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आदर्श का अर्थ -Meaning of Ideal.

आदर्श हिन्दी भाषावली का एक शब्द है। आदर्श का अर्थ है, श्रेष्ठतम होने की अवस्था। वह अवधारणा जिसके अनुसार उत्कृष्ट भाव-विचारों को धारण कर उत्तम चरित्र का निर्माण किया जा सकता है। आदर्श एक ऐसी अवधारणा है, जिसका संबंध व्यक्तित्व के विकास से है।

आदर्श का अर्थ क्या है जानिए!

बात किसी व्यक्ति, संस्था या समाज की हो, या फिर किसी कार्य विशेष की हो। प्रत्येक के लिए, प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्टता के मानक तय किए गए हैं। एक व्यक्ति, संस्था अथवा समाज को कैसा होना चाहिए! किसी कार्य को करने का उत्तम तरीका क्या है? इन सबके लिए नियम निर्धारित हैं। इन नियमों के अनुसार चलकर जो श्रेष्ठतम स्थिति प्राप्त होती है, आदर्श समझा जाता है।

एक आदर्श व्यक्ति का जीवन दुसरों के, समाज के कल्याणार्थ समर्पित होता है। इस जगत में अनेक ऐसे व्यक्तित्व का अवतरण हुवा है, जिन्होंने जीवन के किसी न किसी श्रेत्र में आदर्श को स्थापित किया है। इतिहास के पन्नों पर  दृष्टिपात करें तो आदर्श व्यक्तित्व के अनेक उदाहरण दिखाई पड़ते हैं। 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम!!

आइए ! रामायण के मुख्य पात्र श्रीराम के चरित्र पर नजर डालते हैं, जिन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। आदर्श के पथ पर चलने के क्रम में उन्हें अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा। मानसिक एवम् शारिरीक पीड़ादायक स्थितियों का सामना करना पड़ा। अपने कर्तव्यों के निर्वहन करने हेतु उन्हें सुख-भोग, ऐश्वर्य का त्याग करना पड़ा। 

बाल्यावस्था से ही उनके अंदर उत्तम संस्कारों की झलक दिखाई पड़ती थी। उनके नित्यकर्म में व्यवहारिक रूप से बड़ों का सम्मान करना शामिल था। रामचरितमानस में उद्धृत गोस्वामी तुलसीदास का यह चौपाई उनके माता-पिता एवम् गुरु के प्रति निष्ठा को दर्शाती है।

प्रातःकाल उठी कै रघुनाथा, मात-पिता गुरु नावहिं माथा।।

शिक्षित एवम् योग्य होते हुए भी युवा श्रीराम ने अपने भीतर अंहकार को पनपने नहीं दिया। श्रीराम के मन में जो भाव थे, उनमें सबका कल्याण निहित था। उनका मन एक समंदर की भांति था, गहरा और विशाल! उफनती नदियों कि भांति भावनाओं की तरंगे भी मन की गहराइयों में उतर कर शांत हो जाती थी। 

मन की ऐसी स्थिरता, जो अनायास उपस्थित होने वाली विषम परिस्थितियों से भी विचलित नहीं होती। श्रीराम की मन की स्थिरता कुछ ऐसी ही थी। राज्याभिषेक की तैयारियां हो रही थी। पुरे अयोध्या नगर में उत्सव मनाया जा रहा था। लेकिन बीच में अचानक से आ जाते हैं वे दो वचन, जो उनके पिता ने रानी कैकेई को दिए थे। जिसमें एक श्रीराम के वनवास गमन का और दुसरा भरत के राज्याभिषेक का था। हांलांकि पिता के मुख से कोई शब्द नहीं निकला, कोई आदेश न आया। पर जैसे ही ज्ञात हुआ श्रीराम को, उन्होंने पिता के वचन के आदर्श का पालन करने का निर्णय ले लिया। उन्होंने स्वयं की आकांक्षाओं को विना विचलित हुवे स्वयं में विलीन कर दिया। 

