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सौदागर होना क्या है? — True Meaning of Being a Merchant

सौदागर का अर्थ है सौदा करने वाला। सामान्यतः लेन-देन की आर्थिक गतिविधियां जो एक दुसरे के बीच संपन्न होती हैं, उन्हें सौदा समझा जाता है। दो पक्षों के बीच जब लेन-देन होता है, तो बदले में सेवा या मुद्रा लिया जाता है। दो व्यक्तियों अथवा समूहों के बीच लेन-देन को क्रय-विक्रय भी कहा जाता है। और जहां क्रय-विक्रय की बात आती है, उसे व्यापार भी कहा जाता है। सामान्य रूप से देखा जाए तो सौदा और व्यापार में अंतर मालुम नहीं पड़ता। और व्यापार करने वाला अथवा व्यापार में संलग्न रहने वाला व्यापारी अथवा व्यवसायी कहलाता है। 

सौदागर बनो व्यवसायी नहीं !

सौदागर बनो व्यवसायी नहीं ! जो भी करो, सिर्फ इतना ध्यान रखो, तुम्हें हानि नहीं होनी चाहिए। न तन से, न मन से और न धन से। _स्वामी तपेश्वरानंद – Swami Tapeshwaranand : biography

‘सौदागर बनो व्यवसायी नहीं’ यह उक्ति उन महान विभूति के मुखारविंद से निकली है, जो मेंरे आदर्श के रुप में अन्तर्मन में निहित हैं। जब मैंने इस उक्ति का आशय जानने की इच्छा जताई! तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि ‘व्यापार में व्यय अपार है और सौदा सिर्फ और सिर्फ लाभ के लिए होता है।’ बात मेंरे समझ में नहीं आयी। पुनः आग्रह करने पर उन्होंने कहा कि ‘जो भी करो, सिर्फ इतना ध्यान रखो, तुम्हें हानि नहीं होनी चाहिए। न तन से, न मन से और न धन से।’ 

आध्यात्मिक पुरुषों की कही हुई बातें सरलता से समझ में नहीं आती। विना विचार किये, वगैर चिंतन किये इन  गुत्थियों को सुलझाया नहीं जा सकता है। और जब तक गुत्थियां सुलझती नहीं, इन्हें व्यवहार में नहीं लाया जा सकता।

सामान्य रुप से देखा जाए तो सौदागर और व्यवसायी दोनों शब्द के मायने एक जैसे प्रतीत होते हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि ‘सौदागर बनो व्यवसायी नहीं’। आइए इस पर विचार करने का प्रयत्न करते हैं। सर्वप्रथम व्यापार शब्द को अलग अलग नजरिए से देखने का प्रयास करते हैं।

सामान्यतः व्यापार एक व्यवस्था है, जिसमें वस्तुओं का क्रय-विक्रय अथवा मानव श्रम से संचालित सेवाओं के बदले आर्थिक लाभार्जन किया जाता है। व्यापार को धन्धा भी कहा जाता है। ‘काम-धन्धा’ संयुक्त रुप से इन दो शब्दों का प्रयोग आम तौर पर किया जाता है। ऐसा इसलिए कि धन्धा अक्सर काम यानि कामना से जुड़ा होता है। वर्तमान परिवेश में लोगों के श्रम का, उनके भावनाओं का उपयोग करने। किसी भी वस्तु को बेच देने, किसी भी प्रकार से आर्थिक लाभार्जन करने को व्यापार समझा जाता है। 

दुसरे नजरिए से देखा जाए, तो व्यापार के मूल में पृ धातु है। पृ में गति भाव है, जिसका आशय है आगे की ओर ले जाना। पृ का आशय उन्नति से है, प्रगति से है। पार से आशय है आगे ले जाने वाले भाव का विस्तार। विस्तार यानि क्षेत्र का विस्तार, धन्धे का विस्तार, समस्याओं का विस्तार, मानसिक स्थिति एवम् विचारों का विस्तार। विस्तार को कौन किस रुप में लेता है, वह उसपर निर्भर है। 

