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मुक्ति का अर्थ — Meaning of Freedom

मुक्ति का शाब्दिक आशय है, मुक्त होने की अवस्था। स्वछंदता, स्वतंत्रता, आजादी आदि इसके समानार्थी शब्द समझे जाते हैं। सामान्यतः सांसारिक दायित्वों के निर्वाह के क्रम में आने वाले समास्याओं से निजात पाने की अवस्था को मुक्त होना समझा जाता है। परन्तु वास्तव में मुक्ति क्या है? समस्याओं से मुक्ति या दुखों से मुक्ति !

सामान्य मनुष्य सुख भोग करने की इच्छा रखता है। उसका हर कृत्य अपने इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही होता है। इस सर्वविदित तथ्य को जानते हुए कि सुख के संसाधन इकट्ठे किए जा सकते हैं, पर इन साधनों से सुख खरीदा नहीं जा सकता।

फिर भी मनुष्य महात्वाकांक्षाओं की अति में जीता है। इस क्रम में वह अनेक समस्याओं में उलझ जाता है। और फिर इन समस्याओं से बाहर निकलने का प्रयास करता है। अगर किसी समस्या से निजात मिल गई तो वह स्वयं को मुक्त हुवा समझता है। यह समस्याएं शारीरिक, मान्सिक एवम् सांसारिक हो सकती हैं। 

परन्तु क्या जीवन में आनेवाले समस्याओं से वह मुक्त हो पाता है? एक को सुलझावो तो दुसरी खड़ी हो जाती है। वास्तव में सामान्य मनुष्य कामना, वासना, मोह-माया के बंधनों से कभी मुक्त नहीं हो पाता। इसका कारण है  सुख भोग करने के प्रति आसक्त होना। और यही समस्त दुखों का कारण है।

मनुष्य का जीवन एक मकड़ी की भांति है। एक मकड़ी जो प्रकृति प्रदत कौशल को जाल बनाने में लगा देता है। और अंत में अपने ही बनाए हुवे जाल में उलझ कर रह जाता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य अपने विचारों से निर्मित बंधनों में जकड़़ जाता है। 

जीवन में ऐसी भी स्थितियों से गुजरना पड़ता है, जब समस्याओं से निपटने में वह असमर्थ हो जाता है। इन परिस्थितियों में वह समस्याओं से भागने लगता है। और एक तरह से पलायन को ही मुक्ति समझ लेता है। समस्याओं से घबराकर व्यक्ति  गलत प्रवृतियों का शिकार हो जाता है?  यहां तक कि वह आत्मघात को उतारु हो जाता है! स्वछंद होना अथवा पलायन करना मुक्ति नहीं है स्वतंत्र होना मुक्ति है।

मुक्ति का अर्थ है संपुर्ण आजादी !

दार्शनिक मतानुसार कर्म के बंधनों से मुक्त होना मुक्ति है। जीवों का जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाना मुक्ति है। वेदांत के अनुसार आत्मज्ञान द्वारा कामना, वासना, मोह-माया के बंधनों से स्वतंत्र होकर आत्मा का साक्षात्कार करना ही मुक्ति है। उपनिषदों में आनंद की स्थिति को मोक्ष की स्थिति कहा गया है। मनुष्य जब आनंद की स्थिति में होता है, तो उसके जीवन में द्वन्द नहीं होता। 

वैदिक दर्शन में मानव जीवन के चार उद्देश्य बताये गये हैं। ये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म का अर्थ है आत्मविकास और परोपकार की भावना से कार्य करना। जीवन यापन करने के लिए उत्तम कार्य करते हुवे धनार्जन करना अर्थ है। काम का अर्थ है धन-संपदा अर्जित करना परन्तु जीवन को सात्विक एवम् संयमित बनाये रखना। और मोक्ष से आशय है आत्मा के शुद्ध स्वरुप को जानना। 

सांख्य दर्शन में वर्णित है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए कठोर तप करना पड़ता है। इसके लिए अष्टांग योग का मार्ग बताया गया है। इस कठोर साधना के आठ अंग हैं! यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। साधना के माध्यम से मनुष्य अहंकार से, अज्ञान से, अविद्या से मुक्त हो जाता है। 

योग क्या है! जानिए : Know what is yoga !

