंततः मन भी आपका, बुद्धि भी आपकी, संस्कार भी आपके तो फिर आप भले हों या बुरे, इसका कारण आप स्वयं हैं। जब तक आप अपने विचार, अपने व्यवहार की जिम्मेवारी स्वयं लेना नहीं सीख लेते, आप स्वयं को नियंत्रित नहीं कर सकते। जब तक भीतर के ज्ञान का विकास नहीं होता, उत्तमता की ओर अग्रसर नहीं हुवा जा सकता। अगर हम केवल खुद के जीवन को ठीक करने का प्रयास करें तो ‘आप भला तो जग भला’ को अपने जीवन में चरितार्थ कर सकते हैं। 

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