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दृष्टिकोण का अर्थ क्या है जानिए…

दृष्टिकोण हिन्दी भाषा का एक शब्द है। यह जो शब्द है, दृष्टि और कोण दो शब्दों का युग्म है। दृष्टि का आशय देखने की वृति से है, देखने की शक्ति से है। जिन चीजों को देखने की हमारी रुचि होती हैं, वो सबकुछ हमें दिखता है। अगर देखना न चाहें, तो कुछ भी नहीं दिखाई देता। हमारे अंदर देखने की शक्ति भी है, जो हम सभी में निहित है। देखने के लिए हमारे पास आंखें हैं, आसपास जो घट रहा होता है, हमारी आंखें चलचित्र की भांति हमें दिखाती है।

हम सभी अपनी आंखों के द्वारा  उन दृश्यों, घटनाओं को देखते हैं, जो समक्ष उपस्थित होते हैं। गहनता से विचार करें तो यह सबकुछ हम आंखो के द्वारा देखते जरूर हैं। पर हम जो भी देखते हैं, हमारा मन उसे दिखाता है। देखने की चाह और शक्ति हमारे मन में ही निहित है। दृष्टि देखने की वृति है और कोण से आशय है कि किस तरीके से हम चीजों को देखते हैं। हम वही देखते हैं, जो हमारा मन हमें दिखाना चाहता है। अर्थात् हम अपने सोच के आधार पर सबकुछ देखते हैं या देखना पसंद करते हैं। हमारे विचार ही हमारे अंदर जो देखने की वृति है, उसे दिशा देती है। हम चीजों को जिस प्रकार से देखते समझते हैं, उसका वैसा ही प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। सामान्यतः दृष्टिकोण का अर्थ यही है।

किसी भी व्यक्ति का संस्कार ही उसके दृष्टिकोण का आधार होता है। संस्कार मन का विषय है, इसके दो प्रकार बताए गए हैं। एक जो जन्मजात होता है, और दुसरा परिवार से, समाज से, शिक्षा से ग्रहण किया जाता है। व्यक्ति के संस्कार के अनुसार ही उसके विचार भी होते हैं। जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बनता चला जाता है। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके मन का विषय है।

जन्मजात संस्कार भी दो प्रकार के होते हैं। एक को दैविक संस्कार कहा जाता है। यह पूर्वजन्म के कर्मों के छाया के रूप में इस जन्म के साथ चला आता है। वास्तव में छय शरीर का होता है, मन का अस्तित्व मृत्यु के पश्चात भी बना रहता है। प्राण ऊर्जा जिसे आत्मा कहा गया है, इसका नाश नहीं होता। यह प्राण ऊर्जा पुन: जब दुसरे शरीर में प्रवेश करता है, तो यह अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं होता है। पिछले जन्म के संस्कारों की छाया उस पर बनी रहती है। 

दुसरा जो जन्मजात संस्कार है, उसे दैहिक संस्कार कहा जाता है। विज्ञान इसे अनुवांशिक लक्षण के रूप में परिभाषित करता है। यह संस्कार माता-पिता से संतानों में हस्तांतरित होता है। किसी में मातृ पक्ष के संस्कारों की अधिकता होती है तो किसी में पितृपक्ष की। माता और पिता दोनों के संस्कारों का प्रभाव संतानों पर पड़ता है।

वैसे संस्कार जो व्यक्ति जन्म लेने के बाद ग्रहण करता है, उसे भौतिक संस्कार कहा जाता है। यह बाहर से आता है, पारिवारिक, सामाजिक माहौल से आता है, शिक्षा से आता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति को क्या सिखाया जाता है या वह क्या सीखने का प्रयत्न करता है। किसी भी व्यक्ति के संस्कार बालपन से ही निर्मित होने लगते हैं। बालपन में वह अपने आसपास जो देखता है, वैसा ही करता है। 

संकुचित दृष्टिकोण का बीज बचपन में ही बोया जाता है। और व्यस्क होने तक यह मन में व्याप्त हो जाता है।  बाल्यावस्था में किसी को भी सांसारिक विषयों का ज्ञान नहीं होता। बच्चों को जो सिखाया जाता है, वे वही सीखते हुए बड़े हो जाते हैं। पारिवारिक संबंधों के प्रति प्रेम अथवा भेद करना बच्चे बड़ों से ही सीखते हैं। बच्चों में संस्कार के निर्माण में सबसे अधिक भुमिका माता-पिता की होती है। 

माता को प्रथम पाठशाला की संज्ञा दी गई है। किसी भी व्यक्ति का बालपन सर्वाधिक माता के सानिध्य में ही बीतता है। संतान के जीवन में उसे जन्म देनेवाली मां के आचार-विचार का प्रभाव गर्भकाल से ही पड़ना शुरू हो जाता है। यही कारण है कि गर्भवती महिलाओं को अच्छे विचारों एवम् क्रिया-कलापों में समय व्यतीत करने की सलाह दी जाती है। महाभारत में इस बात का उल्लेख है कि चक्रव्यूह को तोड़ने की सीख अभिमन्यु को गर्भ में ही मिल गई थी। 

