जागरूकता को ठीक तरह से परिभाषित कर पाना सरल नहीं है। सामान्य रुप में इसे तन और मन के प्रति सजगता से जोड़कर देखा जाता है। परन्तु गहन अर्थों में जागरूकता का अर्थ सांसारिकता तक सीमित नहीं है। ज्ञानियों के अनुसार इसका आशय चेतना की स्थिति से है। जागरूकता का अर्थ है जागते रहने की अवस्था।
सामान्यतः शारिरीक एवम् मानसिक रुप से सजग व्यक्ति को जागरूक समझा जाता है। अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सजग व्यक्ति, जिसमें चीजों को परखने और निर्णय लेने की क्षमता हो! जो तथ्यों की जानकारी रखनेवाला हो, वैसे व्यक्ति को जागरूक समझा जाता है।
सामान्यत् व्यक्ति इसे अलग-अलग रुप में देखता और समझता है। शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, वैधानिक, आर्थिक, भौगौलिक, सांस्कृतिक एवम् धार्मिक दृष्टिकोण से इसकी अलग-अलग व्याख्या की गई है।
गहनता से विचार करें तो यह प्रत्यक्ष होगा कि जागरूकता और जानकारी में अंतर है। जानकारी अनुभव अथवा शिक्षा से अर्जित किया हुवा तथ्य होता है। यह किसी विषय-वस्तु के साथ गहरी समझ से जुड़ा होता है। जबकि जागरूकता का आशय भीतर के संसार से है। सदगुरु जग्गी वासुदेव के अनुसार यह जीवन की प्रकृति है।
सदगुरु के शब्दों में; “चूंकि आप अपने मन के धुंधले चश्में से हर चीज को देखते और समझते हैं, इसलिए ऐसा महसुस होता है कि अलग-अलग जागरूकता है। जबकि जागरूकता एक ही है। आपके आसपास के चारों तरफ की हवा, आपके भीतर मौजूद जीवन और इस ब्रम्हांड में व्याप्त ऊर्जा का गुण बुनियादी रूप से एक ही है। जागरूकता को अक्सर सजगता समझ लिया जाता है। जबकि ये दोनों एक नहीं हैं। सजगता मन और शरीर का एक गुण है, जबकि जागरूकता शरीर और मन की नहीं होती, यह तो जीवन की प्रकृति है।”
सदगुरु के अनुसार ; ज्यादातर लोगों के मामले में उनका मन जागरूकता की समझ को पुरी तरह धुंधला देता है, क्योंकि जागरूकता मन में ही प्रतिबिम्बित होती है। अगर मन थोड़ी देर के लिए स्थिर रहे तो जागरूकता स्पष्ट हो उठेगी। लेकिन मन के जरा सा भी गतिशील होते ही, विचार और भावनाएं आते ही तुरंत जागरूकता विलिन होने लगती है।
अगर आप अपने मन की प्रकृति के हिसाब से चलेंगे, जो बड़े पैमाने पर सामाजिक सूचना या ज्ञान पर निर्भर करता है, तो आप स्वत: ही बंधन में पड़ना चाहेंगे। आप लोगों से बंधना चाहते हैं और चीजें आपके संपर्क में आती हैं, उन्हें पकड़कर और थामकर रखना चाहते हैं। इससे उल्टा जागरूकता की प्रकृति मुक्ति की है। जब मन पुरी तरह से स्थिर हो जाता है, तो आप स्वतंत्र हो जाते हैं।”
मन के प्रति जागना जरूरी है:
ओशो के शब्दों में “विचार के निरीक्षण में एक बात जरुरी है, जो कि हमारी शिक्षा ने हमें कठिनाई में डाल दिया है। हम विचारों में फर्क करने लगे हैं, यह अच्छा विचार है, यह बुरा विचार है। इसको पकड़ो, इसको छोड़ो। यदि आपने इस भांति का फर्क किया कि यह अच्छा विचार है, यह बुरा विचार है, अच्छे को पकड़ूंगा, बुरे को छोड़ूंगा, तो फिर आप निरीक्षण नहीं कर पायेंगे।
बुरे विचार आपके डर के कारण बाहर ही नहीं निकलेंगे, भीतर ही छिपे रह जायेंगे, फिर बाहर नहीं आयेंगे। वह अचेतन में दबे रह जायेंगे, फिर बाहर नहीं आयेंगे वह आपसे डर जायेंगे कि ये तो हमारे दुश्मन हैं, इनके सामने मत जाओ। फिर आपका चित आपके सामने पुरा नही आ सकेगा। और जिसके सामने पुरा चित नहीं आयेगा, उसका चित कभी विसर्जित नहीं होगा, विदा नहीं होगा। और चित जब तक विदा न हो जाए, विसर्जित न हो जाए, तब तक आत्मा कोई अनुभव नहीं हो सकता। यही ध्यान है! यही योग है!
