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रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय

मानवता के उपासक श्री रामकृष्ण को परमहंस की उपाधि दी गई है। हिन्दु धर्म में परमहंस की उपाधि उन्हें दी जाती है, ज़ो योग के अंतिम अवस्था समाधि को प्राप्त कर लेते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे अद्भुत संत हुवे, जिन्होंने साधना के द्वारा परमत्तत्व का अनुभव किया था। उनके परम शिष्य स्वामी विवेकानंद ने समस्त विश्व को वेदांत दर्शन से अवगत कराया और विश्वप्रसिद्ध हुए।

श्री रामकृष्ण का जन्म सन 1833 में हुगली के समीपवर्ती कामारपुकुर गांव के एक ब्राम्हण कुल में हुवा था। जब वे सात वर्ष की अवस्था में थे, उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके बड़े भाई जो कोलकाता में रहते थे, उन्हें अपने साथ लेकर चले आये। बाल्यकाल से ही उन्हें देव पूजन में रुचि थी। ईश्वर के दर्शन की प्रबल अभिलाषा उनके मन में निहित था। सौलह वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया। उनके भाई कोलकाता स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे। उन्होंने कोलकाता के एक संस्कृत पाठशाला में उनका प्रवेश दिलाया। उनका मन पढ़ाई में नहीं लगता था। अंततः एक दिन उन्होंने अपने भाई से कहा ; “भाई पढ़ने लिखने से क्या होगा? केवल धन-धान्य प्राप्त करना है, मैं तो विद्या पढ़ना चाहता हूं! जो मुझे ब्रम्ह से साक्षात्कार करा दे।” ऐसा कहकर उन्होंने पढ़ना छोड़ दिया।

रामकृष्ण का मन पूजा-प्रार्थना में लगता ही था, उन्हे दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पुजारी बना दिया गया। वहां वह मां काली का पूजन-अर्चन करने लगे। परन्तु यह प्रश्न हमेंशा उनके मन में उठा करता कि क्या वास्तव में इस मुर्ति में कोई त्तत्व है? क्या सचमुच यही आनंदमयी मां है! या यह सब केवल स्वप्न मात्र है! इस प्रश्न के कारण उनके लिए विधिपूर्वक माता का पूजन करना कठिन हो गया। कभी भोग ही लगाते रहते, तो कभी घंटो आरती करते रहते। कभी मां की प्रतिमा के समक्ष रोने लगते और कहते “मॉं ओ मॉं मुझे दर्शन दे। दया करो देखो जीवन का एक और दिन व्यर्थ चला गया! क्या दर्शन नहीं दोगी? नहीं नहीं दो जल्दी दर्शन दो!”   

मॉं सारदा से विवाह !

उनकी ऐसी हालत देख लोग उन्हें विक्षिप्त समझने लगे गये। उनकी माता एवम् भाई उनके क्रियाकलापों को देख चिन्तित हो उठे। इस स्थिति में उनकी माता के मन में उनके विवाह का ख्याल आया। और हुगली नदी के तट पर बसे एक गांव जयराम वाटी की एक ब्राम्हण कन्या से उनका विवाह कर दिया गया। उनके विवाह के समय उनकी पत्नी सारदा केवल पांच वर्ष की थी। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ही कहा था कि इस कन्या का जन्म मेंरे लिए हुवा है। विवाह के पश्चात श्री रामकृष्ण वापस आकर साधना में लग गए। श्री रामकृष्ण अपने धुन में मस्त होते गये। दिन रात उन्हें मां काली के दर्शन का ध्यान रहने लगा।

ग्यारह वर्षों के पश्चात् श्री रामकृष्ण एक दिन अचानक ससुराल पहूंच गए। उस समय तक उनकी पत्नी सौलह की हो चुकी थी। वह उन्हें देखकर पहचान नहीं पायी। वह उन्हें पागल समझकर चिल्लाने लगी। फिर मां के कहने पर कि ‘यह तो मेंरा दामाद है।’ वह ‘हाय! क्या यही मेंरे भाग्य में लिखा था’ ऐसा कहते हुवे फर्श पर गिर पड़ी और अचेत हो गई। सचेत होने पर देखा कि रामकृष्ण पूजा की सामग्री जुटाकर कह रहे हैं ‘आ इस चौकी पर बैठ जा’ , वह चौकी पर बैठ गई। श्री रामकृष्ण मॉं मॉं कहकर उनके चरणों में पुष्प चढ़ाने लगे और आरती उतारने लगे। और फिर पूजा समाप्त कर वे वहां से लौट गये। दो वर्ष पश्चात सारदा देवी को ऐसा लगने लगा कि मेंरा पति कोई पागल नहीं, वह तो एक असाधारण पुरुष है।