बौद्ध धर्म में मोक्ष के समानार्थी निर्वाण शब्द की व्याख्या की गई है। निर्वाण का अर्थ है भावनाओं पर संयम एवम् वासनाओं से मुक्ति। भगवान बुद्ध ने स्पष्ट कहा है कि उत्तम आचरण से परिपूर्ण जीवन का ही दुसरा नाम निर्वाण है। बौद्ध दर्शन में भी तृष्णा एवम् अविद्या को बंधन का कारण बताया गया है।

समस्याओं से भयभीत होकर कर्मों का, कर्तव्यों का, घर-संसार का त्याग कर देना मुक्ति नहीं है! समस्याओं से पलायन करना मुक्ति नहीं है। कामनाओं का, वासनाओं का दमन करने में भी मुक्ति नहीं है। मुक्ति संघर्ष में है, मुक्ति संयम से प्राप्त किया जा सकता है। महत्ती शब्दों, विषयों पर विचार किए बिना इनके आशय को समझना कठिन होता है।

जगत में जितने भी विचारक हुए हैं,  उन सभी ने मूल रूप से यही समझाया गया है कि समुचित ज्ञान की प्राप्ति मुक्ति का उपाय है। अज्ञान के अन्धकार में मनुष्य को यह समझ में ही नहीं आता कि यह जीवन क्या है? जीवन का उद्देश्य क्या है? उसका इस संसार में आना क्यों हुवा? उससे जो कृत्य हो रहे हैं, उसका उसके जीवन में क्या प्रभाव पड़ रहा है! 

आजादी पर ओशो का दर्शन !

ओशो के शब्दों में ; कौन हाथ तुम्हें जिंदगी में फेंक देता है, तुम्हें पता नहीं। क्यों तुम एक दिन जन्म जाते हो, तुम्हें पता नहीं। कौन तुम्हें जन्मा देता है, तुम्हें पता नहीं। क्यों? कुछ पता नही! मगर तुम कहते हो! मेरा जीवन, मेंरा जन्म! जैसे तुम्हारा इसमें हाथ हो। 

कौन तुम्हारे अन्दर कामनाएं जगाता है, कौन वासनाएं जगाता है, तुम्हें पता नहीं। मगर तुम कहते हो! मैं यह करके रहूंगा। ये सारी आकांक्षाएं तुम्हारे भीतर उठी हैं, इन्हें तुमने उठाया नहीं है। यह जो खेल तुम खेल रहे हो, तुम्हारा लिखा हुवा नहीं है।

दार्शनिकों की बाते साधारण मन के समझ से परे होती हैं। इन शब्दों पर विचार करें तो मन में द्वंद उत्पन्न होता है। जब कर्म मनुष्य से होता नहीं उससे करवाया जाता हैं। जब कुछ भी उसके वश में नहीं होता तो वह क्या कर सकता है! जब उसके भीतर निहित कामनाओं, वासनाओं में उसका वश नहीं तो वह क्या कर सकता है! परन्तु यहां एक तथ्य है जो जानने योग्य है! वह तथ्य है कि मनुष्य के भीतर कामनाओं को, वासनाओं को आखिर जगाने वाला कौन है? कोई तो है जो ऐसा कर रहा है! 

कोई गणितज्ञ बनना चाहता है, कोई संगीतज्ञ बनना चाहता है। किसी को धन चाहिए, किसी को महल चाहिए। सब को सुख चाहिए, सब को सफलता चाहिए। और वह कहता है कि मैं इसे करूंगा, करके रहूंगा। वह वही करता है, जो उससे करवाया जाता है। यह जानने का प्रयत्न नहीं करता की कर्ता कौन है। वह स्वयं को ही कर्ता समझ बैठा है। कोई यह जानने का प्रयत्न नहीं करता कि वास्तव में कर्ता कौन है!

