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राजयोग क्या है? — What Is Raja Yoga?

राजयोग योग की विभिन्न विधियों में से एक है । इसके साधना से मनुष्य के मन की चंचलता को शांत कर उसे पुर्ण एकाग्रता की स्थिति में ले आना संभव हो जाता है। राजयोग मन की एकाग्रता का साधन है !

हम शरीर के संबंध में बहुत अनभिज्ञ हैं। इसका कारण है कि हम मन को उतनी दुर तक एकाग्र नहीं कर पाते, जिससे हम शरीर के भीतर के हलचल को समझ सकें। मनुष्य के मन को एकाग्र कर उसे समाधि की अवस्था तक पंहुचा देना राजयोग का विषय है।

प्रकृति में दो प्रकार की अभिव्यक्तियां हैं, स्थुल जो बाहर है, और सुक्ष्म जो भीतर है। स्थुल बाह्य अनुभूति है, इसे हम सहज ही अपने इन्द्रियों के द्वारा अनुभव कर लेते हैं। परन्तु सुक्ष्म अनुभूति मन के भीतरी तल में है, इसका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो पाता। यह जो सुक्ष्म अनुभूति है, इसका अनुभव करने के लिए मन के भीतर आघात करना होता है।

राजयोग क्या है जानिए!

प्राचीन काल में महर्षि पतंजलि द्वारा इस विषय पर ‘योगसूत्र’ के नाम से एक ग्रन्थ की रचना की गई है। ‘योगसूत्र’ राजयोग का मुख्य ग्रन्थ है। मध्ययुगीन काल में महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांगयोग पर स्वामी विवेकानंद के द्वारा प्रयोग किया गया। बाद के समय में इस संबंध में दिये गये उनके व्याख्यानों को ‘राजयोग’ नामक पुस्तक में संकलित किया गया है। राजयोग के अन्तर्गत अष्टांगयोग का वर्णन आता है। योगसूत्र के अनुसार चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा गया है। “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।”

योगसूत्र के अनुसार राजयोग !

राजयोग को सभी योगों का राजा कहा जाता है, क्योंकि इसमें प्रत्येक योग की कुछ ना कुछ सामग्री अवश्य मिल जाती है। राजा स्वाधीन होकर, आत्म विश्वास और आश्वासन के साथ कार्य करता है। इसी प्रकार एक राजयोगी भी स्वायत्त, स्वतंत्र और निर्भय होता है। राजयोग आत्मानुशासन और अभ्यास का मार्ग है। राजयोग को अष्टांगयोग भी कहते हैं क्योंकि इसे आठ अंगों में संगठित किया जाता है। योगसूत्र में महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांगयोग का वर्णन आता है। 

 यमनियमासनप्राणायामप्रतयाहारधारणाध्यान-समाधयोऽष्टावड्गानि।।२९।।

अष्टांग, अर्थातू आठ अंगों को यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि के नाम से जाना जाता है। आइए इन सभी अंगों के संबंध में संक्षेप में जानते हैं।

योगाड्गनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानवीप्तिराविवेकख्याति।।२८।। अर्थात योग के सभी अंगों का अनुष्ठान करते करते जब अंधविश्वास का शमन हो जाता है, तब ज्ञान प्रज्वलित हो उठता है, उसकी अंतिम सीमा विवेकख्याति है।

•यम और नियम !

यम और नियम से तात्पर्य खुद को संयमित करने से है। यम अवांछित कार्यों से निजात पाने, बाह्य एवम् अंत: को शुद्ध करने का साधन है। और नियम का आशय आंतरिक अनुशासन से है। ये उत्तम चरित्र के विकास में सहायक होते हैं। 

अहिंसासत्यास्तेयब्रम्हचर्यापरिग्रहायमा।।३०।।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह ये पांच उपांग यम के अन्तर्गत आते हैं। यम के इन पांच चरणों द्वारा स्वयं को संयमित करने का अभ्यास किया जाता है। 

अहिंसा का महत्व !

