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ऐसी लागी लगन ..!

ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन।
वो तो गली गली हरि गुण गाने लगी।
ऐसी लागी लगन …

ऐसी लागी लगन – एक कर्णप्रिय एवम् मनोरम गीत की पंक्ति है। अनुप जलोटा के स्वर में मैंने इस गीत को सुना है। इस गीत में मीरा का जिक्र किया गया है। श्रीकृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम भाव सर्वविदित है। मीरा के माध्यम से इस गीत में लगन, मगन एवम् दीवानगी जैसे शब्दों के भाव को व्यक्त किया है। 

लगन एक भाव है, मन की भावना है। लगन किसी वस्तु में, किसी स्थान अथवा किसी विषय में मन के लगने का भाव है। यह किसी विशेष कार्य की ओर मन के प्रवृत होने की अवस्था है। और मगन रमने का भाव है, लीन होने का भाव है। यह जो मनोभाव है, लगन का ही विकसित रुप है। इच्छा बीज है, जब इच्छा अंकुरित हो जाती है, और इच्छाशक्ति जगती है, तो इच्छापूर्ति के लिए मन क्रियाशील हो जाता है, रम जाता है। 

इच्छा अगर बलवती हो, तो अवश्य ही फलित होती है। परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि इच्छा की प्रकृति क्या है? कोई क्या पाना चाहता है, यह महत्वपूर्ण है। जिसे जो चाहिए होता है, वह उसी ओर प्रवृत होता है। और उसी को पाने के लिए क्रियाशील हो जाता है। इसलिए तो कहा गया है, जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि! जो जैसा सोचता है, वैसा ही करता है और वैसा ही बन जाता है।

लगन किसी विषय विशेष में प्रवृत्त होने की अवस्था है। यह विषय कुछ भी हो सकता है। यहां विषय का आशय मनोकामना से है। शुरुआत में लगन का संबंध कामना से ही होता है। और व्यक्ति का मन जिस ओर लग जाता है, उधर ही प्रवृत हो जाता है। कोई भोग में मगन हो जाता है, कोई योग में मगन हो जाता है। 

मन की प्रकृति ही ऐसी है कि जिस विषय की ओर प्रवृत होता है, वहीं रम जाता है। अपने शुद्ध स्वरूप में प्रेम में लगने का भाव लगन है। भक्ति के मार्ग में प्रवृत होने का भाव लगन है। और प्रेम के पथ में, भक्ति के पथ में अग्रसर हो जाना मगन का सही स्वरूप है। जब कोई एकाग्रता के साथ इस ओर बढ़ने लगता है, तो यह मगन होने की अवस्था है।

प्रेम और भक्ति का मार्ग ऐसा ही है। इन राहों के पथिक को राह की सुगमता अथवा दुर्गमता की चिंता नहीं होती। ज्ञात हो अथवा अज्ञात, प्रेम हो गया तो हो गया। अज्ञात, अर्थात् जिसे वह जानता नहीं, लेकिन उसके होने का विश्वास हो। तो उसे पाने को मन मचल जाता है। यह जो अवस्था है, दीवानगी है। 

महलों में पली, बनके योगन चली। मीरा रानी दीवानी कहलाने लगी। ऐसी लागी लगन …

यह जो दीवानगी है, इसमें ना किसी बात का भय है, ना चिंता है। इस भाव में दुख को सहन करने का अदम्य साहस है। कामना मन का विषय है, और मन का स्वभाव भोग में लिप्त रहना है। परन्तु मन में अगर भोग से मुक्ति का भाव उदित हो जाए, कामना का स्वरूप बदल जाता है। मन जब बाहर बाहर से विमुख हो जाता है, तो अंतर्मुखी हो जाता है। तब कामना का उन्नत स्वरूप आत्मा का विषय हो जाता है।

सरिता का सहज स्वभाव सागर से मिलना है। और सरिता जब सागर से मिल जाती है, तो मिट जाती है। सागर से मिलने में ही नदी की सार्थकता है। ठीक इसी तरह आत्मा का स्वभाव परमात्मा से मिलना है। और परमात्मा में लीन हो जाने में ही इसकी सार्थकता है।