‘पार पाना’ इस मुहावरे का प्रयोग अक्सर किया जाता है। इस मुहावरे का अर्थ है किसी समस्या का हल हो जाना। एक छोर से दुसरे छोर तक की दुरी तय हो जाने को पार पाना समझा जाता है। यह जो पार पाने की बात है, इसके भौतिक ही नहीं, मान्सिक और आध्यात्मिक अर्थ भी हैं। इसका तात्पर्य समस्याओं से पार पाना ही नहीं जीवन का बेड़ा पार करने से भी है। 

सामान्यतः एक व्यापारी वह होता है, जो सिर्फ लाभ के लिए, मुद्रा अर्जित करने के उद्देश्य से कार्य करता है। इसके लिए वह धन्धे का, संबंधो का विस्तार करता जाता है। ऐसा करते करते वह अनेक समस्याओं का विस्तार कर लेता है। और इन्हीं समस्याओं में उलझा रहता है। भौतिक संपदाओं को अर्जित करने के क्रम में मूल संपदाओं को खो देने की संभावना बनी रहती है।  और जिस कार्य को करने से धन का लाभ हो पर मन की शांति चली जाये, तो यह कैसा लाभ है। 

लेन-देन करना ही तो सौदा है, और इसे ही व्यापार समझा जाता है। तो फिर सौदा और व्यापार में अंतर कहां है? यह लेन-देन क्या है, व्यवहार ही तो है! यह व्यवहार वस्तुओं के लेन-देन का हो अथवा विचारों का।

जीवन में लेन-देन तो करना ही पड़ता है। जीवन यापन के लिए कोई ना कोई कार्य तो करना ही पड़ता है। अगर जीवन में व्यापार न हो, कोई व्यवसाय न हो। तो अर्थाभाव में पारिवारिक एवम् सामाजिक दायित्वों का निर्वहन नहीं हो सकता। परन्तु दायित्वों का निर्वहन के लिए अनैतिक कार्य करना सर्वथा अनुचित होता है।

व्यवहार हो या व्यापार, यह इस प्रकार से भी होता है अथवा किया जा सकता है, जिसमें दुसरों का हित हो।  जिसमें अपने स्वार्थ के लिए, उपभोग के लिए किसी का सिर्फ उपयोग न हो। ऐसा व्यवहार जिसमें किसी का कोई कार्य या हित करके उसके बदले में उससे स्वयं के लिए कोई कार्य या हित कराया जाता हो, तो यह अनुचित नहीं है। 

ऐसे व्यवहार, ऐसे व्यापार को ही सौदा समझा जाता है। व्यापार में व्यय अपार है, परन्तु सौदा सिर्फ लाभ के लिए किया जाता है। कोई भी कार्य हो, कोई भी व्यवहार हो, ध्यान यह रखना चाहिए कि हानि न हो। न तन से, न मन से और न धन से। जो व्यवहार पुर्ण रुप से लाभ के लिए किया जाय वही सौदा है। परन्तु इसके लिए संयमित मन का होना अनिवार्य है। 

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सौदा का एक अर्थ लगन भी है। धुन, लगन, दीवानगी, जुनून आदि सौदा के पर्यायवाची शब्द हैं। इन अर्थों में जिसमें लगन हो, जो धुन का पक्का हो, वही सौदागर कहलाता है। 

परन्तु यह दीवानगी सब के वश की बात नहीं है। जो दीवाना होता है, वही इश्क कर सकता है, वही सौदा कर सकता है। और इसके लिए स्वयं को जानने का प्रयास करना होता है। तन और मन की हानि न हो इसके लिए यम और नियम का अभ्यास जरूरी है। और जो इन्हें साधने में समर्थ हो जाता है, उसे धन की हानि नहीं होती। ध्यान और योग से व्यक्ति के जीवन में सुमति का उद्भव होने लगता है। और वास्तविक जो धन है, वह सुमति है। सुमति है तो सम्पति है : wisdom is your property..!