बुरे और भले का, शुभ और अशुभ का कोई ख्याल न रखें। कोई भेद न रखें, जो भी भीतर चल रहा हो उसे देखें शांति से। जैसे हम बाहर के दरख्तों को देखते हैं, रास्ते पर चलते लोगों को देखते हैं, वैसे ही विचार को भी देखें। बाहर, शरीर और मन ये तीन घेरे हैं, जिन पर मनुष्य को जागना जरुरी है। इन तीनों तलों पर मनुष्य को जागना जरुरी है।”
किसी भी अवांक्षित विचार अथवा स्मृति को मन से बाहर करने का पहला शर्त यह है कि उन्हें निकालने का प्रयास ही नहीं किया जाए। तब फिर क्या करना चाहिए ? नहीं निकालेंगे तो वह जायगा कैसे ? ज्ञानियों की माने तो, उनका कहना है कि जागरूकता से अवांछित विचारों, स्मृतियों से निजात पाया जा सकता है। और इसके लिए जो उत्तम मार्ग उन्होंने बताया है, वह है ध्यान का मार्ग।”
जागरूकता के प्रयोग !
अब जरा सोचिए! जब आपके मन-मस्तिष्क में कभी कोई ऐसा विचार चल रहा होता है, जिसके कारण आप दुखी हो जाते हैं। आपका तन-मन उन्हीं विचारों में उलझा रहता है। इस स्थिति मे तन और मन के प्रति आप सजग नहीं पाते। आप खोये खोये से रहते हैं, एक मदहोशी सी छायी रहती है।
आप इस स्थिति से निजात तो पाना चाहते हैं! कोई ऐसा विचार जो अप्रिय हो, जो आपके निराशा का कारण बन गया हो। कोई ऐसी स्मृति जिसे आप मिटा देना चाहते हैं! परन्तु प्रयास करने के वावजूद वैसे विचार, वैसी स्मृतियां आपसे दुर नहीं होती।
सबसे पहले तो यह जान लिजिए कि जितना हम अवांछित विचारों को दुर करने का प्रयास करते हैं, वे उतना ही करीब चले आते हैं।
हमें यह समझना होगा कि मन में चल रहे विचारों को हटाने के लिए उसपर दबाव डालना ही अनुचित है। हम जिस गति से प्रयास करेंगे उसके अधिक बलवती होकर अवांक्षित विचार हमें अपने आगोश में समेंट लेगी। यह मन के प्रकृति का नियम है, और नियम के विरुद्ध चलकर हम जागरूक नहीं सकते! इसके लिए मन की प्रकृति को समझना अनिवार्य है, तभी इस विषय पर कुछ किया जा सकता है।
जब भी कोई स्मृति ऐसी हो, कोई विचार ऐसा हो जिसे मिटाना हो, तो एकांत में बैठ जाना चाहिए। और उन स्मृतियों को, उन विचारों को आने देना चाहिए। चुपचाप उसे देखना चाहिए, कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। उन्हें मिटाने का प्रयास ही नहीं करना है! हां अगर आप चाहें तो उस दरम्यान लम्बी गहरी सांसे ले सकते हैं और छोड़ सकते हैं। पर उन यादों और विचारों के साथ छेड़छाड़ न करें। थोड़ी देर में वह विलिन हो जाएंगी। और जब वे लौटकर आयें, इसी प्रक्रिया को दोहराना है। कुछ दिनों के अभ्यास के बाद उनका आना बन्द हो जायगा।
ओशो ने जागरूकता के प्रयोग के कुछ विधियों की चर्चा की है। इनमें से किसी का भी अभ्यास किया जा सकता है।
चूपचाप चीजों को घटित होते हुवे देखना !
