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आवारा मन असाधारण होता है …

‘आवारा मन’ से आशय है कि मन की ऐसी अवस्था जो आवारगी में हो। जब मन ऐसी अवस्था में हो, जब अपने ही धुन में मस्त होता हो, सफलता और विफलता , सुख-दुख आदि के प्रति बेपरवाह हो तो उसे आवारा मन समझा जा सकता है। सामान्य व्यक्ति का मन साधारण अवस्था में होता है। और साधारण मन आवारा मन को फूहड़पन समझ बैठता है। परन्तु जिस किसी के पास आवारा मन होता है वह असाधारण होता है। वह साधारण मन को नियंत्रित करने में सफलता हासिल कर लेता है।

साधारण मन तो मार्ग और गंतब्य को अलग-अलग करके देखता है। साधन और साध्य को भी अलग अलग करके देखने की भूल कर बैठता है। संबंधों में, कृत्यों में अथवा व्यवसाय में वह जो भी करता है ऐसा प्रतीत होता है मानो उससे जबरन करवाया जा रहा हो। बिना मार्ग के अगर गंतव्य तक पहुँचना संभव हो तो वह वही करना चाहेगा।

आवारा मन तो असाधारण होता है, सरल होता है, सहज होता है। वह उलझता है तो सुलझने के लिए उसकी आवारगी उसे उसके लक्ष्य तक ले जाती है।

साधारण मन की रुचि लक्ष्य में होता है। उसका लक्ष्य होता है सुख प्राप्त करना, सफलता प्राप्त करना। वह साधन का उपयोग केवल लक्ष्य तक पहुंचने के लिए करता है। उसे सुख गंतव्य में दिखाई पड़ता है, कहीं भविष्य में! वर्तमान में नहीं। इसलिए वह जो भी करता है बोझिल होकर करता है। अपनी काबिलियत को विकसित किये बगैर अपनी महत्वाकांक्षा को तुष्ट करने की प्रवृति उसे अवसाद की ओर ले जाती है।

आवारा मन का किसी विषय-वस्तु को देखने का नजरिया अलग होता है!पेड़ से गिरते सेव को तो सभी देखते हैं, न्यूटन से पहले भी लोगों ने देखा होगा, लेकिन न्यूटन के आवारा मन ने उसे अलग नजरिये से देखा। साधारण सी दिखने वाली इस क्रिया के प्रति उनका आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को प्रतिपादित करने में सफल हो गया। साधारण मन अपने स्वनिर्मित नियमो में, उलझनों में उलझा रहता है।

साधारण मन किसी घटना को साधारण नजरिए से लेता है। जबकि हर साधारण सी प्रतीत होती चीज़ों में असाधारण रूप, गुण व अर्थ छुपा होता है। मनुष्य मन और बुद्धि के वर्तमान धरातल से जब तक ऊपर नहीं उठ जाता, समस्याएं और परेशानियां उसका पीछा करती रहेंगी। साधारण मन को यह तो समझना ही होगा, कि मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ते रहने से लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है।

यह दीवानगी संसार के अनेक विभूतियों प्रगट हुआ है !

राजकुमार सिद्धार्थ राजसी ठाट-बाट, मान प्रतिष्ठा, सुन्दर पत्नी, सब कुछ का परित्याग कर निकल पड़ते हैं। साधारण मन की दृष्टि में ये समझ से परे है। सिद्धार्थ की यही आवारगी उन्हें कालांतर में बुद्ध बनाता है और उनका सारा जीवन उत्सव हो जाता है।

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कबीरदास जब कपड़ा बुन रहे होते, उनका मन सिर्फ कपड़ा बनाने में ही लगा रहता था। करघे की खट्ट-खट्ट की आवाज ही मानो उनके लिए परम संगीत हुवा करता था। कपड़ा तैयार करते वक्त उन्हें बाजार की चिंता नहीं होती थी। एक-एक पल के आनंद को सहेज लेने की काबिलियत उन्हें फकीरी के अवस्था तक लेकर चला गया और संसार को संत कबीर के रूप में एक रत्न मिल गया।