अक्सर यह देखा जाता है कि हीन मानसिकता वाले माता-पिता के संतान भी हीनता से ग्रसित होते हैं।

अशिक्षित एवम् संकुचित विचारों वाले माता-पिता के संतानों में उत्तम गुणों का विकास नहीं हो पाता। यह संकुचन का भाव व्यक्तिवादी सोच के कारण पनपता है। जो व्यक्ति अपने चारों ओर एक ऐसे वातावरण का निर्माण कर लेता है, जहां वह केवल अपने हित के लिए सोचता है। केवल अपने सुख को परिभाषित करने में लगा रहता है। उसकी मानसिकता ऐसी हो जाती है कि अपनी गलत हरकतों को भी सही साबित करने में लग जाता है।

संकुचित मन में देने का भाव का लोप हो जाता है। केवल लेने का भाव मन को हीन भाव से भर देता है। श्रम हो, सहयोग हो अथवा मान-सम्मान हो, अगर देने का भाव मन में नहीं हो। केवल दुसरों से लेने का भाव मन में निहित हो, तो यह कलुषित मन का परिचायक है। कलुषित मानसिकता वाले लोग अपने आसपास के वातावरण को भी दुषित करते रहते हैं। 

किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके विचारों से प्रभावित होता है। वह अपने लिए अथवा अपनों के लिए क्या सोचता है। और फिर अपनों के दायरे में किसे, किस रिश्ते को मान देता है। दुसरों के लिए उसके मन में क्या चल रहा होता है। ऐसे समस्त विचारों, गतिविधियों पर चिंतन जरूरी है। व्यक्तित्व के विकास के लिए अपने दृष्टिकोण को विस्तार देने की जरूरत होती है। और यह स्वयं के गतिविधियों पर चिंतन करने से होता है। चिंतन करने से मानसिकता में सुधार होता है, विचार शक्ति में वृद्धि होती है। 

जो व्यक्ति चिंतनशील होता है, जागरूक रहकर जो अपनी गतिविधियों के सही गलत होने का आकलन करता है। जिसमें सीखने की प्रवृति होती है, वह अपने हीन मनोदशा को सुधारने का प्रयास अवश्य करता है। वैसे लोग अपने संतानों में भी अच्छे संस्कार विकसित हों, इसके लिए प्रयासरत होते हैं। भौतिक संस्कार महत्वपूर्ण होते हैं। शिक्षा के द्वारा उत्तम गुणों को विकसित कर जीवन को उन्नतिशील बनाया जा सकता है। 

शिक्षा से ही समझ की उत्पत्ति होती है। और समझ हो तभी व्यक्ति में जागरूकता आती है। और यह जो समझ है निर्लिप्त भाव से जगता है। खासकर बच्चे परिवार का भविष्य होते हैं। परिवार के भीतर विभिन्न रिश्तों के बीच की कड़ी होते हैं। उनके गलत संस्कारों का प्रभाव पुरे परिवार एवम् समाज पर पड़ता है। अगर उनकी सोच में रिश्तों की मर्यादा का ज्ञान न हो। केवल अपने माता-पिता के पक्ष में खड़े रहने को तत्पर रहते हों। अन्य रिश्तों के प्रति अच्छी सोच नहीं रखते हों, तो परिवार का माहौल बिगड़ जाता है। 

बच्चों में संस्कार न दिखे तो यह बात स्पष्ट हो जाता है कि उनके लालन पालन में जागरूकता की कमी है। परन्तु उन्हें स्वयं भी अपने मनोदशा पर नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिए। अगर बच्चे माता-पिता एवम् अन्य रिश्तों में भेदभाव करने लग जाएं, तो ऐसा करना सर्वथा अनुचित होता है। अगर माता-पिता से उन्हें रिश्तों का आदर करने की सीख न मिली हो तो उन्हें स्वयं यह सीखना चाहिए। माता-पिता के पक्ष में आकर अन्य रिश्तों से उलझने की मानसिकता पुरे परिवार के माहौल को अशांत कर सकता है। 

शिक्षा से समझ का स्तर विकसित होता है। परन्तु यह तभी संभव है, जब किसी में सीखने की प्रवृति हो। एक ही वातावरण एवम् परिस्थिति में रहते हुए भी लोगों के विचारों में भिन्नता होती है। यह जो भिन्नता है, लोगों के दृष्टिकोण को ही दर्शाता है। किसी के देखने सोचने की जो दिशा है, वह कैसी है। उसकी मति कैसी हैं, सुमति है कि कुमति, इस पर चिंतन करना जरूरी है। चिंतन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति में अनेक गुणों का विकास होने लगता है। ये जो गुण हैं प्रत्येक के भीतर निहित होते हैं, परन्तु बाहर से निर्मित हीनता के कारण धुमिल हो जाते हैं। 