एक विद्यार्थी, एक पुत्र, एक भाई, एक पति, एक मित्र और एक राजा के रुप में, ऐसे अनेकों प्रसंग हैं, जो उनके आदर्श चरित्र को दर्शाते हैं। कुशल, पराक्रमी एवम् योग्य होते हुए भी उन्होंने कर्तव्य को हमेशा अधिकार से ऊपर माना। और नीज के हितों का त्याग कर जीवन भर कर्तव्यों का निर्वहन करते रहे। उन्होंने जो आदर्श स्थापित किए हैं, वो अप्रतिम हैं! यही कारण है कि उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम की संज्ञा दी गई है।

त्याग की प्रतिमुर्ति भरत !

आदर्श के एक और उत्कृष्ट उदाहरण है, एक समर्थ प्रशासक एवम् योद्धा भरत का! भरत को राज्य मिले, इसके लिए जो हुवा, उन्हें रास न आया। जो उचित है, उसके साथ खड़ा होना हमेशा कठिन होता है। उन्होंने राम के साथ हुवे अन्याय का विरोध ही नहीं किया, अपितु चल पड़े अपने भ्राता को वापस लाने के लिए। लेकिन राम को तो पिता के वचन को निभाना था। बहुत समझाया उन्होंने भरत को, परन्तु भरत को राजगद्दी मंजूर न था, जो छल से उन्हें दी गई हो। विकट स्थिति खड़ी हो गई, विना राजा का राज्य कैसे चलेगा।

उन्होंने परिस्थिति को समझा, कर्म से विमुख हुवे विना धर्म को निभाना कोई भरत से सीखे। लौट गये श्रीराम का पादुका लेकर और राजा का प्रतिनिधि बनकर राज्य का संचालन करने लगे। श्रीराम के लौटकर आने तक उन्होंने सकुशल राज्य का संचालन किया। उन्होंने सत्ता के सुख और अहंकार से निर्लिप्त रहकर केवल राजा के कर्तव्यों का निर्वहन किया। उन्होंने भ्रातृप्रेम, त्याग एवम् कर्त्तव्यपरायणता का जो आदर्श स्थापित किया, हमेंशा अनुकरणीय रहेगा।

लक्ष्मण और उर्मिला का त्याग!

वनवास तो राम को मिला था। लक्ष्मण का उनके साथ जाने जो निर्णय था, स्वयं उनका था। कोई बाध्यता न थी, भ्रातृप्रेम के अलावा और कोई कारण न था। और धन्य थी उनकी पत्नी उर्मिला, जो उनके इस निर्णय का विरोध नहीं किया। उनका पति अपने भाई के लिए उन्हें छोड़कर जा रहा था। आज के परिप्रेक्ष्य में यह बिल्कुल असामान्य घटना है।

उत्कृष्टतम नारी सीता।

उन्होंने अपने जीवन साथी के प्रति प्रेम और समर्पण का जो अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया, अविस्मरणीय है। सीता का श्रीराम के साथ वन गमन निर्णय भी सहज नहीं था। वनवास के दौरान स्थिति ऐसी भी आयी कि रावण ने छल पूर्वक उनका हरण कर लिया। परन्तु अपनी ओर आकर्षित करने के रावण के सारे प्रयास उत्कृष्ट चरित्र की स्वामिनी के समक्ष निरर्थक हो ग्ए।

यह अक्सर देखा जाता है कि सामान्य के असामान्य व्यक्तित्व को समझना कठिन होता है। कालांतर में एक सामान्य नागरिक ने उनपर लांछन लगा दिया। एक रात्री को उसकी पत्नी देर से घर लौटी। इस कारण वह अपनी पत्नी से नाराज हो गया और उसने उसे प्रताड़ित किया। यह कहते हुए कि मैं राम नहीं हूं, जिसने सीता को लम्बे समय तक दुसरे के साथ रहने के बाद भी सीता को अपना लिया, और उस घर से निकाल दिया। 