आवारा-मन-असाधारण-क्यों-है

अमेरिका में १९वीं शताब्दी के मध्य में एक ऋषि हुवे जिनका नाम लूथर बरबैंक था। उन्हें बागवानी का शौक था। शौक ऐसा कि दीवानगी कि हद को पार कर गया। बनस्पतिओं के बीच रहना, उन्हें सींचना, उनके सेवा में तत्पर रहना, यही उनका कर्म था और यही उनका धर्म। एक आवारा मन का जब किसी से लगाव हो जाता है तो वह साधारण लगाव नहीं होता, साधारण मन उसे मोह समझता है परन्तु वास्तव में यही प्रेम है।

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बरबैंक को गुलाब के एक पौधे से प्रेम हो गया। वह उस पौधे का जतन करते वक्त उसे बहुत प्यार से सहलाते और बारम्बार उससे कहा करते कि प्यारे नन्हे गुलाब तुम्हारे काँटों के चुभन से तुम्हे छूने वाले को चोट पहुँचता है, अगर तुम इन काँटों का परित्याग कर दो तो लोग तुम्हे और अधिक प्यार  करने लगेंगे। बरबैंक के निश्छल प्रेम ने असंभव को संभव कर दिया। अंततः वो पल आ ही गया और गुलाब के पौधे ने अपने काँटों का परित्याग कर दिया। उस गुलाब कि प्रजाति आज भी मौजूद है, बिना काँटों का गुलाब जिसे दुनिया बरबैंक गुलाब के नाम से जानती है।

आवारा-हूँ-Awara-Hun

स्वामी विवेकानंद ने कहा है – ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वो हम ही हैं जो अपनी आँखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते है कि अंधकार कितना है’।

ओशो कहते हैं – यदि तुु पुरे हृदय से यैै कहो तो तुमने वह सब कह दिया जो कहा जा सकता है, जिसे कहने की जरूरत है। हर चीज को यैस कहो ! दिन हो कि रात, सर्दी हो कि गर्मी, में अच्छा हो कि बुरा, सफलता हो कि असफलता, सुख हो कि दुःख, जन्म हो कि मृत्यु – तुम यैस कहो। बाकि सब भूल जावो, बस एक ही शब्द याद रखो: यैस। और तुम्हारा जीवन एक सतत् उत्सव बन जायेगा।

साधन और साध्य दो अलग-अलग चीजें हैं। मार्ग और गंतव्य दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। मार्ग केवल गंतव्य की शुरुआत है, और गंतव्य केवल मार्ग का अंतिम छोर है।

ओशो

इंद्रिय के साधन से इंद्रियां जरूरी हैं। लेकिन साधारण मन सोचता है कि इंद्रियों को सुख देने वाली वस्तुएं इंद्रियों से अधिक जरुरी हैं। आवारा मन इन्द्रियों की तुलना में मन को नियंत्रित करने में अधिक ध्यान देता है। यदि मन का ध्यान नहीं रखा जाय तो, केवल इंद्रियों के सुख के साधन पर ध्यान रहा तो मन अवसादग्रस्त हो जाता है।

मन के मते न चलिये – मन के अनुसार मत चलो! बुद्धिमान बुद्धि का अनुसरण करते हैं, मन का नहीं। बुद्धि मन से परे है, यह ज्ञान के मदद से निर्णय लेती है। और यह जो ज्ञान है, इसका संंबंध भीतर की ऊर्जा से है। मन पर नियंत्रण साधारण मन की अवस्था को विकसित कर सकता है।

ओशो यही समझा गये हैं कि गंतव्य को भूल जाओ और साधन कि तरह जो भी कृत्य तुम्हारे हाथ में है उसे ही लक्ष्य बनालो। अपने मन को यह आभास होने दो कि तुम्हारा कृत्य ही तुम्हारा गंतव्य है। तुम जो भी कर रहे हो पुरे मन से करो, जीवन के एक-एक पल को जीने का प्रयत्न करते चलो। धीरे-धीरे तुम अपने साधारण मन में बदलाव अनुभव करोगे।

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