निराशा के पल, अर्थात् वह पल जब कोई निराश होता है। निराशा निराश होने का भाव है, यह आशा के विपरीत की अवस्था है। निराशा का अर्थ है आशा का अभाव। हर कोई सुखी होना चाहता है, सुख की चाहत व्यक्ति को कार्य में प्रवृत्त करता है। और ये कार्य सफलता की आशा के साथ किए जाते हैं। आशा का भाव मन को उत्साहित करता है। किसी कारणवश अगर सफलता न मिले तो मन निराश हो जाता है। उत्साह हतोत्साह में बदल जाता है, यही निराश होने का भाव है।
जीवन में निराशा का प्रभाव !
निराशा के पल मन को उदास कर देते हैं। ऐसे पलों में कुछ भी करने का मन नहीं करता। वैसे देखा जाए तो निराशा के पल हरेक के जीवन में आते हैं। सामान्यतः लोग जीवनचर्या से उत्पन्न परिस्थितियों को इसके लिए जिम्मेवार मानते हैं। अगर दीर्घकाल तक किसी को ऐसे पलों से गुजरना पड़े तो मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। निराशा गहन निराशा में परिवर्तित न हो, इसके लिए जागरूक रहने की जरूरत है। गहन निराशा से आशय है कि जीवन का ऐसा दौर जब कोई समस्याओं से घिर जाता है। और उसे इन परिस्थितियों से बाहर निकलने का मार्ग दिखाई नहीं देता। उसे ऐसा लगने लगता है कि सारे मार्ग बंद हो चूके हों। ऐसी स्थिति में व्यक्ति का खुद पर से विश्वास उठ चुका होता है। वह खुद को असहाय समझने लगता है, और हताश हो जाता है।
निराशा के पल हरेक के जीवन में आते हैं। ऐसे पलों से हर किसी को कभी न कभी गुजरना पड़ता है। कुछ लोग निराशा के अंधकार में खो जाते हैं, तो कुछ निराशा के अंधकार में रहते हुए भी उजाले की खोज में लगे रहते हैं। उजाले की खोज में लगे लोगों के मन में आशा की किरण होती है । जब अंधेरा है तो उजाला भी होगा, इस उम्मीद के साथ वे परिस्थितियों का सामना करते हैं।
जो अपने प्रयासों से कठिन परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं कर पाते, वे निराशा के अंधेरे में गुम हो जाते हैं। निराश व्यक्ति हताशा, बैचेनी और चिड़चिड़ाहट का शिकार हो जाता है। फिर किसी भी कार्य में उसका मन नहीं लगता। वह अपने आप से घृणा करने लगता है। निराशा के कारण व्यक्ति के सोचने समझने का सामर्थ्य खोने लगता है। ऐसा मनोभाव व्यक्ति को कुंठित कर देता है। वह न तो कुछ अच्छा सोच पाता है और न ही कुछ कर पाता है। जीवन में निराशा के पल आते ही रहेंगे।
ऐसा नहीं है कि निराशा के पल से बाहर निकलने के मार्ग नहीं हैं। निराशा से बाहर निकलने के रास्ते हैं, अगर समस्याएं हैं जीवन में तो समाधान भी है। निराशा की स्थिति से बाहर निकलने का एक जो सरल उपाय है, हर परिस्थिति में खुद को सहज बनाए रखने का प्रयास करना। जीवन में जब कभी ऐसे कठिन समय से गुजरना पड़े, तो उन बीते पलों को याद करना चाहिए, जब कुछ अच्छा घटित हुवा था। जिस तरह हर रात के बाद सुबह होती है, उसी तरह निराशा के पार आशा की किरण भी है। इसलिए मन में आशा का किरण को जगाकर रखना जरूरी है।
जेही विधि राखे राम ताहि विधि रहिए !