अगर प्रेम की लगन लग गई, अगर प्रेम में मगन हो गया, तो व्यक्ति आत्मा के करीब चला जाता है। और आत्मा से उसका साक्षात्कार हो जाता है। वास्तव में मन को जिस चीज की तलाश होती है, वह मिल जाता है। फिर उसे कुछ और नजर नहीं आता, इस मायावी संसार के दृश्य उसके नजरों से धुमिल होने लगता है। और सर्वत्र परमात्मा ही दिखाई देने लगता है।

आत्मा का स्वभाव है परमात्मा से मिलना। जैसे जैसे कदम उस ओर बढ़ता है, परमात्मा के साथ संबंध प्रगाढ़ होने लगता है। प्रेम के पथ में मगन होकर अग्रसर होनेवाले की प्रकृति ही बदल जाती है। चीजों की प्रकृति नहीं बदलती, बल्कि जो दीवानगी में होते हैं, उनकी बदल जाती है। जहर भी उनके लिए अमृत हो जाता है। 

मीरा की लगन ऐसी ही थी, उनकी मन की लहरें प्रेम के सागर में मिलने को उमड़ पड़ी। आत्मा जब परमात्मा से साक्षात्कार के लिए तड़प उठती है, तो ऐसा ही कुछ घटित होता है। जैसा कि मीरा के जीवन में घटित हुवा था। 

राज घराने की बहू मीरा गलियों में नाचने लगी। राज घराने की प्रतिष्ठा दांव पर लग गयी। सगे संबंधियों ने दुर्व्यवहार किया। लोगों ने अपशब्द कहे, सगे संबंधियों ने प्रताड़ित किया। परन्तु मीरा सबकुछ सहन करते हुए इन सब बातों से बेपरवाह होकर नाचती रही, गाती रही। उन्हें व्यंग करने वालों की भीड़ नहीं दिखती थी, केवल कृष्ण दिखते थे। 

दुख लाखों सहे, मुख से गोविंद कहे। मीरा गोविंद गोपाल गाने लगी। ऐसी लागी लगन …

ऐसी लगन लगी मीरा को कि वह कृष्णा के प्रेम में पागल हो गई। उनके लिए कांटो से भरे सेज बिछाए गए, जहर कि प्याला दिया गया। परन्तु प्रेम के सागर से मिलने की लगन से उनके भीतर अद्भुत ऊर्जा विकसित हो गई। उनकी दृष्टि बदल गई, उनकी प्रकृति बदल गई। और कांटे भी उनके लिए फूल के सदृश हो गए, जहर भी उनके लिए अमृत समान हो गया। 

ज्ञानियों का मानना है कि यदि ईश्वर का अस्तित्व न भी हो, तो प्रेम में इतनी शक्ति है कि ईश्वर को निर्मित कर सकता है। मीरा को ऐसी लगन लगी कि कल्पना में सृजित कृष्ण का स्वरूप साकार होकर मीरा के समक्ष प्रस्तुत हो गया। मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम इस बात को प्रमाणित करता है कि प्रेम ही ईश्वर है!!

पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे …

यह जो उक्ति है, मीरा के हृदय की अभिव्यक्ति है। भारतीय इतिहास की एक चर्चित व्यक्तित्व है मीरा। पौराणिक शास्त्रों में गीता जैसी पावन ग्रंथ के प्रणेता श्रीकृष्ण का अवतरण द्वापर युग में हुवा था। मीरा का अवतरण इस संसार में हजारों बर्ष बाद हुवा। लेकिन मीरा के मन में प्रेम की अगन ऐसी लगी कि उसकी ज्वाला श्रीकृष्ण तक पहुंच गई। 

