मन चंगा तो कठौती में गंगा – मन अगर स्वच्छ हो, तो कठौते में भरा जल भी गंगाजल प्रतीत होता है। निर्मल मन भेदभाव, ऊंच-नीच, अहंकार जैसे विकारों से मुक्त होता है। ज्ञानीजन कहते हैं कि अंत:करण में ईश्वर का वास होता है। पवित्र मन ही अंत:करण है, यही आत्मा है, जो परमात्मा का अंश है। अंत:करण से जो आवाज आती है, वह ईश्वर की वाणी है। अतः भीतर अंतर्मन की बात मानना हमेशा श्रेयस्कर होता है।
वही करना चाहिए, जो भीतर की अभिरुचि हो। परन्तु मन जब तक बाहर गमन करता है, भीतर की आवाज को नहीं सुन पाता। जब मन विकार मुक्त हो जाता है, तो उसे आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है। अंत:करण की वाणी आत्मा की पुकार है।
मन चंगा तो कठौती ही गंगा – यह एक प्रचलित उक्ति है। इस उक्ति के साथ महान संत रविदास का नाम जुड़ा है। कहा जाता है कि एक व्यक्ति जो खुद को धार्मिक समझता था, उनसे अपने जुते बनवाने गया। बदले में उसने जो सिक्का दिया, उसे रैदास ने यह कहकर लौटा दिया कि इसे मेरी ओर से गंगा में विसर्जित कर देना। कहते हैं कि उस व्यक्ति ने ज्योंहि रैदास के दिए सिक्के को गंगा में विसर्जित किया, तो जल धारा के बीच सोने का कंगन लिए एक हाथ प्रगट प्रगट हुवा। यह कंगन रविदास का है, कुछ ऐसी वाणी भी प्रगट हुवी। और उस व्यक्ति को कंगन देकर वह हाथ ओझल हो गया।
वह व्यक्ति आश्चर्य में पड़ गया, पर उसने वह कंगन रविदास को न देकर प्रसंशा पाने के लिए संबंधित राज्य के रानी को भेंट कर दिया। ऐसा कर उसने झंझट मोल ले लिया। क्योंकि रानी ने ठीक वैसा ही दुसरा कंगन लेने की इच्छा प्रगट कर दी। उसने राजा से ठीक वैसा ही दुसरा कंगन मंगवाने को कहा। और बहुत प्रयास करने पर भी जब राजा को दुसरा वैसा ही कंगन नहीं मिला। तो उसने उस व्यक्ति से दुसरा कंगन लाने को कहा, और नहीं लाने पर सजा देने की बात कही।
वह व्यक्ति बेतहाशा भागते हुवे संत रविदास के पास गया और उनके चरणों में गिर गया। फिर उसने सारी बात बताई, और प्राण रक्षा के लिए आग्रह करने लगा। कहते हैं कि संत रविदास ने पास पड़े जल से भरे कठौते में ही गंगा का आवाहन कर कंगन प्राप्त किया और उस व्यक्ति को दे दिया। यह चमत्कारिक घटना की चर्चा धीरे धीरे समस्त राज्य में होन लगी। ऐसा कहा जाता है कि उसी समय से यह उक्ति ‘मन चंगा तो कठौती ही गंगा’ आमजन में प्रचलित हो गया।
कहानी तो कहानी है, इसके सच होने का प्रमाण सामान्य मनुष्य नहीं दे सकता। परन्तु शुद्ध, शांत एवम् स्थिर मानसिकता के साथ राई को भी पर्वत बनाया जा सकता है। क्योंकि मन जब अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है, तो आत्मसात हो जाता है। फिर मन नहीं रहता, आत्मा जो परमात्मा का ही अंश है। आत्म ऊर्जा से ओतप्रोत मन चंगा होता है, इसके के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। संत रविदास जैसे सिद्ध योगी से संबंधित किसी भी बात पर अविश्वास नहीं किया जा सकता।