यह जो उक्ति है, जन सामान्य में प्रचलित उक्ति है। जाहि विधि राखे राम! अर्थात् यह मानकर चलना कि जीवन रुपी नैया का नाविक विधाता है। पतवार उसके हाथों में है, नैया को नाविक के भरोसे छोड़ दें। ताहि विधि रहिए ! पतवार को अपने हाथों में थामने की कोशिश व्यर्थ है। परन्तु विडम्बना यह है कि इस उक्ति का भावार्थ थोड़े लोग ही समझ पाते हैं। अधिकतर मामलों में अपने प्रयत्नों से हार मान लेनेवाले लोग इस उक्ति को दोहराते हैं। जबकि इस उक्ति का आशय परिस्थितियों से हार मानकर संघर्ष से विरत होना नहीं है। यह उक्ति जीवन में आनेवाले कष्ट को सहन करने की सीख देती है। हर परिस्थिति में सामान्य रहने की, सुख ढ़ुंढ़ने की सीख देती है। क्योंकि भोगवादी जीवन में उत्पन्न संघर्ष से मुक्त होने का दुसरा कोई विकल्प नहीं है। अगर सुख की आशा हो मन में तो दुख को सहने की क्षमता का होना भी जरूरी है।
गहनता से विचार करें तो यह जो आशा है, इसी के कारण निराशा भी है। यह जो निराशा के पल जीवन में आते हैं, इसका कारण मन में आशा के भाव का होना ही है। हमारी इच्छा, आकांक्षा अगर पूर्ण नहीं होती तो मन निराश हो जाता है। हम अपनी इच्छानुसार अपने भविष्य को गढ़ना चाहते हैं। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। सबकुछ हमारी इच्छानुसार नहीं हो सकता है।
दो घटनाएं तो ऐसी हैं जन्म और मृत्यु, जिस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। बाकी हर परिस्थितियों पर नियंत्रण तो पाया जा सकता है। परन्तु हम हर परिस्थितियों पर नियंत्रण कर लें, यह हमेंशा संभव नहीं होता। अगर मन में आशा हो, किसी वस्तु को प्राप्त करने की, किसी स्थिति पर नियंत्रण पाने की। तो मन में उसे पा लेने का प्रबल विश्वास का होना जरूरी है। दृढ़ विश्वास के साथ संघर्ष करने से सफलता की संभावना बढ़ जाती है। निराशा के पल जीवन में आएं, इसकी संभावना कम हो जाती है, परन्तु मिटती नहीं। सबकुछ आपकी कामनाओं के अनुसार नहीं हो सकता। जो भी होता है, जैसा भी होता है, अगर आप उसके अनुसार चल सको तो फिर निराशा नहीं है।
ओशो कहते हैं कि “आशा के कारण निराशा हाथ लगती है। आशा बांधते हो, इससे निराशा हाथ लगती है। आशा का अर्थ है, तुम चाहते हो कि भविष्य ऐसा हो! तुम्हारी वासना के अनुकूल, तुम्हारी तृष्णा के अनुकूल। और यह विराट अस्तित्व तुम्हारी क्षुद्र वासनाओं के अनुसार नहीं चल सकता। तुम्हारी व्यक्तिगत आकांक्षा के कारण अस्तित्व उसका अनुसरण नहीं कर सकता। तरंग अगर चाहे कि सागर उसके अनुसार चले यह कैसे होगा? और हम यही चाह रहे हैं। इसी असंभव का नाम तृष्णा है। हां सागर के साथ तरंग चल सकती है, तो जितेगी, फिर कोई निराशा नहीं है।
लेकिन सागर के साथ तरंग चलेगी तो पहले आशा छोड़ देनी होगी। फिर जहां ले जाए विराट, जो उसकी मर्जी। ‘जेही विधि राखे राम’ फिर तुम्हारी कोई आशा नहीं है, इसलिए कोई निराशा भी नहीं हो सकती। आशा के बीज बोलोगे, निराशा के फसल काटोगे।” इस बात को जिसने समझ लिया, उसे निराशा के पल से सामना नहीं करना पड़ेगा।