इस घटना की चर्चा धीरे धीरे समूचे राज्य में फैलने लगी। जैसा कि होता आया है, लोगों के बीच कानाफूसी होने लगी। एक गुप्तचर के द्वारा श्रीराम को भी यह मालूम हुवा। प्रश्न राज्य की रानी के चरित्र पर उठा था। भविष्य में इस बात को मुद्दा बनाकर अशोभनीय हरकतों को जायज ठहराने की कोशिश की जा सकती थी। श्रीराम चिंतिंत हो उठे, परन्तु सीता ने उनके मनःस्थिति को समझा। और स्वत: अयोध्या का त्याग कर वनगमन को सज्ज हो गयीं। यूंही उन्हें माता सीता नहीं कहा जाता है। देवी के रूप में उनकी पूजा यूं हीं नहीं होती। 

देवव्रत भीष्म..!

आदर्श व्यक्तित्व का एक प्रसंग महाभारत में वर्णित है। देवव्रत भीष्म ! देवव्रत हस्तिनापुर के युवराज थे। और पराक्रम ऐसा कि उन्हें कभी कोई पराजित नहीं कर सका। परन्तु अपने पिता की प्रसन्नता के लिए उन्होंने राज्य सुख-भोग एवम् ऐश्वर्य का त्याग कर दिया। 

उनके पिता शान्तनु को एक युवती से प्रेम हो गया। उन्होंने उस युवती से प्रणय निवेदन किया। उसने स्वीकार तो किया, परन्तु इसके लिए शर्त रख दिए गए। शर्त यह था कि भविष्य में उसके गर्भ से उत्पन्न संतान ही हस्तिनापुर का सम्राट होगा। महाराज शांतनु उस युवती को पाना तो चाहते थे, परन्तु उन्हें यह शर्त मंजूर न था। वह उस युवती के आकर्षण में इस तरह उलझ गये थे कि चाहत पूरी न होने पर उदास रहने लगे।

देवव्रत उस समय तक युवावस्था को प्राप्त कर चूके थे। उनकी योग्यता और वीरता की चर्चा समूचे राज्य में फैल चूकी थी। उन्होंने पिता के उदासी का कारण जानना चाहा और अपने प्रयासों से जान भी लिया। फिर अपने पिता के लिए प्रणय निवेदन लेकर उस युवती के पास पहूंच गए। उन्होंने उसके शर्त को भी मान लिया और अपने पिता का साथ देने का अनुरोध किया। पर उस युवती ने उनसे आजीवन अविवाहित रहने और उसके वंशजो के सुरक्षा का वचन देने को कहा। अपने पिता के प्रसन्नता को वापस लाने के लिए देवव्रत ने भीषण प्रतिज्ञा ले ली। और जीवन भर इसे निभाते रहे। इसके लिए उन्हें क्या क्या सहन करना पड़ा, यह सभी जानते हैं। दुनिया उन्हें भीष्म के नाम से जानती है। 

दानवीर कर्ण ..!

दानवीर कर्ण! संघर्ष और वचन के प्रति प्रतिबद्धता का एक और आदर्श व्यक्तित्व। सामाजिक मान्यताओं से विवश उनकी जननी ने जन्म देने के पश्चात उनका परित्याग कर दिया। राज परिवार का सेवक एक सामान्य दम्पति के द्वारा उनका लालन पालन हुवा। पालने वाली माता राधा ने उनका नाम राधेय रखा।

उस समय के विख्यात गुरु द्रोण ने उन्हें शिक्षा देने से इंकार कर दिया। पर उन्होंने हार न मानी और भगवान परशुराम के समक्ष प्रस्तुत होकर शिष्यत्व के लिए अनुरोध किया। उनके प्रशिक्षण में वे धनुर्विद्या में निपुण हो गये। अपनी वीरता विद्वता से वे संसार को अवगत कराना चाहते थे। इसी क्रम में उन्हें गुरु द्रोण के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर शिष्य अर्जुन से प्रतिद्वंदता करनी पड़ी।