ज्ञानीजन तो सिर्फ इशारा करते हैं। वे ज्ञान कहां है, यह किस प्रकार प्राप्त हो सकता है। इसके लिए दिशा दिखाते हैं, मार्ग बताते हैं। प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करना पड़ता है। यह बात समझने की है कि यह स्वयं की यात्रा है! दिशा दिखाने वाले की नहीं! अंततः: स्वयं के विषय में ही है। 

यह प्रत्येक के लिए चिंतन का विषय है कि  उसके जीवन को कौन चला रहा है। गहराई से विचार हो तो संभवतः स्पष्ट हो जायगा कि कर्ता! कोई और नहीं, स्वयं का मन ही है। मनुष्य के जीवन में जो कृत्य हो रहे हैं, कर्ता स्वयं उसका मन है। ओशो कहते हैं कि सत्य को पाना है, आत्मा को जानना है तो मन को छोड़ दो। मन के न होते ही सत्य आविष्कृत हो जाता है। विचार जहां नहीं है वहां मन नहीं है। मन के हटते ही उसके रिक्त स्थान में जिसका अनुभव होता है, वही आत्मा है। 

चिंता नहीं चिंतन करो ..!

साधारण मनुष्य अपना सारा जीवन द्वंद में ही जीता है। मनुष्य विचारकों के, ज्ञानियों के विचारों को पढ़ता है, सुनता है। परन्तु इन विचारों पर मनन नहीं करता। तो फिर वगैर चिंतन-मनन किए कोई इन विचारों का अमल कैसे कर सकता है! 

ओशो के शब्दों में; जब तक आपने अपनी पुरी वासना को भी समग्रीभूत अंगीकार न कर लिया हो तब तक आपके भीतर अद्वैत निर्मित नहीं हो सकता है। और यह आनंद की बड़ी अद्भुत बात है कि जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वासना को उसकी समग्रता में स्वीकार कर लैता है, वैसे ही वासना से मुक्त हो जाता है। द्वंद में वासना बढ़ती है, घटती नहीं है। संतप्त होती है, संतुष्ट कभी नहीं। पीड़ा बन जाती है, नर्क बन जाती है, लेकिन उससे छुटकारा कभी नहीं हो पाता। और नर्क हमसे कहेगा कि जिस चीज में हम इतने उलझ गए हैं, उससे और दुर हटते जाएं। जितने हम दुर हटते हैं, उतना फासला भीतर बड़ा होता चला जाता है।

कामना का अर्थ क्या है: meaning of desire.

साधना के संबंध में ओशो का कहना है_ संसार और शरीर का विरोध नहीं, अतिक्रमण करना साधना है। और वह दिशा न भोग की है न दमन की है। वह दिशा दोनों से भिन्न है। वह तीसरी दिशा है, वह दिशा संयम की है। भोग और दमन के जो पूर्ण मध्य में है, वह कुछ भोग और कुछ दमन नहीं है। वह न भोग है न दमन है। वह समझौता नहीं संयम है। अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है नष्ट हो जाता है। अति ही अज्ञान है और अंधकार है और मृत्यु है।

चुनाव संसार है, अचुनाव संन्यास है! _ ओशो

कर्मों का किया जाना और कर्म का स्वत: होना दोनों में फर्क होता है। किसी विवशता के कारण हो अथवा मनोनुकूल हो, मनुष्य जिन दायित्वों का पालन करता है, उनका चुनाव वह स्वयं करता है। मन हमेशा चुनाव करता है, अचुनाव के संबंध में वह कभी विचार ही नहीं करता। और जिस विषय में कभी निर्णय लिया ही नहीं जाता, वहां अनिर्यण की कोई बात ही नहीं है। 