घुंघरू पैरों में ही बांधे जाते हैं। यह एक प्रकार आभुषण है, जो सोने, चांदी आदि धातुओं से बनी होती है। यह संगीत का एक उपकरण है, जो नृत्य करते समय उपयोग में लाया जाता है। घुंघरू से निकलती ध्वनि मनमोहक होती है। परन्तु इससे निकलती ध्वनि के भाव इस बात पर निर्भर करता है कि यह किन पैरों में बंधी है। एक गणिका के पैरों में बंधी घुंघरू और एक योगन के पैरों में बंधी घुंघरू से निकली ध्वनि के भाव बदल जाते हैं। सामान्य के पैरों में सजी घुंघरु की ध्वनि मनोरंजन तक सीमित होती हैं। परन्तु जब कोई प्रेम में पड़ जाता है। और जब घुंघरू से सजे उसके पैर थिरकते हैं, तो उसकी ध्वनि हृदय तक उतर जाती है। 

पैरों में घुंघरू मीरा ने भी बांधे थे। वह कोई साधारण नृत्यांगना नहीं थी। श्रीकृष्ण के लिए उनके हृदय में प्रेम उमड़ गया। और कृष्ण को रिझाने के लिए उन्होंने घुंघरु बांध लिया। उन्होंने जो गाया, केवल अपने प्रियतम के लिए गाया, उनके पैर केवल कृष्ण के लिए थिरकते थे।

पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।।
मैं तो मेंरे नारायण की हो गयी दासी रे।

मीरा ने खुद को अपने प्रियतम का दासी कहा है। यहां दासत्व किसी का गुलामी करना नहीं है। दासत्व का भाव उसी के भीतर जग सकता है, जो अहंकार के भाव से मुक्त हो। जहां प्रेम है वहां समर्पण है, वहां अहंकार टिक नहीं सकता। जब कोई प्रेम में पड़ जाता है, तो उसमें समर्पण का भाव जग जाता है। अपने प्रिय के प्रति समर्पित होना ही दासत्व है। मीरा अपने प्रियतम के प्रति समर्पित है।

लोग कहे मीरा भयी बावरी, न्यात कहे कुलनासी रे। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।। 

मीरा कोई पेशेवर गायिका तो थी नहीं, ना ही कोई नर्त्तकी नहीं थी। किसी प्रतिष्ठित एवम् संभ्रांत कुल की महिला अगर बीच बाजार में नाचने गाने लगे तो, लोग क्या कहेंगे? क्या उसकी प्रशंसा करेंगे? नहीं लोग तो उसे विक्षिप्त हुवा समझेंगे। और परिवार के लिए तो यह घोर अपमान जनक हो जाएगा। सगे संबंधी समझाने का प्रयास करेंगे, रोकने का प्रयास करेंगे। फिर भी अगर बात न बनी, तो क्या करेंगे? जो अहंकार उनसे करवाएगा, वो वही कर सकते हैं।

बीस का प्याला राणाजी ने भेज्या, पीवत मीरा हॉंसी रे।

मीरा के साथ भी यही हुवा। पैरों में घुंघरू जब वो सड़कों पर नाचने गाने लगी, त़ो लोग उसे बावरी कहने लगे। संगे संबंधी उसे कुलनासी कहने लगे। लेकिन मीरा को इन बातों से क्या लेना। वह तो कृष्ण के प्रेम में मगन थी। मीरा की दृष्टि और लोगों की दृष्टि में भिन्नता है। मीरा अपने धुन में नाच रही थी, लोग अपने धुन में नाच रहे थे। लोगों को बावरी मीरा दिख रही थी, लेकिन जिसके लिए वह बावरी हो गई, वह केवल मीरा को ही दिखाई देता था। जब वह रोके न रूकी, तो उसे जहर का प्याला दे दिया गया। 

मीरा ने लोगों के व्यंग वाण के आघात को सहन किया। देवर ने जहर दिया, वह हॅंसते हुए पी गई। पर कृष्ण के प्रेम से विमुख न हुवी। वह कृष्ण के लिए नाचती रही, कृष्ण के लिए गाती रही। यह इस प्रेम भावना का ही चमत्कार था कि जहर का कोई प्रभाव नहीं हुआ। 

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनाशी रे। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे।।

मीरा ने कहा है कि मेरे प्रियतम कोई और नहीं, स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जो सहज ही मिल गए हैं। उनके कहने का अर्थ किसी को बताना नहीं है, किसी को जताना नहीं है। जो उन्हें अनुभव हुवा, उन्होंने कहा है। अगर अर्थ निकालें तो यही प्रगट होता है कि ईश्वर से प्रेम कर सको तो ईश्वर को पाना सहज है। 

