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सुनसान नगर अंजान डगर का प्यारा हूं… आवारा हूं!

सुनसान नगर अंजान डगर का प्यारा हूं! आवारा हूं! इस गीत की पंक्तियां गीतकार शैलेंद्र ने लिखी है, और स्वर दिया है प्रसिद्ध पार्श्व गायक मुकेश ने। साधारण मन के लिए तो इस गीत में मनोरंजन से अधिक कुछ भी नहीं, पर इस नजरिए से भी यह गीत अत्यन्त मधुर एहसास देता है।

आवारा हूं … या गर्दिश में हुं आसमान का तारा हुं !
घरबार नहीं संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं
उस पार किसी से मिलने का इकरार नहीं
सुनसान नगर अंजान डगर का प्यारा हूं… आवारा हूं..!

इस गीत में एक शब्द प्रयुक्त हुवा है, वह है आवारा। साथियों  इस शब्द का अर्थ क्या है ? आइए जानने का प्रयास करते हैं। सामान्यतः विना किसी काम के इधर उधर घुमते रहनेवालों को आवारा समझा जाता है। ऐसा समझा जाता है कि ऐसे लोगों को किसी की परवाह नहीं होती, कोई ठौर-ठिकाना नहीं होता। ऐसे लोगों को निकम्मा, वेकार भी कहा जाता है। आवारगी अथवा आवारापन इस शब्द के विशेषण हैं। इस प्रकार सामान्य नजरिए से आवारगी का तात्पर्य है, निकम्मा होने की अवस्था, वेकार होने की अवस्था।

परन्तु लोगों के बीच इस बदनाम शब्द को देखने का और भी नजरिया है। दुसरे नजरिए से देखें तो इस शब्द के मायने बदल जाते हैं। अगर बेपरवाह होना आवारगी है तो जो सांसारिक मोह-माया के प्रति वेपरवाह होते हैं, उंन्हें क्या कहा जाए ? वास्तव में जो जिस विषय-वस्तु को जिस नजरिये से लेता है, वह वैसा ही बन जाता है। जो जिस नजरिये से देखता है, उसे वह उसी रुप में दिखाई पड़ता है। किसी शायर ने लिखा भी है :

ये तो देखने का नजरिया है आवारगी
कौन किससे है किसने जाना आवारगी।

एक और शब्द है दीवाना ! इस शब्द को भी दो संदर्भों में समझा जा सकता है। सामान्यतः दीवाना उसे समझा जाता है जो किसी वस्तु अथवा व्यक्ति से गहरा लगाव रखता हो। गहन अर्थों में प्रेम में पागलपन की अवस्था में होना दीवानगी है। एक दीवानगी ऐसी होती हैं, जिसमें आसक्ति है, मोह-माया है। एक दीवानगी ऐसी भी होती है जो इन सबसे बेपरवाह है।

आवारगी में किसी का परवाह नहीं होता यानि यह लापरवाह होता है। और इसके विपरीत दीवानगी में परवाह होता है, फिर भी यह बेपरवाह होता है। जब कोई इस अवस्था में हो कि उसकी आवारगी प्रेम भाव से पूर्ण हो तो उसे क्या कहेंगे। वास्तव में अपने उतम स्वरुप में आवारगी और दीवानगी दोनों समानार्थी हो जाते हैं। 

प्यार होता है आवारगी में प्यार खोता है आवारगी में
जिन्हें नहीं होता प्यार आवारगी में वे क्या जाने क्या है आवारगी !

मीरा की आवारगी साधारण मनुष्य के समझ से बाहर का विषय है। कबीर को समझना सरल नहीं है। मीरा की आवारगी ने उन्हें जीवन दे दिया। वह अपना नृत्य नाचकर चली गई। यह कबीर की आवारगी ही थी कि वे अपना गीत गाकर चले गए। किसी ने ठीक ही कहा है कि प्यार के दीपक जलानेवाले कुछ पागल होते हैं आवारगी में।