ये इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे। इक आग का दरिया है और डुब के जाना है।। _ जिगर मुरादाबादी

महान विचारक ओशो के शब्दों में; आप भौतिकवादी होने के साथ-साथ संतुलित रूप से आध्यात्मिक भी हो सकते हैं। हम एक ऐसा यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाएं, जिसमें अपने बाह्य रुप में भौतिकवादी होने के साथ आत्मिक रुप में हम आध्यात्मिक भी हों। हमें इन दोनों को जोड़ना है, इनके बीच एक सेतु का निर्माण करना है। 

ओशो के अनुसार सौदागर एक दीवाना है। वह मनुष्य जो अपने शरीर और उसकी क्षमताओं का पुरी तरह लाभ उठाते हुवे सुख प्राप्त करे। वह मनुष्य जो अपने मस्तिष्क को क्रियाशील रखे, और अनंत की खोज की ओर अग्रसर रहे। ओशो कहते हैं; ऐसा मनुष्य बनाने के लिए उन सभी को प्रयत्न करना होगा जो किसी न किसी रूप में समाज को जागरूक बनाने में लगे हैं।

जो दुसरों के हित के लिए कार्य करे उसका अहित हो नहीं सकता। संसार में यशस्वी वही होते हैं जो नैतिकता के मार्ग पर चलते हैं। नैतिक मूल्यों वाले मनुष्य को उसके किए गए गये कार्यो के बदले अगर कुछ न भी मिले तो संतुष्टि अवश्य मिलती है। भगवान बुद्ध ने भी कहा है कि संतोष सबसे बड़ा धन है। और जिसके मन में संतोष है, वह सुखी होता है।

संतोष क्या है ..! What is satisfaction !

सौदागर के मन में हिसाब-किताब नहीं होता, उसका मन सहज होता है। वह कल्पना करता है, उसके मन में योजनाएं होती हैं। वह जिस उद्यम को अपनाता है, जन कल्याण के भाव के साथ कार्य करता है। संसार में ऐसे अनेक कारोबारियों का उदय हुआ है, जो युगपरिवर्तन के प्रतीक बने हैं। जिनके भौतिक उन्नति का उद्देश्य लाखों, करोड़ों लोगों का कल्याण करना रहा है। 

यह तथ्य प्रमाणित है कि जो जैसा सोचता हैं, वैसा ही करता हैं। विवेकवान व्यक्ति का कोई भी कृत्य किसी के अहित के लिए नहीं होता। और यही धर्म कहता है, यही मानवता है। जो ऐसा व्यवहार करने में सक्षम होता है, वास्तव में वही सौदागर है। अब हमें ही यह सोचना होगा कि हमें क्या करना है। व्यवसायी बनना है कि सौदागर बनना है। 

किसी शायर ने क्या खुब कहा है; बड़ा घाटे का सौदा है सदा ये सांस लेना भी! बढ़े हैं उम्र ज्यूं ज्यूं जिंदगी कम होती जाती है।

चिंता नहीं चिंतन करो ..!

सांसों का अंदर बाहर होना भी एक लेन देन है, जो स्वाभाविक है। और कब थम जाए, यह किसी के वश में नहीं है। जब तक सांसे चल रही हैं, विस्तार किसका होना चाहिए। भौतिकता का या आध्यात्मिकता का। या फिर दोनों के मध्य संतुलन बना कर जिया जा सकता है। इन बातों पर चिंतन अवश्य ही होना चाहिए। ज्ञानियों के मुख से निकले हर शब्द में दर्शन छुपा होता है। ज्ञानीजन तो सिर्फ इशारा करते हैं, उन्नति के लिए, आत्मोत्कर्ष के लिए।

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