मैं कौन हूं? खुद को संबोधित करने के लिए ‘मैं’ का प्रयोग किया जाता है। सामान्यतः ‘मैं’ का भाव मन का विषय है। यह जो भाव है, इंद्रियों के द्वारा पोषित होता है। सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में इसका उत्तर उसके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। इन्द्रिय जनित अनुभव सामान्य व्यक्ति के दृष्टि में सत्य प्रतीत होता है। मन इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करता है। और वही अनुभव करना चाहता है, जो उसे भाता है। मन जो चाहता है, अपने इन्द्रियों से वही करवाता है। और यह भी आभास करता है कि सबकुछ वही कर भी रहा है। अपनी इच्छाओं पर केंद्रित रहने और कर्ता होने का जो भाव है, मन का ‘मैं’ है। यह मन का अहम भाव है, जिसे अहंकार की संज्ञा दी गई है।
‘मैं’ का जो सही स्वरूप है, यह आंतरिक विषय है। मैं कौन हूं? इस प्रश्न का सही उत्तर इसी आंतरिक भाव में निहित है। परन्तु ‘मैं कौन हूं? इसका सही उत्तर खोजने का प्रयत्न विरले ही करते हैं।
सामान्य व्यक्ति जब यह जानना चाहता है कि मैं कौन हूं, तो उसे उसका शरीर दिखाई पड़ता है। उसकी सोच उसके शरीर पर केंद्रित होता है। उसका सारा क्रियाकलाप शारीरिक सुख के लिए होता है। उसके शरीर का अस्तित्व जिस ऊर्जा के कारण है, उसे इसका भान ही नहीं है। वह सांस भी लेता है, तो यही समझता है कि सांस वही ले रहा है। लेकिन सांस लेना या सांस का रूक जाना उसके वश में नहीं है।
अगर कोई शारीरिक दृष्टि से सुन्दर है तो कहता है कि मैं सुन्दर हूं। अगर स्वस्थ है तो कहता है कि मैं स्वस्थ हूं। अगर बौद्धिक एवम् आर्थिक रुप से सक्षम है तो कहता है कि मैं बुद्धिमान हूं, मैं धनवान हूं। और इन बातों का उसे अहंकार भी होता है। और अगर कुरूप है, रोगग्रस्त है, निर्बल है, धनहीन है, तो उसे हीनता का आभास होता है। यह जो अहंकार है, हीनता है, यही उसका ‘मैं’ है। जब वह जानता चाहता है कि ‘मैं कौन हूं’, तो उसका अहंकार अथवा हीनता प्रगट होता है।
सामान्य व्यक्ति यह भूल जाता है कि वह एक शरीर नहीं है। उसे उस ऊर्जा का विस्मरण हुवा रहता है, जिसके कारण उसका शरीर है। वह भूल जाता है कि वह एक आत्मा है। उसके जीवन का उद्देश्य सिर्फ शारीरिक सुख प्राप्त करना, धन, मान अर्जित करना नहीं है। उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य आत्मा को जानना है। मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर उसे ही मिल पाता है, जो आत्मा को जानने का प्रयास करता है।
मनुष्य उन बातों से विचलित हो जाता है, जो उसके अनुसार नहीं होती। केवल सुख की चाह उसे सुख की खोज में भटकाता रहता है। चाह से विपरीत स्थितियों से वह विचलित हुवा रहता है। जबकि सबकुछ उसके चाहने के अनुसार हो, यह जरूरी नहीं है। और इन्द्रिय सुख को ही वह सुख समझता है। यही मनुष्य के दुखी होने का कारण है। इसके मूल में और कोई नहीं, ‘मैं’ का भाव है। इसलिए ‘मैं कौन हूं’ यह जानना जरूरी है। ऐसा नहीं कि जो इसे जान पाते हैं, उन्हें दुख नहीं होता, चोट नहीं लगती। ऐसा नहीं कि सबकुछ उनके चाहने के अनुसार ही होता है। परन्तु उन्हें दुख का एहसास नहीं होता, छोटी-छोटी बातें उन्हें परेशान नहीं कर पाती हैं।
ऐसा इसलिए कि वे ‘मैं’ का जान पाते हैं। यही ज्ञान है, जो आत्मा का विषय है। जिसके मन के भीतर तल में ज्ञान का प्रादुर्भाव हो जाता है, वही वास्तविक सुख का आभास कर पाता है।
लेकिन यह होगा कैसे? यह जो जीवन ऊर्जा है, जो वास्तविक ‘मैं’ है। जो जीवन भर हमारे शरीर को क्रियान्वित करती रहती है। क्या हम इसके विषय में कभी कुछ सोचते भी हैं। हम अपनी सारी गतिविधियां मन के ‘मैं’ को पोषित करने में लगे रहते हैं। शरीर का पोषण करने में लगे रहते हैं, लेकिन शरीर को संचालित करनेवाले को पोषित करने के लिए कुछ नहीं करते। तो फिर शरीर को संचालित करनेवाले ‘मैं’ के विषय में हम कैसे जान सकते हैं? और एक दिन ऐसा भी आता है, जब यह जीवन ऊर्जा शरीर का साथ छोड़ देती है, और यह शरीर काम करना बंद कर देता है। फिर करने की कोई बात ही नहीं होती। मैं कौन हूं? यह जानने का प्रयास तभी हो सकता है, जब तक जीवन है।
लेकिन हम केवल समस्याओं की बात करते हैं, समाधान की सोच नहीं रखते। केवल मन के अनुसार चलते रहते हैं, शारीरिक सुख पर केंद्रित रहते हैं। सारा जीवन इन्हीं गतिविधियों में लगे रहते हैं। आत्मा के विषय में, आत्मा को पोषित करने के लिए, आत्मा को जानने के लिए कुछ नहीं करते। और फिर यह शरीर नष्ट हो जाता है, मृत्यु घट जाती है। क्या यही जीवन है? जीवन का उद्देश्य तो उस ‘मैं’ को जानना है, जो वास्तविक है। मन का ‘मैं’ तो अहंकार है। और जब तक अहंकार है, ज्ञान विलुप्त हुवा रहता है। इस ज्ञान को खोजने के लिए कठिन और अनवरत प्रयास करना पड़ता है।
एक प्रसिद्ध कथन है कि ‘नौ मन तेल होगा तब तो राधा नाचेगी’। यहां नौ मन तेल का आशय क्या है? नौ मन यानि प्रचुर मात्रा में किसी चीज का होना। और तेल से आशय है इच्छा एवम् इच्छा की पूरी होने का लगन का होना। अर्थात् नौ मन तेल का आशय है, प्रचुर मात्रा में इच्छाशक्ति का होना। और राधा शब्द ही प्रेम का प्रतीक है। जहां प्रेम है, वहां हर्ष है, नृत्य है, उत्सव है। वहां विषाद के लिए, विलाप के लिए, दुख के लिए कोई जगह नहीं है। महत्व की आकांक्षा को प्रबल इच्छाशक्ति के साथ प्रेम की आकांक्षा में परिवर्तित कर जीवन के हर पल को उत्सव में बदला जा सकता है। इसके लिए और इसके लिए प्रेम के मार्ग पर चलना पड़ता है। मैं कौन हूं? इस प्रश्न का हल प्रेम के मार्ग पर चलकर जाना जा सकता है।