मन मैला, अर्थात् मलीन मन, मन जो स्वच्छ नहीं है। अब प्रश्न उठता है कि मन मैला होता कैसे है? मन तो कोई वस्तु नहीं है, जो छुने से या धुल की परत जमने से गंदा होता हो। तो फिर यह मैला कैसे हो सकता है?
मन मैला होता है, क्योंकि मन में कामनाएं निहित होती हैं। मन को हमेशा कुछ चाहिए होता है। मन को जो भी अच्छा लगता है, उसे पाने को मचल उठता है। और नहीं मिलने पर बैचेन हो जाता है। पाने को भी बेचैन और खोने से भी बेचैन, यही मन का स्वभाव है। मन की प्रकृति ही तनावग्रस्त होना है।
मन मैला और तन को धोए। फूल को चाहे कांटे बोए।।
‘मन मैला और तन को धोए’, यह एक भजन का मुखड़ा हैं, जिसे हरि ॐ शरण ने स्वर दिया है। भावार्थ है कि मन मैला है, कामनाओं से भरा है, और ध्यान शरीर पर है। शारीरिक सूख और सौंदर्य को प्राप्त करने एवम् बनाए रखने के लिए ही हर प्रयास किया जाता है। यह भी मन की कामना के कारण ही हो रहा है। इसी के कारण मन मैला है, पर इस पर ध्यान नहीं है।
‘फूल को चाहे कांटे बोए’, फूल रूपी सुख के महक की चाहत है। सारा प्रयास, सारा कर्म इसी के लिए हो रहा है। मन को सुख चाहिएं, और वह इसे बाहर संसार में ढ़ुढ़ता रहता है। भौतिक वस्तुओं में, सांसारिक क्रिया कलापों में, पर उसे मिलता नहीं है। मिलता भी है तो कुछ समय के लिए, कुछ पल के लिए।
सुख की चाहत के लिए भाग-दौड़ है, लेकिन कांटे बोए जा रहे हैं। इन प्रयासों से स्थायी सुख किसे मिला है? असंतोष, चिंता और तनाव यही तो मिलता है। इस दौड़ में केवल थकान है, मंजिल कभी नहीं मिलती। सुख की चाहत ही दुख का कारण है।
महान विचारक ओशो के शब्दों में “मन ही सदा कारण होता है। यह एक प्रक्षेपण करनेवाला यंत्र है, और बाहर केवल पर्दे ही पर्दे हैं – तुम उन पर्दों पर अपने आपको प्रक्षेपित कर लेते हो।”
मन मैला है, इसका कारण भी स्वयं मन ही है। विचारों के उलझन में पड़ा रहना मन का स्वभाव है। मन कभी शांत नहीं होता, मन में हमेशा कुछ न कुछ चलता रहता है। मन मैला है, अगर किसी को ऐसा आभास होता हो, इसे साफ करने का प्रयत्न भी अवश्य होना चाहिए।
सामान्य को तो मन जो प्रक्षेपित करता है, वही सत्य और सुन्दर प्रतीत होता है। उसे वही अच्छा लगता है, जो मन उससे करवाता है। जबकि ज्ञानी ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम” की बात करते हैं। सत्य और सुन्दर वो सब नहीं है, जो हम देखते हैं। हम जो देखते हैं और करते हैं, हमें सत्य और सुन्दर लगता है। हम पर्दे पर खुद को प्रक्षेपित कर लेते हैं। अगर कुछ अच्छा न लगे तो उसपर रंग भरने की, चित्रकारी करने की कोशिश करते हैं। मन हमें भटकाता है, और हम भटकते रहते हैं।
संत कबीर ने कहा है कि मन के मते न चलिए, अर्थात् मन के अनुसार मत चलो। मन मैला है, और जो स्वयं मैला है, वह व्यक्ति धवल नहीं होने देता। जो वास्तव में सत्य है, सुन्दर है, जिसके आभास होने मात्र से मनुष्य धवल हो सकता है। उस परम आनंद की अवस्था को प्राप्त करने के लिए मन पर नियंत्रण जरूरी है। और इसके लिए मन पर ही प्रयोग करना होगा। परन्तु जिसका स्वभाव अस्थिर है, उसे स्थिर करना सामान्य व्यक्ति के लिए असंभव है।