ओशो कहते हैं: “क्षण भर की जिंदगी है। अब गये तब गये, क्या फिकर करते हो! क्या फिकर करते हो घर की, परिवार की ? मित्रों की, प्रियजनों की ? एक ही बात की फिक्र करो कि तुम अपना नृत्य नाचकर जावोगे! कि तुम अपना गीत गाकर जावोगे! ‌कि तुम अपना सुगंध बिखेरकर जावोगे! कि मरते समय तुम्हें यह अपराध-बोध न होगा कि मैं अपनी ज़िंदगी ढंग से जी न सका।”

आवारा होने के, बेपरवाह होने की दो अवस्थाएं देखने को मिलती हैं। एक आवारगी वैसी है, जिसमें लापरवाही होता है, निक्कमापन होता है।  इसमें चिंता होती है, पलायन होता है, इस अवस्था में आदमी इधर उधर व्यर्थ ही भटकता रहता है। 

आवारा होने का एक और स्वरुप है जो बेपरवाह तो है, घुम्मकड़ भी है। पर ऐसी आवारगी में चितन होता है, प्रेम होता है, यह व्यर्थ नहीं होता। ऐसी आवारगी जीवन को सुख-दुख के अनुभूतियों से बाहर कर देता है। यह जो निराला किस्म की आवारगी है। इसमें भटकने का भी अलग मजा है, जो साधारण के समझ से बाहर है। सुनसान नगर अंजान डगर का प्यारा हूं! आवारा हूं..! इन पंक्तियों को मस्ती में झुमकर गाना सबके वश में नहीं होता।

वो वंदगी की ऐसी मिसाल देता है …आवारगी को शराफत में ढाल देता है।

इस प्रकार के जो आवारा होते हैं, वे साधारण को आगाह कर जाते हैं। ऐसी आवारगी संसार को दिशा देती है, जीवन जीने की राह दिखाती है। ऐसे आवारा का जीवन आनंद के रस में डुब जाता है। ऐसे लोग जीवन का भरपुर आनंद उठाते हैं।

ऐसी आवारगी चिंता से नहीं चिंतन से आती है। इस अवस्था में जाने के लिए जीवन में ध्यान का दीपक जलाना होता है। और यह आसानी से नहीं मिल जाता, इसके लिए प्रयास करने पड़ते हैं। जब ध्यान का दीपक प्रज्वलित हो जाता है तो जीवन आनंद से भर जाता है। सुख-दुख, हर्ष-विषाद, स्तुति-निंदा, आशा-निराशा आदि भावनाओं के प्रति बेपरवाह हो जाता है।

ओशो के अनुसार : “ध्यान का तो आनंद जिस दिन मिलेगा, उस दिन फिर आप यह नहीं कहेंगे कि चला गया। वह जाता ही नही! उसके जाने का सवाल ही नहीं है। क्योंकि ध्यान का जो आनंद है, वह किसी बाहरी अवस्था पर निर्भर नहीं है।

और उसकी कसौटी समझिए ! ध्यान में जो मिले, उसकी अगर अन्तर्धारा बहने लगे चौबीस घंटे! जागते, उठते-बैठते, काम करते, खालीपन में, बाजार में, घर में, सुख में, दुख में, प्रिय के मिलन में, अप्रिय के मिलन में … सबके बीच उसकी धारा बहने लगे सतत् यानि वह श्वास जैसी चीज हो जाय कि आप कुछ भी करे श्वास चल रही है, तब समझना कि ध्यान से आनंद उपलब्ध हुवा है।”

ऐसी आवारगी की जरूरत है जो चिंता नहीं चिंतन का, ध्यान का ऊपज है। वास्तव में इस अवस्था में चले जाने का मतलब ही आवारगी है। फिर इस गीत का आशय बदल जायगा। हम इस गीत को खुशी से गा सकेंगे, गुनगुना सकेंगे! बेपरवाह होकर, बेफ्रिक होकर :

आवारा हूं … या गर्दिश में हुं आसमान का तारा हुं !
घरबार नहीं संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं
उस पार किसी से मिलने का इकरार नहीं
सुनसान नगर अंजान डगर का प्यारा हूं… आवारा हूं..!

आबाद नहीं बरबाद सही गाता हूं खुशी के गीत मगर
जख्मों से भरा सीना है मेंरा हंसती है मगर ये मस्त नजर
दुनिया! मैं तेरे तीर या तकदीर का मारा हूं…आवारा हूं ..!

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