एक विधि का उल्लेख करते हुए ओशो ने कहा है कि “छोटी-छोटी चीजों में प्रयोग करें कि मन बीच में न आए। आप एक फूल को देखते हैं, तब आप सिर्फ देखें। मत कहें ‘सुन्दर’ , ‘असुंदर’। कुछ ना कहें, शब्दों को बीच में न लायें, कोई शब्द का उपयोग न करें। सिर्फ देखें। मन बड़ा व्याकुल, बड़ा बैचेन हो जायगा। मन चाहेगा कुछ कहना। आप मन को कह दें! शांत रहो, मुझे देखने दो मैं सिर्फ देखूंगा।
शुरुवात में कठिनाई आएगी, लेकिन ऐसी चीजों से से शुरु करें जिनसे आप ज्यादा जुड़े नहीं हैं। विना शब्दों को बीच में लाए पत्नी को देखना कठिन होगा। आप पत्नी से बहुत जुड़े हुए हैं, बहुत ही भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं।
ऐसी चीजों को देखें जो तटस्थ हैं _ चट्टान, फूल, वृक्ष, सुर्योथय, उड़ता हुवा पक्षी, आकाश में घुमता हुवा बादल। सिर्फ ऐसी चीजों को देखें जिनसे आप ज्यादा जुड़े हुवे नहीं हैं। जिनके प्रति आप अनासक्त रह सकें, जिनके प्रति आप तटस्थ रह सकें। तटस्थ चीजों से शुरु करें और फिर भावुकता की ओर बढ़ें।”
आते-जाते श्वासों को महसूस करना !
ओशो ने एक दुसरी विधि में सांसो पर प्रयोग करने की बात कही है। ओशो कहते हैं कि “श्वास भीतर जाती है, इसका आपके प्राणों में पूरा बोध हो कि श्वास भीतर जा रही है। श्वास बाहर जाती है, इसका भी आपके प्राणों में पूरा बोध हो कि श्वास बाहर जा रही है। और आप पायेंगे कि एक गहन शांति उतर आई है। यदि आप श्वास को भीतर जाते हुऐ और बाहर जाते हुए देख सकें, तो यह अभी तक खोजे गये मंत्रों में से सबसे गहरा मंत्र है।”
ध्यान का सबसे आसान तरीका !