मेरे तो गिरधर गोपाल, दुसरों न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।

अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम-बेलि बोई।
भगत देख राजी भई, जगत देख रोई।

दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोई।
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।।

मेरे तो गिरधर गोपाल – मीरा कहती हैं कृष्ण मेरे हैं, और दुसरा कोई नहीं। जो मोर पंख से सुसज्जित मुकुट मस्तक पर धारण किए हुए हैं, वही मेरे पति हैं। कृष्ण ही मेरे सबकुछ है, उनके बिना मैं कुछ भी नहीं। 

ये जो बोल हैं,  स्वयं मीरा के उद्गार हैं। श्रीकृष्ण के प्रति उनकी गहरी लगन और समर्पण का भाव उनकी वाणी से प्रगट होता है। अपनी प्रीतम के प्रति प्रीत को उन्होंने गीतों के माध्यम से व्यक्त किया है। जो मीरा के भजन के रुप में प्रसिद्ध हैं। उनके गीतों में प्रेम, भक्ति एवम् वैराग्य के भाव निहित हैं। 

यह तो समझा जा सकता है कि उनके लालन पालन में कोई कमी न रही होगी। क्योंकि वह एक राजकन्या थी। गीत संगीत की भी उन्हें अच्छी समझ रही होगी। लेकिन जिस बावरी, दीवानी, योगन मीरा का उल्लेख किताबों में मिलता है, उसका होना एक अद्भुत घटना है।

ऐसा कहा जाता है कि जब वो चार पांच बरस की रही होगी, तो एक दिन एक साधु का घर पर आगमन हुवा। साधु के पास श्रीकृष्ण की एक मुर्ति थी, जिसे मीरा ने देख लिया। मुर्ति उसे अच्छी लगी, और वह साधु से मुर्ति मांगने लगी। परन्तु साधु ने देने से मना कर दिया और वहां से चला गया। 

मीरा रोने लगी, उसे वही मुर्ति चाहिए था, जो साधु के पास था। माता ने मनाने की कोशिश की, पर वह अपने जिद पर अड़ गई। दिन बीत गया, उसने खाना पीना छोड़ दिया। पिता भी परेशान हो गए, बाल हठ के सामने किसकी चलती है। कहते हैं कि रात को उस साधु ने सपना देखा। उसने देखा कि श्रीकृष्ण उस मुर्ति को मीरा को देने को कह रहे हैं। साधु भी परेशान, आधी रात को ही भागते हुए गया, और मुर्ति देकर लौट आया।

इस प्रकार मीरा को जो चाहिए था, वह मिल गया। बालिका मीरा उसी मुर्ति में मगन रहने लगी। बच्चों को तो खिलौनों से लगाव होता ही है। और श्रीकृष्ण की मुर्ति से लगाव हो, तो इसमें माता पिता के लिए भी परेशानी की कोई बात नहीं थी।

दो तीन बरस तक यही चलता रहा। एक दिन वह अपने महल के छत पर खड़ी थी। सामने से एक बारात गुजर रही थी। यह देख पास खड़ी मॉं से उसने पूछा कि यह भीड़ कैसी है? माता ने कहा कि किसी का विवाह हो रहा है। लोग दुल्हन को लाने उसके घर जा रहे हैं। इस पर वह पूछ बैठी कि मेंरा विवाह कब होगा? और मेंरा वर कौन है? इस पर माता ने कृष्ण की उसी मुर्ति को दिखाकर कह दिया कि तेरा वर यही हैं। 

माता द्वारा मजाक में कही इस बात को मीरा सच मान बैठी। बालपन में ही अगर किसी चीज पर गहरा लगाव हो जाए, तो फिर वह मिटता नहीं है। मीरा को ऐसा लगाव हुवा कि कृष्ण के रूप से मोहित होती चली गई। मन की कल्पनाओं में उसने श्रीकृष्ण के उसी रूप को अपना पति मान लिया। 