अपने मन, वचन और कर्म से प्राणिमात्र को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं देना अहिंसा है। अहिंसा का अर्थ है; कभी भी किसी भी प्राणी का अपकार नहीं करना। भगवान महावीर ने अहिंसा के संबंध में कहा है ; “शांति और आत्म-नियंत्रण अहिंसा है; सभी जीवित प्राणियों के प्रति सम्मान अहिंसा है”।

याज्ञवल्क्य संहिता में कहा गया है ; “मनसा वाचा कर्मणा सर्वभूतेषू सर्वदा। अक्लेश जननं प्रोक्तमहिंसात्वेन योगिभिः।।” अर्थात मन, वचन एवं कर्म द्वारा सभी जनों को क्लेश न पहुंचाने को ही महर्षि जनों ने अंहिसा कहा है। 

व्यासभाव्य में व्यासजी ने कहा है ; “अहिंसा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः।” अर्थात सभी प्राणियों के प्रति हर प्रकार से विद्रोह भाव का परित्याग करना अहिंसा है।

पातंजल योगसूत्र में अहिंसा के बारे में लिखा है: “अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।।३५।।” अर्थात् अन्तर्तम में अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जानें पर, उसके निकट सब प्राणी अपना स्वभाविक वैरभाव त्याग देता है। यह अंहिसा का मापदण्ड है।

हिंसा अधर्म है, हिंसा खुद का भी और दुसरों का भी अहित करता है। कबीरदास के इस दोहे में इस भाव की महत्ता और इसे धारण करने की सीख है। “जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल। तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल।”

महाभारत काल के प्रसिद्ध विवेकवान व्यक्तित्व महात्मा विदुर के अनुसार ; “जिस भांति भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ मधु को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मनुष्य को हिंसा न करते हुए अर्थों को ग्रहण करना चाहिए”।

सत्य का आशय !

सत्य का अर्थ है मन, वचन और कर्म में एकरुपता बनाये रखना, कभी झूठ का सहारा नहीं लेना।

मुण्डकोपनिषद कहता है ; “सत्यमेवजयते नानृतं।” अर्थात सत्य की जीत होती है, असत्य की नहीं।

पातंजल योगसूत्र में कहा गया है ; “सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाश्रयतत्वम्।।३६।।” अर्थात् जब सत्य हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब तन, मन और वचन से सत्य ही बाहर आता है। सत्य को साधने में जो समर्थ हो जाते हैं, वो जो कहते हैं वह सत्य हो जाता है।

गौतम बुद्ध सत्य के संबंध में कह गये हैं, कि “मनुष्य क्रोध को प्रेम से, पाप को सदाचार से, लाभ को दान से और मिथ्या- भाषण को सत्य से जीत सकेगा”।

सच सुनिए सच बोलिए सच की करिए आस।सत्य नाम का जप करो जग से रहो उदास।।

कबीर का कहना है कि सत्य वाणी (ईश्वर से सम्बंधित बातें; नाम, रूप, लीला, गुण, धाम) ही सुननी एवं बोलनी चाहियें और सत्य की यानि ईश्वर की ही आस करनी चाहिए।

झूठ ; जिसे वाक्‌छल या असत्यता भी कहा जाता है, एक ज्ञात असत्य है। इसे सत्य के रूप में व्यक्त किया जाता है। झूठ बोलने का तात्पर्य कुछ ऐसा कहने से होता है जो व्यक्ति जानता है कि गलत है। या जिसकी सत्यता पर वह व्यक्ति ईमानदारी से विश्वास नहीं करता और यह इस इरादे से कहा जाता है कि व्यक्ति उसे सत्य मानेगा। झुठ से परहेज़ नहीं करने वाला कभी योग साधना में सफल नहीं हो सकता। संत कबीर ने कहा है;

सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जिस हिरदे में सांच है, ता हिरदै हरि आप।।

अर्थात् ; सत्य की तुलना में दूसरा कोई तपस्या नहीं है,  और झूठ के बराबर दूसरा पाप नहीं है । जिसके हृदय में सत्य रम गया हो, वहाँ सदा ईश्वर का वास रहता है।

अस्तेय का अर्थ !