ओशो के शब्दों में ; “एक साधारण सी विधि को दिन में कम से कम छह बार करना शुरू करें। एक बार इसे करने में केवल आधा मिनट लगता है, तो पुरे दिन में तीन मिनट लगेंगे। यह दुनिया का सबसे छोटा ध्यान है! लेकिन इसे अचानक ही करना है — यही इसका राज है।
सड़क पर चले जा रहे हैं; अचानक जैसे ही याद आए, रूक जाएं, पूरी तरह रूक जाएं। कोई गति न हो! आधे मिनट के लिए बस मौजूद हो जाएं। जहां भी हों, जैसे भी हों, बिल्कुल ठहर जाएं और जो भी हो रहा हो उसके प्रति सजग हो उठें। उसके बाद फिर चलना शुरु कर दें। दिन में छह बार ऐसा करें। ज्यादा बार करना चाहते हैं तो कर सकते हैं, लेकिन कम नहीं।
इससे बहुत सजगता बढ़ेगी। लेकिन इसे अचानक ही करना है। यदि हम अचानक बस मौजूद हो जाएं, तो पूरी ऊर्जा बदल जाती है। मन में जो हलचल चल रही थी , वह रूक जाती है। और यह इतना आकस्मिक होता है कि मन इतनी जल्दी कोई विचार नहीं बना पाता। मन समय लेता है, मन मुर्ख है।
तो कहीं भी, जिस क्षण याद आए, अपने को झटका दें और ठहर जाएं। केवल आपकी ही सजगता नहीं बढ़ेगी, जल्दी ही आप महसूस करेंगे कि दुसरे भी आपकी ऊर्जा के प्रति सजग हो गए हैं — कि कुछ घटा है, कुछ अज्ञात से आपमें प्रवेश करने लगा है।”
अहंकार को मिटाने का अभ्यास !
ओशो के शब्दों में ; “तिब्बत के कुछ मठों में बहुत ही प्राचीन ध्यान विधियों में से एक विधि अभी भी प्रयोग की जाती है। यह ध्यान विधि इसी सत्य पर आधारित है जो मैं आपसे कह रहा हूं। वे सिखाते हैं कि कभी कभी आप गायब हो सकते हैं। बगीचे में बैठे हुवे बस भाव करें कि आप कि आप गायब हो रहे हैं। बस देखें कि जब आप दुनिया से विदा हो जाते हैं, जब आप वहां मौजूद नहीं रहते, जब आप एकदम मिट जाते हैं, तो दुनिया कैसी लगती है। बस एक सेकेंड के लिए न होने का प्रयोग करके देखें।
अपने ही घर में ऐसे हो जाएं जैसे कि नहीं हैं। यह बहुत ही सुन्दर ध्यान है। चौबिस घंटे में इसे आप कई बार कर सकते हैं। सिर्फ आधा सेकेंड भी काफी है। आधे सेकेंड के लिए एकदम खो जाएं — आप नहीं हैं और दुनिया चल रही है। जैसे जैसे हम इस तथ्य के प्रति और – और सजग होते हैं कि हमारे विना भी दुनिया बड़े मजे से चलती है, तो हम अपने अस्तित्व के एक और आयाम के प्रति सजग होते हैं। और वह आयाम स्वीकार भाव का। हम चीजों को सहज होने देते हैं, एक द्वार बन जाते हैं। चीजें हमारे विना भी होती रहती हैं।”
जागरूकता क्या है! इसे बिना जागरूकता के प्रयोग किए ठीक प्रकार से नहीं जाना जा सकता है। सबसे पहले शरीर के प्रति, फिर मन के प्रति सजग रहने का अभ्यास करना चाहिए। जीवन के सामान्य कार्यकलापों में सावधानी बरतने का अभ्यास महत्त्वपूर्ण है। खाना-पीना, टहलना, स्नान करना, कपड़े पहनना जैसे सामान्य से सामान्य कार्यों में भी सावधानी बरतना जरूरी है। जो भी कर रहे हैं, पुरे मन से करने का अभ्यास करें। किसी भी काम में लापरवाही न हो, इसका ध्यान रखना जरूरी है।
मैं कितना ही कहूं उससे कुछ भी नहीं जाना जा सकता। लेकिन आप थोड़े से कोशिश करेंगे, तो जरूर आप खुद जान सकेंगे।
osho
ज्ञानियों का कहना है कि छोटी-छोटी कार्यों के प्रति सजग रहने का अभ्यास धीरे-धीरे व्यक्ति को व्यवहारिक रुप से जागरुक कर देता है। फिर ध्यान क्रिया का अभ्यास से उसका मन शांत और स्थिर हो जाता है। और जब मन शांत हो जाता है तो उसके भीतर जागरूकता का प्रादुर्भाव हो जाता है।
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