मीरा में जो लगन था, यह तर्क का विषय नहीं है। मीरा के हृदय में प्रेम का बीज बचपन में ही अंकुरित हो गया था। शुरुआत में जिस मुर्ति को देखकर वह आकृष्ट हुवी, कालांतर में यह प्रेम में परिवर्तित हो गया। कृष्ण की मुर्ति वैसी ही थी, जिस रूप में उनकी परिकल्पना की गई है। यहां परिकल्पना कहने का आशय है कि इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता। कृष्ण का स्वरूप को जानना तो एक अनुभूति है।

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।

मोहिनी मुरत, सांवरी सुरत, नैना बने बिसाल।
मोर मुकुट, मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक शोभे भाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजन्ती माला।
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।

मीरा को भी इसी स्वरुप की लगन लग गई। ऐसी लगन की उसी स्वरूप में वह मगन हो गई। मोर पंख से सज्जित मुकुट धारण किए, सांवला चेहरा एवम् बड़ी बड़ी आंखों वाले बांसुरी बजाते श्रीकृष्ण को मीरा ने अपना वर मान लिया। और अपनी आंखों में विराजने की प्रार्थना करने लगी। आंखो में बसने का तात्पर्य है कि आंखो को ही घर बना लेना और स्थायी रुप से विराजमान हो जाना। यानि जो मान लिया, उसे पाने को ठान लिया। बालपन में मुरत को पाने का हठ। और अब जब मुरत पास है, तो जिसकी वो मुरत है, उसे पाने का हठ। और इस हठ के लिए  कुल – परिवार, लोक – लाज, मान – अपमान सबका का परित्याग कर देना। यह कोई साधारण बात नहीं हो सकती है।

जब मीरा कहती थी कि कृष्ण ही मेरे पति हैं, तो लोग उसे बावरी कहते थे। मीरा में जो लगन था, वो आज भी सहजता से समझ में नहीं आती। क्योंकि उनकी भावनाओं की गहराई तक उतर पाना अत्यंत कठिन है। जिसके भीतर तल में प्रेम रुपी बीज अंकुरित हुवा हो, उसे ही थोड़ी समझ हो सकती है। 

प्रेम ना बाड़ी उपजै- कबीर कहते हैं कि प्रेम का पैदावार  बाग-बगीचों में, खेतों में नहीं होता। प्रेम पौधों में, वृक्षों में फलने फूलने वाली चीज नहीं है। प्रेम ना हाट बिकाय – और ना ही बाजार में बिकता है। यह बात तो समझ में आती है कि जो चीजें मिट्टी में, कल-कारखानों में उत्पादित होती हैं, बिकाऊ होती हैं। प्रेम तो कोई वस्तु है नहीं, जिसका मोल तोल किया जा सके। तो फिर प्रेम होता कैसे है, मिलता कहां है, यह विचारणीय है।

कबीर कहते हैं कि प्रेम खेतों में, बागों में नहीं उपजता। और प्रेम बाजार में भी नहीं बिकता। लेकिन ऐसा नहीं है, यह उपजता भी है, और बिकता भी है। प्रेम उपजता है, यह कोई वस्तु नहीं है, फिर भी उगाया जा सकता है। प्रेम बिकता भी है, लेकिन अनमोल है। इसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, लेकिन खरीदा जा सकता है। यह बात समझने की है कि जो अनमोल है, उसे कोई कैसे खरीद सकता है?

प्रेम भी भाव है, और अहंकार भी भाव है। प्रेम हृदय का और अहंकार मन का विषय है। हृदय में जो भाव उभरते हैं, आत्मा की पुकार है। यह जो भाव है, इसके बीज सबके भीतर मौजूद होता है। लेकिन पनपता वहीं है, जहां मिट्टी उपयुक्त मिलती है। प्रेम उपजता है, लेकिन इसके बीज हृदय में अंकुरित होते हैं। जो इस अंकुरण को सहेज पाते हैं, उनके भीतर ही प्रेम रुपी वृक्ष विकसित हो पाता है। जिसके हृदय में प्रेम विकसित हो जाता है, वही आत्मा की पुकार को सुन पाता है। प्रेम बिकता भी है, और इसके लिए कीमत भी चूकाने पड़ते हैं। यह भावनाओं के बाजार का मामला है। प्रेम को पाने के लिए अहंकार को विसर्जित करना पड़ता है। जिन्होंने यह कीमत चूकाई, इस अनमोल को खरीद लिया।