अस्तेय का अर्थ है ; चोरी नहीं करना एवम् मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे की सम्पत्ति को गलत तरीके से प्राप्त करने का भाव का अभाव। शांडिल्योपनिषद  में कहा गया है ; अस्तेयं नाम मनोवाक् कार्यकर्मभिः परद्वेषु निःस्पृहता। अर्थात शरीर, मन और वाणी द्वारा दूसरों के द्रव्य की इच्छा न करना अस्तेय कहलाता है। 

याज्ञवल्क्य संहिता में कहा गया है ; मनसा वाचा कर्मणा परद्रव्येषु निस्पृहः। अस्तेयम् इति सम्प्रोक्तं ऋषिभिर्तत्वदर्शिभिः।। अर्थात मन, वचन तथा कर्म से किसी दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझना अर्थात् उसकी कामना न करना ही अस्तेय है।

योगसूत्र के अनुसार अस्तेयप्रतिष्ठायाम् सर्वरत्नोस्थानम्।।३७।। अर्थात् जो अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है, उसके समक्ष सब प्रकार के धन प्रगट हो जाते हैं। 

वीर्यं धारणं ब्रह्मचर्यं !

शरीर में अवस्थित वीर्य शक्ति की अविचल रुप में रक्षा करना या ब्रह्मचर्य है। मन, वचन और कर्म से वासना का त्याग करना ब्रम्हचर्य है। ब्रम्हचारी स्त्री पुरुष में भेद नहीं करता। ऐसे व्यक्ति के मन मस्तिष्क में प्रबल इच्छाशक्ति संचित रहती है। महर्षि व्यास ने ब्रह्मचर्य के विषय में लिखा है ; ब्रह्मचर्य गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः। अर्थात गुप्त इन्द्रिय (उपस्थेन्द्रिय) के संयम का नाम ब्रह्मचर्य है।

ब्रह्मचर्य को सिद्ध कर लेने वाले साधकों के संबंध में पातंजल योग सूत्र के अनुसार ; ब्रम्हचर्य प्रतिष्ठायाम् वीर्यलाभ:।।३८।। ब्रम्हचर्य के प्रतिष्ठित हो जानें पर वीर्यलाभ होता है।

अपरिग्रह क्या है !

किसी से उपहार लेने की वृति और अनावश्यक वस्तुओं, विचारों के संग्रहण की प्रवृति का त्याग करना अपरिग्रह है। मन, वाणी और शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व विचारों का संग्रह नहीं करने का अभ्यास योगसिद्धि के लिए आवश्यक होता है। मनुस्मृति के अनुसार- इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने से व्यक्ति निःसंदेह दोषी बनता है परन्तु इन्द्रियों को वश में रखने से विषयों के भोग से पूर्ण विरक्त हो जाता है। ऐसे आचरण से अपरिग्रह की सिद्धि होती है।

भगवान महावीर के शब्दों में ; सवत्थुवहिणा बुद्धा संरक्खणपरिग्गहे। अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं ॥ अर्थात् ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं।

पतंजलि योगसूत्र में अपरिग्रह के विषय में कहा है ; अपरीग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोध:।।३९।। अर्थात् अपरिग्रह के प्रतिष्ठित हो जानें पर पूर्वजन्मों की बात स्मृति में उदित हो जाती है।

दुसरा है नियम !

नियम व्यक्ति के आन्तरिक जीवन को अनुशासित करता हैं। योगसूत्र के अनुसार ; शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानि नियमा।।३२।।

नियम के भी पांच चरण हैं। ये हैं; शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान। इनका अभ्यास करके शारिरीक और मानसिक रूप से स्वयं को विकसित किया जाता है।

शौच से शुद्धिकरण !

शौच से आशय है शरीर को शुद्ध रखना, बाहर से भी और भीतर से भी। शौच मुख्यत: दो प्रकार की कही गई है ; बाह्य और आभ्यान्तर।  स्नानादि कर्म से शरीर की शुद्धि, स्वार्थ का त्याग, सबके साथ अच्छा व्यवहार करना बाह्य शुद्धि कहलाती है।

अहंकार, राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषों को दूर करना आन्तरिक पवित्रता कहलाती है। अन्त:शौच शरीर को भीतर से स्वच्छ करने की क्रिया है। मन में गलत भाव उत्पन्न हो, तो मन को उसके विपरीत दिशा में मोड़ देने, मन पर विपरीत दिशा में आघात करने से अंतर्मन शुद्ध हो जाता है । ऐसा बार बार करते रहने से धीरे-धीरे शरीर भीतर से पवित्र हो जाता है। योगसूत्र के अनुसार ; वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्।।३३।। वितर्क यानि योग के विरोधी भाव उपस्थित होने पर उनके प्रतिपक्षी विचारों का बारम्बार चिंतन करना चाहिए। 