ओशो के शब्दों में ; अष्टावक्र महागीता का मौलिक संदेश एक है कि चूनाव संसार है। अगर तुमने सन्यास भी चूना तो वह भी संसार हो गया। जो तुमने चूना वह परमात्मा का नहीं है, जो अपने से घटे वही परमात्मा का है। जो तुमने घटाना चाहा वो तुम्हारी योजना है, वह तुम्हारे अहंकार का विस्तार है। 

महागीता कहती है तुम चूनो मत! चूनोगे तो अहंकार से ही चूनोगे। चूनोगे तो मैं करनेवाला हूं, कर्त्ता हो जावोगे। अचूनाव संन्यास है, चूनाव संसार है। इसिलिए संयास को चूनने का कोई उपाय नहीं है, संन्यास घटता है।

अनिर्णय की अवस्था तो तब है जब तुम्हारे मन में बहुत सी चीजें हैं, प्रतियोगी चीजें हैं और तुम तय नहीं कर पाते। तय तुम करना चाहते हो और नहीं कर पाते तो अनिर्णय है। अनिर्णय बड़ी दुविधा की दशा है। अचूनाव तुम तय करना ही नहीं चाहते, तुमने तय करना छोड़ दिया है। अचूनाव तो चैतन्य की सबसे ऊंची स्थिति है। अनिर्णय चैतन्य की सबसे नीची स्थिति है। अनिर्णय को अचूनाव न समझ लेना। नहीं तो भ्रांति को तुम सत्य समझ लोगे। निर्णय नहीं कर पाना एक तरह की असहाय अवस्था है। 

दार्शनिक हमेंशा से कहते आ रहे हैं कि मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य कामनाओं से मुक्ति है। निर्णय करना छोड़ देना एक मुक्ति है। जनक कहते हैं यही इति ज्ञान है। इति ज्ञान से आशय है, यही ज्ञान है।  ज्ञान के अवस्था को उपलब्ध हो जाने पर कर्म के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। और इस अवस्था में मनुष्य दायित्वों का निर्वहन करते हुए भी दायित्वों के बोझ से मुक्त हो जाता है। उसे यह बात समझ में आनी लगती है कि कर्ता तो कोई और है। कर्त्ता तो वो है जो समस्त सृष्टि को चला रहा है।

स्वतंत्रता पर विवेकानन्द के विचार !

दर्शन शास्त्र में कर्म के बंधनों से मुक्त होने को ही मुक्ति कहा गया है। कर्मयोग नामक पुस्तक में स्वामी विवेकानंद के विचार संकलित हैं। अपने व्याख्यानों में उन्होंने कर्म, कर्तव्य और मुक्ति के विषय में  विस्तार से समझाया है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार ” इस संसार के प्रति आसक्ति का त्याग करना बहुत कठिन है। बहुत थोड़े लोग ऐसा कर पाते हैं। हमारे शास्त्रों में इसके लिए दो मार्ग बताए गए हैं। एक ‘नेति , नेति’ कहलाता है और दुसरा ‘इति , इति’। पहला मार्ग निवृति का है, जिसमें ‘नेति , नेति’ ( यह नहीं, यह नहीं) कंरते हुवे सर्वस्व का त्याग करना पड़ता है। और दुसरा है प्रवृति का, जिसमें ‘इति ‘ इति’ करते हुए सब वस्तुओं का भोग करके फिर उसका त्याग किया जाता है। 