राजा रंक जेहि रूचै, सीस देहि लै जाय – कबीर कहते हैं कि इसे कोई भी ले सकता है। लेकिन इसे लेने के लिए, इसे पाने के लिए सीस देना पड़ता है। यहां सीस देने का आशय अहंकार के त्याग से है। कबीर सहजता से समझ में नहीं आते। इनके कहने का ढंग सहज है, अर्थ भी सहज है। जिन्हें समझ में नहीं आती, वो असहज हैं। 

माई रे मैने गोविंद लिन्हो मोल।

कोई कहे गोरो, कोई कहे कारो,
लियो है आंखें खोल।
कोई कहे हल्को, कोई कहे भारी, लियो है तराजू तोल।
कोई कहे चोरी, कोई कहे चुपके, लियो है बजाके ढोल।
कोई कहे सस्तो कोई कहे मंहगो लियो रतन अनमोल।
मीरा के प्रभो गिरधर नागर पूर्व जनम के कोल।

मीरा कहती है कि मैने अपने प्रियतम को मोल ले लिया है, खरीद लिया है। कबीर भी कहते हैं कि प्रेम बिकाऊ है। लेकिन यह साधारण के लिए उपलब्ध नहीं है। इसे खरीदने के लिए लगन की जरूरत है। सबकुछ जो मन के अनुकूल है, छोड़ देने की लगन की जरूरत है। यही प्रेम को खरीदने की कीमत है। 

मीरा को जो लगन लगी, दीवानगी के हद को पार कर गई। मीरा ने अज्ञात को ही सबकुछ मान लिया और अज्ञात के दर्शन की दीवानी हो गई। मीरा के जीवन में जो हुवा, वह तो होना ही था। क्योंकि ज्ञानियों के कहने पर विश्वास करें, तो भक्ति की शक्ति ऐसी होती है कि ईश्वर का अस्तित्व न भी हो, तो भी ईश्वर को प्रगट कर देती है।

एक और धारणा है कि मीरा श्रीकृष्ण की गोपियों में से एक थी। अगर पुनर्जन्म की धारणा पर विश्वास करें, तो यह पूर्व नियोजित मालूम पड़ता है। अर्थात् ऐसा होना ही था। मीरा का जन्म लेने का उद्देश्य ही कृष्ण के प्रेम को पाना था। और जब स्वयं मीरा ने ऐसा कहा है, तो इस धारणा पर अविश्वास करने का कोई सवाल ही नहीं है। 

मीरा के पुरे जीवन यात्रा पर विचार करें, तो उनका देहावसान भी आज तक आश्चर्य का विषय बना हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि उनका विवाह तत्कालीन मेवाड़ राजघराने में हुवा था। परन्तु कुछ बर्षों बाद पति का देहांत हो गया। कालांतर में माता पिता भी चल बसे। रिश्तों का जो सांसारिक बंधन था, सब टुट गए। भीतर जो चिंगारी दबी पड़ी थी, प्रभु प्रेम की, वो ज्वाला बन धधक उठी। राजमहल की चारदीवारी के भीतर बंद कमरे में नाच – गाकर, पूजाप्रार्थना कर कृष्ण को रिझाने वाली मीरा मंदिरों में जाकर नाचने गाने लगी। धीरे धीरे प्रेम की लगन और प्रगाड़ होती गई। फिर वो बीच बाजार में, सड़कों में नृत्य करने लगी, गाने लगी। परिवार जनों ने इसको लेकर उन्हें अनेको बार प्रताड़ित किया। वो सबकुछ सहन करती गई, पर प्रभु प्रेम से विमुख न हुवी। 