अठारह वर्ष की उम्र में वह अपनी माताजी के साथ मीलों पैदल चल कर श्री रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर पहूंच गई। रामकृष्ण इस समय तक आत्मसाक्षात्कार के सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर चुके थे। जिस त्तत्व को साक्षात्कार करने के लिए वे व्याकुल हो रहे थे, आखिरकार उन्हें प्राप्त हो गया। कहा जाता है कि श्री रामकृष्ण को मां काली का दर्शन ब्रम्हांड की माता के रुप में हूवा था। उन्होंने इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है; 

“घर-द्वार, मन्दिर और सबकुछ अदृश्य हो गया! जैसे कहीं कुछ भी नहीं था और मैने एक अनंत तीर विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में मैंने दुर दुर तक जहां भी देखा, बस ऊज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक मेंरी तरफ आ रही थीं।”

श्री रामकृष्ण परमहंस ने बड़े प्यार से सारदा देवी का स्वागत किया और उन्हे सहज रूप से ग्रहण किया। सारदा देवी पवित्र जीवन व्यतीत करते हुवे एवम् रामकृष्ण की शिष्या की तरह आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हुवे अपने दायित्व का निर्वहन करने लगी।

सारदा देवी और रामकृष्ण का दाम्पत्य जीवन अलौकिक था। उनके दम्पत्य जीवन में विषय-वासना का कोई स्थान नहीं था। श्री रामकृष्ण मॉं सारदा को हमेशा जगन्माता के रूप में देखते थे। एक दिन श्री रामकृष्ण की मनःस्थिति जानने के लिए मॉं सारदा ने उनसे पूछा भी था कि ‘मैं कौन हूं’। प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा था; ‘जो मॉं काली मुर्ति में विराजमान है, वही मॉं आपके रुप में सेवा कर रही है’। सन 1872 के फलाहारी पूजा के रात्रि में उन्होंने मॉं सारदा की जगन्माता के रूप में पूजा की थी। 

सारदा देवी का दिनचर्या प्रात: तीन बजे से शुरू होता था। गंगा स्नान के बाद जप और ध्यान में लग जाती थी। अपने ध्यान में दिए समय के अलावा बाकी समय रामकृष्ण एवम् भक्तों के लिए भोजन बनाने में व्यतीत करती थी। सन 1886 में रामकृष्ण के महासमाधि के पश्चात् वे तीर्थाटन में चली गईं। तीर्थाटन से लौटने के बाद रामकृष्ण के पैतृक गांव कामारपुकुर में रहने लगी। परन्तु भक्तों के आग्रह पर पुनः कोलकाता चली आती। प्रारंभिक वर्षों में स्वामी योगानंद ने उनकी सेवा का दायित्व उठाया। बाद के दिनों में स्वामी सारदानंद ने उनके रहने के लिए कोलकाता में उद्धोदन भवन का निर्माण करवाया। संघमाता के रुप में प्रतिष्ठित होकर उन्होंने सभी शिष्यों को संरक्षण प्रदान किया एवम् अनेक भक्तों को दीक्षा देकर अध्यात्म के मार्ग पर प्रशस्त किया।

ध्यान करो इससे तुम्हारा मन शांत और स्थिर होगा और बाद में तुम ध्यान किये विना नहीं रह पावोगे।

मां सारदा

श्री रामकृष्ण परमहंस मानवता के पुजारी थे, उन्होंने सभी धर्मों की एकता पर बल दिया। उन्होंने एक एक करके सभी धर्मों के रहस्य को जाना। सभी धर्मों का मंथन करने के फलस्वरूप वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं, उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वे सभी ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न भिन्न साधन मात्र हैं। उन्होंने कहा है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किसी विशेष पंथ की आवश्यकता नहीं है, वह तो किसी भी संप्रदाय में रहकर प्राप्त किया जा सकता है।

समय जैसे जैसे बीतता गया उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यास और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवम् भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रय स्थान हो गया।