ओशो के शब्दों में “मन पर कार्य करना है, पर्दे पर नहीं; उस पर बार बार चित्रकारी करके उसे बदलते मत रहो। मन पर कार्य करो।”
मन को नियंत्रित करने के लिए मन पर ही प्रयोग करना होगा। मन के विपरीत दिशा में अग्रसर होना होगा। मन जो कहे, उसके विपरीत करने का प्रयत्न करना होगा। और ध्यान क्रिया के निरंतर अभ्यास से यह संभव हो सकता है।
ओशो के शब्दों में “तुम मन नहीं हो, मन के परे हो। यह सत्य है कि तुमने उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया है, पर तुम मन नहीं हो। और यही ध्यान का उद्देश्य है, तुम्हें छोटी झलकियां दिखाना कि तुम मन नहीं हो। यदि तुम क्षण भर के लिए इस बात के प्रति सचेत हो गए कि मन नहीं है, केवल मैं हूं। तुम सत्य के भीतरी तल तक पहुंच गए। तब मन को गिरा देना सरल हो जाएगा। पहले तादात्म्य को गिराना होगा, तब मन को गिराया जा सकता है।”
करे दिखावा भक्ति का, क्यों उजली ओढ़े चदरिया।
भीतर से मन साफ किया ना, बाहर मांजे गगरिया।
परमेश्वर नित द्वार पे आया, तू भोला रहा सोए।
मन मैला और तन को धोए…
भीतर शांत है, बाहर हलचल है। जैसे संमदर के भीतरी तल में कोई हलचल नहीं है, हलचल तो ऊपरी सतह पर है। मन मैला ऊपरी सतह है, भीतर शांति है। भीतर मन नहीं होता, मन की लहरें नहीं होती। जो बाहर सांसारिकता में लिप्त है, वह भीतर की यात्रा कैसे करेगा। उसका मन नहीं मिटता है, वह अज्ञानता के प्रभाव में जीता है। भीतर से आवाज जरुर आती है, आत्मा की आवाज। पर मोह-माया के प्रभाव में अनसुना रह जाता है। लोग जीवन को बाहर ही सजाने में, संवारने में लगे रहते हैं।
ओशो ने कहा है कि “ध्यान के लिए संघर्ष करना, मन के विरुद्ध संघर्ष करना है। मन कभी ध्यानपूर्ण नहीं होता और ना ही मन कभी शांत होता है। शांत मन जैसी कोई चीज नहीं होती, ध्यान अमन की स्थिति है।”
अमन की स्थिति, अर्थात् वह स्थिति जब मन न हो। मन मैला है, मन है तो अशांति है। मन है तो कामना है, लालसा है, वासना है। इसलिए ज्ञानी मन को गिराने की, मन को मिटाने की बात करते हैं। और इसके लिए मन के विरुद्ध चलने का प्रयास करना होगा।
सॉंसों का अनमोल खजाना, दिन दिन लुटता जाए।
मोती लेने आया तट पर, सीप से मन बहलाए।
सॉंचा सुख तो वो ही पाए, शरण प्रभु की होए।
मन मैला और तन को धोए …
जीवन का उद्देश्य क्या है? भौतिक सुख प्राप्त करना या आनंद की अवस्था को प्राप्त करना। मन मैला है, इसलिए मनोगामी मस्तिष्क में ज्ञान का अभाव रहता है। ज्ञान प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। ज्ञान के अभाव में व्यक्ति सांसारिक सुखों के पीछे भागता रहता है। सच्चा सुख वही पा सकता है, जो ज्ञानी है। जिसने मन मैला, यानि कि मलीन मन को मिटा दिया हो और आत्मज्ञान को प्राप्त कर लिया हो। वह परम आनंद के स्रोत परमात्मा के शरण में चला जाता है।
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