फिर किसी दिन वो उन्होंने राजमहल का परित्याग कर दिया और वृंदावन चली गई। परन्तु वहां भी मंदिर के पुजारियों ने उनके साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया। फिर वो द्वारका स्थित रणछोड़ दासजी के मंदिर में रहने लगी और प्रभु गिरधर के प्रेम में मगन हो गई। बाद के दिनों में राणा उदय सिंह मेवाड़ के राज सिंहासन पर आसीन हुवे। उन्हें मीरा पर किए दुर्व्यवहार पर पछतावा हुवा। उनके द्वारा मीरा को वापस महल में लाने का प्रयत्न भी किया गया। 

उन्होंने अपने विश्वासपात्र कुछ लोगों को मीरा को वापस लाने के लिए भेजा। परन्तु मीरा वापस आने को राजी नहीं हुवी। लोगों ने भी नहीं माना, उन्हें वापस ले जाने की जिद पर अड़ गए। इस पर मीरा ने कहा कि ठीक है, पर जाने से पहले मैं जरा प्रभु से पूछ के आती हूं। ऐसा कहकर वो मंदिर के भीतर प्रवेश कर गई और फिर बाहर नहीं निकली। बाहर लोग उनके मंदिर से निकलने का इंतजार कर रहे थे। जब निकलने में देर हुवी, तो वो लोग भी उन्हें बुलाने ने के लिए मंदिर के भीतर प्रवेश कर गए। परन्तु मीरा किसी को भी नजर नहीं आई। कहते हैं कि वह सशरीर प्रभु की प्रतिमा में समाहित हो गई। प्रभु गिरधर गोपाल ने उन्हें अपने आलिंगन में ले लिया। 

ज्ञानियों की मानें तो ईश्वर के किसी भी स्वरूप की कल्पना कर, अगर भक्ति पूर्वक आराधना की जाए, तो ईश्वर उसी स्वरूप में प्रगट हो जाते हैं। परन्तु कोई भी विलक्षण घटना, जो बीते समय में घटित हूवी हो, और जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता। उस पर विश्वास करना अथवा नहीं करना व्यक्तिगत मामला है। इसके लिए किसी को भी बाध्य नहीं किया जा सकता।

लोग उस वक्त भी वैसे ही थे, जैसे आज हैं। हॉं, सांसारिक जीवनशैली में बदलाव अवश्य हुवे हैं, परन्तु लोग वैसे ही हैं। हो सकता है कि लोग भौतिक रूप से  पहले से अधिक उन्नत हो गए हों, परन्तु आध्यात्मिक उन्नति आज भी नगण्य है। आध्यात्मिक होना व्यक्तिगत मामला है, यह सामुहिक नहीं है। मन की अधिनता से मुक्त होकर आत्मा के स्वभाव को प्राप्त करना कठिन है। और इस अवस्था को व्यक्तिगत प्रयासों से ही पाया जा सकता है।

आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोग विरले ही अवतरित होते हैं। ऐसे लोग साधारण के समझ में नहीं आते। उनके भीतर चमत्कारिक ऊर्जा का विकास हो जाता है। यह आत्मा की शक्ति है, जो सहज है, स्वाभाविक है। आत्मा का स्वभाव ही परमात्मा से मिलना है।

जिसने भी प्रेम किया परमात्मा से, सहजता से पा लिया। इसलिए तो मीरा कहती है कि सहज मिले अविनाशी रे। एक अनबुझ पहेली मीरा, जिनकी वाणी सहज है, किन्तु समझना असहज है। यह दृष्टि का, देखने का फर्क है। यह प्रेम और आसक्ति का फर्क है। जो संसार के प्रति आसक्त हो, उसके लिए मीरा को समझ पाना असहज है।

मीरा की जीवनधारा लगन, प्रेम एवम् भक्ति की भावना के व्यापक स्वरूप को परिभाषित करती हैं। मीरा भारतीय इतिहास की एक अनबुझ पहेली है। अनबुझ इसलिए कि मीरा को समझ पाना कठिन है। मीरा को समझ पाना तर्क का विषय नहीं है। यह भाव का विषय है। जिसके हृदय तल में प्रेम के बीज अंकुरित हुवे हों, वही मीरा को, मीरा की लगन को, मीरा के प्रेम को, मीरा की भक्ति को समझ सकता है।

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