शौचात् स्वांड़्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग:।।४०।। अर्थात् शौच के प्रतिष्ठित हो जानें पर अपने तन के प्रति घृणा का उद्वेग होता है, दुसरों के साथ संग करने की फिर प्रवृति नहीं रहती।

सत्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात।मदर्शनयोग्यत्वानि च।।४१।। इसके अलावा सत्वशुद्धि, सौम्यता, एकाग्रता, इन्द्रियों पर नियन्त्रण और आत्मदर्शन की योग्यता, ये गुण स्थापित होते हैं।

संतोष क्या है !

संतोष यानि संतुष्टि का आशय है,  अत्याधिक प्राप्त करने की इच्छा का अभाव। मनुस्मृति के अनुसार संतोष ही सुख का मूल है। गुरुनानक जी ने कहा है ; बिना संतोष नहीं कोई राजे। सकल मनोरथ बृथे सब काजे।। 

योगसूत्र के अनुसार ; संतोषादनुत्तमसुखलाभः।।४२।।

अर्थात् चित्त में संतोष भाव दृढ प्रतिष्ठित हो जाने पर योगी को निश्चय ही सुख प्राप्त होता है।

स्वाध्याय यानि स्वयं का अध्ययन !

स्वाध्याय का तात्पर्य अध्ययन और मनन से है। शास्त्रों का अध्ययन और उस आधार पर स्वयं का आकलन करना स्वाध्याय है।, स्वयं पर विचार करने अवांछित तत्वों को स्वयं से पृथक करने में योगी समर्थ हो जाता है। पं. श्रीराम शर्माजी आचार्य के अनुसार-अच्छी पुस्तकें जीवन देव प्रतिमायें हैं, जिनकी अराधना से तत्काल प्रकाश और उल्लास मिलता है। योगसूत्र के अनुसार ; स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः 

अर्थात स्वाध्याय से इष्टदेवता का साक्षात होता है। स्वाध्यायशील को देवता, ऋषियों और सिद्धों के दर्शन होते हैं और वे इसके योगकार्यों में सहायक होते हैं।

तपो द्वन्दसहनम् !

शारीरिक, मान्सिक सभी प्रकार के द्वन्दों को सहन करना तप है। साधनाकाल में सब कुछ सहन करते हुए अपनी साधना में रहना तप कहा जाता है। तपस्या से इन्द्रियों में सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति आ जाती है। योगसूत्र में कहा गया है ; कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयातपसः।।४३।। तप के प्रभाव से जब अशुद्धि का नाश हो जाता तो शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है।

ईश्वरप्रणिधानद्वा !ं

महर्षि पतंजलि के अनुसार ईश्वर प्रणिधान से शीघ्रतम समाधि लाभ होता है। ईश्वर की उपासना या परमसत्ता के प्रति भक्ति विशेष को ईश्वर प्राणिधान कहते हैं। अथर्ववेद के अनुसार “हे वरणीय परमेश्वर! हम जिस शुभ संकल्प इच्छा से आपकी उपासना में लगे हैं, आप उसमें पूर्णतः प्रदान करें, सिद्धि दें और हमारे समस्त कर्मफल आपके निमित्त अर्पित हैं”, इसी का नाम ईश्वर प्रणिधान है।

योगसूत्र के अनुसार ; समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।४५।। अर्थात ईश्वर की भक्तिविशेष और सम्पूर्ण कर्मों तथा उनके फलों को उसके समर्पण कर देने से विघ्न दूर हो जाते हैं और समाधि शीघ्र सिद्ध हो जाती है।

आसन अर्थात् देह स्थिरता का अभ्यास !