श्री रामकृष्ण परमहंस सदैव शान्त और प्रसन्नचित रहा करते थे। उन्हें कभी उदास या क्रोधित होते हुए नहीं देखा गया। उनमें अद्भूत आकर्षण शक्ति थी। जिस प्रकार पुष्प की सुगंध से आकृष्ट होकर भ्रमर समूह उस पुष्प को आच्छादित कर लेता है। उसी प्रकार परमहंस स्वामी के आत्मज्ञान रुपी अबाध प्रकाश से आकृष्ट भक्त रुपी पतंड्गे स्वामी जी को सदैव घेरे रहते थे। मनुष्य उनके उपदेश से एकदम लाभान्वित हो जाता था। दुसरों की शंकाएं वे बात बात में दुर कर देते थे। प्रत्येक बात को समझने के लिए अनेक उदाहरण देते थे, जिससे मनुष्य का हृदय में उनकी बात पुरी तरह जम जाती थी।

रामकृष्ण परमहंस के कथनानुसार; ” ईश्वर,देश-काल-निमित आदि से कभी मर्यादित नहीं हुवा, न हो सकता है। फिर भला मुख के शब्द द्वारा ही यथार्थ वर्णन कैसे हो सकता है? ब्रम्ह तो एक अगाध समुद्र के समान है, वह निरुपाधित, विकारहीन और मर्यादातीत अगाध समुद्र है । तुमसे अगर कोई कहे कि महासागर का यथार्थ वर्णन करो, तो तुम बड़ी उलझन में पड़ जावोगे! अरे इस विस्तार का कहीं अंत है? अनवरत लहरें उठ रही हैं! कैसा गर्जन हो रहा है! ईत्यादि। ठीक इसी प्रकार ब्रम्ह को समझो!”

उन्होंने ईश्वर प्राप्ति में मनुष्य के मन में निहित अहंकार को बाधक बताया है। श्री रामकृष्ण  के शब्दों में –

यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तो पहले अहम् भाव को दुर करो। क्योंकि जब तक अहंकार दुर न होगा, अज्ञान का पर्दा कदापि न हटेगा। तपस्या, सत्संग, स्वाध्याय आदि साधना से अहंकार को दुर कर आत्मज्ञान प्राप्त करो और ब्रम्ह को जानो।”

“अविद्या माया सृजन के काले शक्तियों को दर्शाती है, ये मानव चेतना को निचले स्तर पर रखती है। वहीं विद्या माया सृजन के उत्तम शक्तियों के लिए जिम्मेवार हैं, यह मनुष्य को चेतन के उच्च स्तर पर ले जाती है।” 

_रामकृष्ण परमहंस

रामकृषण परमहंस और विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद उनके प्रिय शिष्यों में से एक थे। विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था। वह बुद्धि और तर्क के आधार पर चलने वाले किशोर थे। नरेंद्र मुर्ति पूजा के विरोधी थे, पर जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे। सन 1881 में नरेन्द्रनाथ जनरल एसेम्बली इन्स्टीट्युट के छात्र थे। एक दिन कोलेज में अंग्रेजी के अध्यापक नहीं आये तो उनके कक्षा में प्राध्यापक हेस्टी पढ़ाने आ गये। प्राध्यापक हेस्टी ने वर्डसवर्थ की कविता ‘ दि एक्सकर्शन’ में समाधि के संदर्भ को समझाते हुवे कहा था, ‘जब एक विशुद्ध मन किसी विषय पर एकाग्र होता है तब ऐसे अनुभव होते हैं। 

उन्होंने कहा कि ‘प्रकृति के सुन्दरता को देखकर मनुष्य ट्रांस हो जाता है।’ ‘ट्रांस’ का शाब्दिक अर्थ है ‘दिव्य अनुभूति‘। नरेंद्र ने’ट्रांस’ के विषय में जानना चाहा! ये होता क्या है? कैसे होता है? इस प्रकार के प्रश्न उनके मन में उठने लगे। उन्होंने नि:संकोच होकर हेस्टी से पूछा – महाशय आपको कभी ‘ट्रेस’ हुवा है। प्राध्यापक ने कहा; ‘मैं तो कभी ट्रेस में नहीं गया, इस प्रकार के अनुभव आधुनिक युग में विरल हैं। लेकिन मैंने केवल एक साधक को देखा है, जिसने इस दिव्य आनंदपूर्ण मान्सिक अवस्था का अनुभव किया है। और वे हैं दक्षिणेश्वर के श्री रामकृष्ण परमहंस, उनको देखकर लगता है कि ‘ट्रेस’ क्या है। यदि तुम स्वयं वहां जाकर उन्हें देखो तो इसे समझ सकोगे।’ यह उत्तर  नरेंद्र के जीवन को बदलाव की ओर ले गया।

अपने जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण नरेंद्र ने  कई लोगों से मिलकर दैविय अनुभूति के विषय में जानना चाहा, परन्तु संतोष जनक उत्तर नहीं मिला। अंत में वे श्री रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर गये। 

नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण से पूछा- दिव्य अनुभूति क्या होता है? क्या आपको कभी हुवा है? मुझे कैसे हो सकता है? क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है? 