अर्जुन एक राजपुत्र थे और राजपुत्र होने के वावजूद भी कर्ण की पहचान तो राधेय की ही थी। दुनिया उन्हें राधा के पुत्र के रुप में जानती थी। और नियमानुसार एक राजपुत्र अथवा राजपद से सुशोभित पुरुष ही दुसरे राजपुत्र से प्रतिस्पर्धा कर सकता था। परन्तु उन्हे तो दुनिया को अपनी वीरता से परिचय कराना था, कोई दुसरा मार्ग न था। अतः उन्होंने द्वंद्व युद्ध का आवाहन दे दिया अर्जून को। परन्तु इसके लिए राज्यादेश का होना जरूरी था। मौका का लाभ उठा कर दुरयोधन ने उन्हें अंग प्रदेश का राजा घोषित कर दिया। 

दुर्योधन के लिए भले ही यह मौकापरस्ती था, पर कर्ण के लिए यह कोई साधारण घटना न थी। दुर्योधन के इसी उपकार के कारण भाव विह्वल कर्ण ने जीवन भर उसका साथ देने का वचन दे दिया। बाद में इसके लिए उन्हें दुर्योधन के दुष्कर्मों में भी सहभागी बनना पड़ा, परन्तु इस वचन का उन्होंने जीवन पर्यंत निर्वहन किया। 

बालक कर्ण जन्म से ही विलक्षण गुणों से संपन्न था। उसके शरीर को किसी अस्त्र शस्त्र से नूकसान नहीं पहूंचाया जा सकता था। क्योंकि उसका जन्म ही कवच और कुंडल के आवरण के साथ हुवा था, जिसे भेद पाना असंभव था। और कर्ण के होते दुर्योधन को पराजित नहीं किया जा सकता था। इस बात को लेकर इन्द्र को भी चिंता हुवी। 

उन्होंने कर्ण के दानशील होने के गुण का लाभ उठाया। नित्य प्रातः कर्ण भगवान सुर्य की आराधना किया करते थे। तत्पश्चात सर्वप्रथम जो भी उनसे मिलता और दान स्वरूप जो कुछ भी मांगता, वह अवश्य दिया करते थे। एक प्रातः इन्द्र देव रूप बदल कर याचक बन उनके समक्ष उपस्थित हो ग्ए। और उनसे क्वच और कुंडल मांग बैठे। कर्ण को सब समझ में आ गया और उन्होंने इन्द्र को पहचान भी लिया। परन्तु दान के अपने ठंग और धर्म से विमुख न हुवे और तन से उस विलक्षण अभेद्य आवरण को उतारकर इंद्र को समर्पित कर दिया। उन्होंने दान का ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया कि संसार उन्हें दानवीर के नाम से जानती है।

नियमों के अनुसार चलकर ही, औचित्य के साथ खड़े रहकर ही उत्कृष्टता को प्राप्त किया जा सकता है। पर हर हमेंशा उचित के साथ खड़े रहना अत्यंत कठिन होता है। साधारण के लिए तो ऐसा कर पाना असंभव प्रतीत होता है। इसके लिए मन में धैर्य, संतोष, साहस एवम् दृढ़ता जैसे गुणों को धारण करना आवश्यक होता है। पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षणिक एवम् व्यवसायिक, जीवन के हर क्षेत्र में कुशलता प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु यह जो आयाम है, यूं ही, आसानी से प्राप्त नहीं हो सकता। इसके लिए कठिन संघर्ष की आवश्यकता होती है। जो लोग अपनी खामियों को दुर करने के लिए खुद से ही लड़ाई लड़ते हैं। मन में मौजूद नकारात्मक सोच को दुर कर सकारात्मक सोच को धारण करने का प्रयत्न करते हैं। वे जिस क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं, वहां के लिए तय मानक स्थिति को प्राप्त करने में सफल होते हैं।

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