शरीर को नियंत्रित कर अधिक समय तक खास अवस्था में स्थिर रखने का अभ्यास आसन कहलाता है।

उपनिषद में उल्लेखित है; कि जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरन्तर परम ब्रह्म का चिन्तन किया जा सके, उसे आसन कहते हैं। श्रीमदभगवदगीता के अनुसार काया, सिर व गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर किसी अन्य दिशा को न देखते हुए किया गया अभ्यास आसन है। 

स्थिरसुखासनम् ।।४६।। महर्षि पतंजलि के अनुसार स्थिरतापूर्वक रहकर जिसमें सुख की अनुभूति हो, वह आसन है। 

प्रयत्ननशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्।।४७।। शरीर में एक प्रकार का जो स्वाभाविक चंचलता है, उसे शिथिल कर देने से और अनन्त का चिन्तन से आसन स्थिर और सुखकर होता है।

प्राणायाम !

प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है। प्राण और आयाम। प्राण का अर्थ होता है, जीवनी शक्ति और आयाम से आशय है नियंत्रण करना या रोकना। योगसूत्र में कहा गया है ;

तस्मिन सति श्वासप्रश्वास योर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।४९।।

अर्थात् आसन के स्थिर होने पर श्वास-प्रश्वास की गति को संयमित करना प्राणायाम है।

‘राजयोग’ पुस्तक में एक कहानी का जिक्र हुवा है जो मैंने पढ़ी है  ; यह कहानी एक राजा और एक मंत्री की है। किसी कारण से राजा अपने मंत्री पर नाराज हो गया। उसने उसे एक बहुत ऊंची मीनार की चोटी में कैद करके रखने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा का पालन किया गया। मन्त्री भी वहां कैद होकर मौत की राह देखने लगा। मन्त्री की एक पतिव्रता पत्नी थी। रात को उस मीनार के नीचे आकर उसने अपने कैदी पति को पुकारकर पूछा : “मैं किस प्रकार तुम्हारी मदद करुं ?” 

मन्त्री ने कहा ; “अगली रात को एक मोटा लम्बा रस्सा, एक मजबूत डोरी, एक बंडल सुत, रेशम का पतला सुत, एक भृंग और थोड़ा सा शहद लेती आना”। पति की बात सुनकर वह अचंभित तो हुवी, पर अपने सहधर्मी के आज्ञानुसार दुसरे दिन सब वस्तुएं ले गयी। मन्त्री ने उससे कहा ; “रेशम का धागा मजबुती से भृंग के पैर में बांध दो, उसकी मुछों में एक बुंद शहद लगा दो और उसका सिर ऊपर की ओर करके उसे मीनार की दीवार पर छोड़ दो।”  पतिव्रता ने प्रत्येक निर्देश का अक्षरशः पालन किया। 

तब उस कीड़े ने अपना लम्बा रास्ता तय करना शुरू किया। सामने शहद की गंध पाकर लालचवश वह धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा और अंत में मीनार की चोटी पर जा पहुंचा। मन्त्री ने उसे झट से पकड़ लिया और उसके साथ रेशम के सुत को भी। इसके बाद अपनी पत्नी से कहा ; “बंडल में जो सुत है, उसे रेशम के धागे के छोर से बांध दो।” इस प्रकार सुत भी उसके हाथ लग गया। इसी उपाय से वह डोरी और रस्सा भी पकड़ लिया। और रस्सा ऊपर बांधकर वह नीचे उतरकर भागने में सफल हो गया। 

हमारी देह में श्वास-प्रश्वाश की गति मानो रेशमी सुत है। इसके धारण या संयम कर सकने पर एक एक करके स्नायविक शक्तिप्रवाह यानि सुत का बंडल, फिर मनोवृति यानि डोरी और अंत में प्राणरुपी रस्से को पकड़ सकते हैं। प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है।

प्रत्याहार यानि विपरीत दिशा में जाना !

प्रत्याहार का अर्थ है विषयों से विमुख होना। इसमें इन्द्रियां अपने बहिर्मुख विषय से पीछे हटकर अन्तर्मुखी होती हैं। . श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार, प्रति और आहार, इन दो शब्दों के जोड़ से प्रत्याहार शब्द बना है। आहार का अर्थ है खाना और प्रत्याहार का अर्थ है उगलना अर्थात श्वास ग्रहण करना आहार हुआ और श्वास बाहर निकालना प्रत्याहार। प्रत्याहार का तात्पर्य मनोभूमि को इस योग्य बनाना कि उस पर खडे़ होकर इस महान सम्पदा (योग साधना) का स्वागत किया जा सके अर्थात पूर्णतया सफाई।

महर्षि पतंजलि ने प्रत्याहार के संबंध में कहा है ; स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरुपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।५४। अर्थात् इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ सम्बन्ध न होने पर चित्त के स्वरुप का अनुकरण जैसा करना प्रत्याहार है।

ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्।।५५।। अर्थात उस प्रत्याहार से इन्द्रियों का उत्कृष्ट वशीकार होता है।

धारणा-ध्यान और समाधि !