निवृति मार्ग अत्यंत कठिन है, यह केवल प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न तथा विशेष उन्नत महापुरुषों के लिए ही साध्य है। उनके कहने भर की देर है, ,’नहीं मुझे नहीं चाहिए,’ ‘ कि बस उनका शरीर और मन तुरन्त उनकी आज्ञा का पालन करता है, और वे संसार से बाहर चले जाते हैं।परन्तु ऐसे लोग बहुत ही दुर्लभ हैं। यही कारण है कि अधिकांश लोग प्रवृति मार्ग ग्रहण करते हैं ‌ इसमें उन्हें संसार में से ही होकर जाना पड़ता है, और बंधनों को तोड़ने के लिए बंधनों की ही सहारा लेनी पड़ती है। यह भी एक प्रकार का त्याग है। अन्तर इतना ही है कि यह धीरे-धीरे, क्रमश: सब पदार्थों को जानकर, उनका भोग करके और इस प्रकार उनके सम्बंध में अनुभव लाभ करके प्राप्त होता है। 

वैरागी मन क्या है जानिए ! Know what is the recluse mind

इस प्रकार विषयों का स्वरूप भलीभांति जान लेने से मन अन्त में उन सब को छोड़ देने में समर्थ हो जाता है और आसक्तिशुन्य बन जाता है। अनासक्ति के प्रथमोक्त मार्ग का साधन है विचार, और दुसरे का कर्म। प्रथम मार्ग ज्ञानयोगी का है_ वह वह सभी कर्मों का त्याग करता है! दुसरा कर्मयोगी का है_उसे कर्म करते रहना पड़ता है। कर्मयोग शिक्षा देता है कि तुम निरन्तर कर्म , परन्तु कर्म में आसक्ति का त्याग कर दो। अपने मन को सदैव स्वाधीन रखो। कामनाओं से, वासनाओं से मुक्त रखो। 

स्वामी विवेकानंद – Swami Vivekanand Ka Mahan Jeevan

स्वामी कहते हैं; कर्मयोग हमें यह शिक्षा देता है कि ‘कर्तव्य’ की जो भावना है, वह एक निम्न श्रेणी की चीज है। फिर भी हममें से प्रत्येक को कर्तव्य कर्म करने ही होंगे। परन्तु हम देखते हैं कि कर्तव्य की यह भावना ही अनेक बार हमारे दुखों का एकमात्र कारण होती है। कर्तव्य हमारे लिए एक रोग सा हो जाता है और हमारे पुरे जीवन को दुखपूर्ण कर देता है। 

कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga

मनुष्य संसार में धन अथवा अन्य किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक करता रहता है। यदि उससे पूछो; ऐसा क्यों कर रहे हो? तो झट उतर देता है; यह तो मेंरा कर्तव्य है! परन्तु यह तो धन के लिए अस्वाभाविक तृष्णा मात्र है। और इस तृष्णा के ऊपर कुछ फूल चढाकर वे इसे ढंके रखने की चेष्टा करते हैं। जिसे सब लोग कर्तव्य कहते हैं वह क्या है? वह है केवल आसक्ति! जब कोई आसक्ति दृढ़ मूल हो जाती है, तो उसे ही हम कर्तव्य कहने लगते हैं। 

कर्तव्य क्या है जानिए ! Know what is Duty.

कर्तव्य वहीं तक अच्छा है, जहां तक कि यह पशुत्व भाव को रोकने में सहायता प्रदान करता है। अनासक्त होकर एक स्वतंत्र व्यक्ति की तरह कार्य करना तथा समस्त कर्म भगवान को समर्पण कर देना ही असल में हमारा एक मात्र कर्तव्य है।

भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य:। भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्यर्धावति पंचम:।।

जिनकी आज्ञा से वायु चलती है, सुर्य प्रकाशित होता है, पृथ्वी अवस्थित है और मृत्यु इस संसार में विचरण करती है। वे ही सबकुछ हैं। हम तो केवल उनकी उपासना मात्र कर सकते हैं। कर्मों के समस्त फलों को त्याग दो, भले के लिए भला करो! तभी पूर्ण अनासक्ति प्राप्त होगी। तब हृदयग्रन्थि छिन्न हो जायगी और हम पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर लेंगे। यह मुक्ति ही वास्तव में कर्मयोग का लक्ष्य है। 

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