चीन की एक प्रसिद्ध कहानी है, जिसका उल्लेख ओशो ने अपने प्रवचन में किया है। किसी समय की बात है, एक संत को सम्राट ने अपने महल में आमंत्रित किया था। सम्राट का महल सागर के किनारे अवस्थित था। एक दिन दोनों महल के छत पर खड़े होकर सामने सागर को निहार रहे थे। सागर में जहाजों का आवागमन हो रहा था। सम्राट ने संत से कहा: देखिए कितने जहाज आते हैं, कितने जाते हैं। संत ने कहा: कितने नहीं देखता, बस दो ही देखता हूं। जहाज तो दो ही हैं।
सम्राट ने कहा: आप होश में हैं? सैंकड़ों जहाज हैं, गिने भी न जा सकें, इतने जहाज हैं। लेकिन संत ने फिर से कहा: दो ही जहाज हैं। एक धन की यात्रा पर निकला है, एक पद की यात्रा पर निकला है। बाकी सब उन्हीं के रुप हैं, उन्हीं की आकृतियां हैं। जहाज तो दो ही हैं, एक धन की यात्रा, एक पद की यात्रा। अगर ठीक से समझो तो ये दोनों ही एक ही लकड़ी से बने हैं। वह लकड़ी है, अहंकार की लकड़ी। और अगर गहराई से विचार करो, तो ये बाहर नहीं चलते, यह भीतर तुम्हारे मन के सागर में चलते हैं। मन की डगर है, मन ही डगर है। और जब तक मन चल रहा है, तब तक थको, गिरो: फिर उठोगे, फिर चलोगे – मन चलता ही रहेगा।
ओशो के अनुसार: यह जो बाहर फैला है, संसार नहीं है। जो यह समझे, तो समझो भूल हो गई। फिर संसार को छोड़ पाना मुश्किल है। संसार का अर्थ है, वह जो भीतर चलता है। उसे तोड़ा जा सकता है। और मन गिर जाए तो संसार गिर जाता है।
यहां मन के गिर जाने का आशय मनोबल के गिरने से नहीं है। मन के गिर जाने का आशय है, मन का मिट जाना। मन जब मिट जाता है, तो मन नहीं रहता, वासनाओं, कामनाओं का समन हो जाता है। मन का बनाया संसार मिट जाता है। मन रुपान्तरित हो जाता है, मन चंगा हो जाता है, आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। जैसे नदी को सागर में मिलने के लिए नदी को मिटना पडंता है।
योगी कहते हैं कि कण कण में भगवान हैं, लेकिन भोगी को कहीं कुछ ऐसा नहीं दिखता। योगी कहते हैं कि ईश्वर सबके भीतर, अंत:करण में विराजमान हैं, किन्तु भोगी मन के मते चलता है। और यह जो मन है कलुषित होता है। कामनाओं, वासनाओं के आवरण से घिरा मन, इस अनुपम शक्ति का आभास नहीं कर पाता। यही कारण है कि जो योगी को नजर आता है, भोगी को नजर नहीं आता। भोगी को जो दिखता है, वही सत्य है। इसलिए उसे कठौती में भी गंगा है, इसका आभास नहीं होता।
मन चंगा हो तो करूणा मय हो जाता है, विनम्र हो जाता है। उसमें सभी सद्गुणों का उद्भव हो जाता है, जो पहले से मौजूद होता है। योगी का, संत पुरुष का मन करुणा से भरा होता है। जीवन में जो उपद्रव है, अशांति है, दुख है, मन का ही प्रपंच है। मन मैला है, कामनाएं चलती रहती हैं मन में। वह कभी आसक्त तो कभी विरक्त होता रहता है। विरक्ति विपरीत की अवस्था है, आसक्ति जहां होती है, विरक्ति भी पास खड़ी होती है। मन चंगा होता है तो समभाव को प्राप्त कर लेता है। इसी को वैराग्य की अवस्था कहते हैं। विरागी को कठौते में भरा जल भी गंगाजल के समान प्रतीत होता है। केवल प्रतीत ही नहीं होता, गंगा जल की पवित्रता एवम् गंगा की शक्तियों का भी आभास होने लगता है। आखिर समस्त शक्तियां पहले से ही हर किसी के भीतर मौजूद होती हैं। बस इन्हें खोजना पड़ता है। हर किसी का मन चंगा हो सकता है, परन्तु इहके लिए मन पर नियंत्रण जरूरी है। मन पर विचार करना जरुरी है।