चित्त को किसी एक विचार मे बांध लेने की क्रिया को धारणा कहा जाता है। मन को एक विशेष स्थान पर स्थिर करने का नाम धारणा है। यह वस्तुतः मन की स्थिरता का घोतक है। योगसूत्र के अनुसार ; देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।

अर्था्त् (शरीर के बाहर या भीतर कहीं भी) किसी एक स्थान विशेष में चित्त को बांधना धारणा कहलाता है।

इस प्रकार आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि द्वारा जब चित्त स्थिर हो जाये, तब उसको अन्य विषयों से हटाते हुए एक ध्येय विषय में ठहराना धारणा है।

धारणा की उच्च अवस्था ध्यान है। ध्यान चेतन मन की एक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी चेतना बाह्य जगत् के किसी स्थलविशेष पर केंद्रित करता है। चित्त को एक ही लक्ष्य पर स्थिर करना ध्यान है। योगशास्त्र के अनुसार, जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाये उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना ध्यान कहलाता है। योगसूत्र के अनुसार ; तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।। अर्थात् इस देश में ध्येय विषयक ज्ञान या वृत्ति का लगातार एक जैसा बना रहना ध्यान है। 

साधना की ऐसी चरम अवस्था, जिसमें योगी का बाह्य जगत से नाता टूट जाता है, समाधि कहलाता है। यह योग की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें योगी चरमोत्कर्ष की प्राप्ति कर मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है और यही योग साधना का लक्ष्य है। समाधि की अवस्था में योगी की समस्त प्रकार की चित्तवृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती है। योगसूत्र में कहा गया है ; तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरुपशून्यमिव समाधिः।।

अर्थात जब (ध्यान में) केवल ध्येय मात्र की ही प्रतीति होती है और चित्त का निज स्वरुप शून्य सा हो जाता है, तब वह (ध्यान ही) समाधि हो जाता है।

यह सबके लिए अनुष्ठेय है !

जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम्।

योगसूत्र में कहा गया है ; समस्त साधनों का प्रयोग प्रत्येक के लिए उपलब्ध है। विना किसी जाति, देश, काल अथवा अवस्था का भेद किए, यह सबके लिए अनुष्ठेय है।

करत करत अभ्यास से : karat karat abhyas se !

राजयोग के सभी आयामों का साधना कठिन अवश्य है, लेकिन ये असाध्य नहीं हैं। अच्छी सोच, कुशल मार्गदर्शन और दृढता के साथ प्रयत्नशील रहने से सब संभव हो जाता है।  मनुष्य को भीतर से उसका मन थकाता है, शरीर नहीं। मन को भटकने का आदत है, जिसका मन भटकता रहता है, वह भीतर से थक जाता है।

हमारा मन बहुत शक्तिशाली है, इसमें एक ऐसी शक्ति भी है, जिससे वह स्वयं के अन्दर क्या घट रहा है, उसे अनुभव कर सकता है। इसके लिए मन के समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही इसका प्रयोग करना होता है। राजयोग के अभ्यास से हमारा मन एकाग्र होने लगता है। और एकाग्र मन अपने सारे रहस्यों को उजागर कर देता है। 

दृढ़ता के साथ प्रयत्नशील हुवा जाय तो राजयोग के द्वारा सुख, शान्ति, ऐश्र्वर्य सबकुछ हासिल किया जा सकता है। इस संसार में अनेकों महापुरुषों का अवतरण हुआ है, जिन्हें यह सबकुछ प्राप्त हुवा है। और इन्होंने अपने अनुभवों को संसार के समक्ष इसलिए रखा है, कि दुसरे भी इन विधाओं का प्रयोग पुरे विश्वास के साथ कर सकें। 

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