दृष्टि का विषय दृश्य है! और दृश्य ही दृष्टिकोण का विषय है। दृष्टिकोण को हम  सांसारिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक, तीन तरह से समझ सकते हैं। सांसारिकता में लिप्त लोगों का दृष्टिकोण सांसारिक होता है। सांसारिक गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति किसी वस्तु, विषय अथवा घटना को किस तरह से देखता और समझता है। उसके आसपास जो मौजूद होता है अथवा जो घट रहा होता है, वह उसे किस प्रकार से देखता, समझता है। यह सांसारिक दृष्टिकोण है। 

दृश्य दृष्टि का विषय है, परन्तु सामान्य मनुष्य की दृष्टि सांसारिक दृश्यों तक ही सीमित होता है। 

दृष्टिकोण के अर्थ के गहराई को समझने के लिए हमें दर्शन को समझना होगा। दृश्य दृष्टि का विषय है, परन्तु दृष्टि को विस्तार देने के लिए दर्शन को समझना जरूरी है। दर्शन शब्द संस्कृत भाषा के दृश भाषा से बना है। जिसके द्वारा किसी भी चीज के वास्तविकता की अनुभूति हो, वही दर्शन है। 

दर्शन एक विधा है, जो किसी भी वस्तु एवम् घटना की वास्तविकता को जानने का दृष्टिकोण है। यह दार्शनिक दृष्टिकोण है। शांत और स्थिर मन से परिस्थितियों का सामना करने से दृश्य अपने सही स्वरूप में दिखने लगता है। देखने सोचने की दिशा अगर दार्शनिक हो, तो सभी पहलुओं पर भिन्न भिन्न तरीके से सोचने की शक्ति जागृत होती है। इससे जो जानकारी मिलती है, अनुभवों एवम् परिस्थितियों के अनुसार मिलती है। 

आध्यात्मिक दृष्टिकोण!

दर्शन ऐसी विधा है, जो हमें समस्त संसार को एकत्व भाव से देखने की सीख देती है। समस्त संसार एक है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आशय यही है। अगर मन भेदभाव से रहित हो, प्रेमभाव से परिपूर्ण हो, तभी इस बात के महत्व को समझा जा सकता है। क्लेश के कारण अनेक होते हैं, साथ रहने का कारण केवल एक होता है। प्रेम में देने का भाव होता है, चाहे वह कोई वस्तु हो, श्रम अथवा सहयोग हो, प्रेम केवल देना जानता है। जहां प्रेम का वास होता है, वहां अहंकार मिट जाता है।

दृश्य दृष्टि का विषय है और दर्शन दृश्य के वास्तविकता की खोज करता है। परन्तु जो सांसारिकता से परे है, वह दृश्य आंखों से दिखाई नहीं देता। वास्तव में जो है, सांसारिकता में लिप्त व्यक्ति का अस्थिर, अशांत मन उसे देख नहीं सकता। इसलिए दर्शन भी अगर सांसारिकता तक सीमित हो, तो उस दृश्य को देखा नहीं जा सकता, जो सांसारिकता से परे है। परन्तु दार्शनिक दृष्टिकोण में अध्यात्म के मार्ग पर जाने की संभावना होती है।

दर्शन वह विधा है जो ज्ञान की खोज करता है। और ज्ञान हमें उस सत्य को जानने की ओर प्रवृत कर सकता है, वास्तविक ज्ञान है। जिस दिशा की ओर अग्रसर होने से सत्य की अनुभूति होती है, आध्यात्मिक दृष्टिकोण है। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ सत्य ही शिव है और शिव ही सुन्दर है। इस सत्य की अनुभूति आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही संभव है। परन्तु इसके लिए मन को नियंत्रित करना पड़ता है। 

प्राण ऊर्जा जिसे आत्मा कहा गया है, कामनाओं से ग्रसित मन इसके शुद्ध स्वरूप को नहीं जान पाता। यह बाहर के संसार में ही भटकता रहता है। अगर इसके दिशा को भीतर की मोड़ा जा सके, तो यह शांत और स्थिर हो जाता है। शांत और स्थिर मन उस त्तत्व का अनुभव कर पाता है जो अदृश्य है। ज्ञानियों इसी घटना को आत्म साक्षात्कार की संज्ञा दी है। इसी सुक्ष्म अदृश्य त्तत्व को उस विराट का अंश बताया है, जो अदृश्य है, पर सर्वव्यापी है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण मनुष्य को इस विराट दृश्य का अनुभव कराता है। इसे देखना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। 

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