श्री रामकृष्ण ने उत्तर दिया- हॉं! मैने देखा है! ठीक उसी तरह जैसे तुम्हें देख रहा हूं। मैं तुम्हारे भीतर देख रहा हूं, तुम्हें देखकर मुझे दिव्य अनुभूति हो रही है!

श्री रामकृष्ण परमहंस के उत्तर ने और उनके शरीर से निकलने वाली तरंगों ने नरेंद्र के जीवन को बदल दिया। नरेंद्र ने जो अनुभव किया; उन्हीं के शब्दों में- 

‘न तो वेशभूषा या शरीर की ओर उनका ध्यान था, और न ही स़सार के प्रति आकर्षण। आंखो में अन्तर्मुखता स्पष्ट झलक रही थी और ऐसा लगता था मानो मन का एक अंश सदा ही कहीं भीतर ध्यानमग्न हो। कलकत्ते के भौतिकवादी वातावरण से इस प्रकार अध्यात्मिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति के आगमन से मैं चकित रह गया।”

अपने शिष्यत्व के प्रारंभिक दिनों में नरेंद्रनाथ श्री रामकृष्ण से बहुत तर्क वितर्क किया करते थे। बाद के दिनों में गुरु के कृपा से धीरे-धीरे नरेंद्र को आध्यात्मिकता का स्पष्ट अनुभव होने लगा। साथ ही साथ उनकी गुरुभक्ति बढ़ती चली गई और वे स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए।

श्री रामकृष्ण परमहंस और नरेन्द्रनाथ के बीच वार्तलाप के अंश :

उपलब्ध जानकारी के अनुसार शुरुवाती दिनों में श्री रामकृष्ण एवम् नरेन्द्रनाथ के बीच हुवी बातचीत का कुछ झलक प्रस्तुत कर रहा हूं। नरेंद्र का एक एक प्रश्न एक सामान्य व्यक्ति का प्रश्न है, जो हर किसी के मन में उठता है। और श्री रामकृष्ण का उत्तर हर किसी के लिए उपयोगी है। 

नरेंद्र- मैं समय नहीं निकाल पाता, जीवन में उथल-पुथल मचा हुवा है?

श्री रामकृष्ण- गतिविधियों तुम्हें घेरे रहती हैं, लेकिन सृजनशीलता स्वतंत्रता देती है।

नरेंद्र- आज जीवन इतना जटिल क्यों हो गया है?

श्री रामकृष्ण- जीवन का विश्लेषण करना बंद करो! यह इसे जटिल बना देता है। जीवन को सिर्फ जीयो!!

नरेंद्र- फिर हम हमेशा दुख में क्यों रहते हैं?

श्री रामकृष्ण- दुखी होना, परेशान होना तुम्हारी आदत बन गई है, इसी कारण से तुम खुश नहीं रह पाते।

नरेंद्र- अच्छे लोग हमेशा दुख क्यों पाते हैं?

श्री रामकृष्ण- हीरा रगड़ने से ही चमकता है। सोने को शुद्ध होने के लिए आग में तपना पड़ता है। अच्छे लोग दुःख नहीं पाते बल्कि परीक्षाओं से गुजरते हैं। इस अनुभव से उनका जीवन बेहतर होता है, व्यर्थ नहीं होता!

नरेंद्र- आपके कहने का तात्पर्य है कि ऐसा अनुभव उपयोगी होता है?

श्री रामकृष्ण- हॉं, प्रत्येक दृष्टिकोण से अनुभव एक कठोर शिक्षक की तरह है। पहले वह परीक्षा लेता है और फिर सीख देता है।

नरेंद्र- समस्याओं से घिरे रहने के कारण हम जान नहीं पाते कि किधर जा रहे हैं?

श्री रामकृष्ण- अगर तुम अपने बाहर झांकोगे तो जान नहीं पावोगे कि किधर जा रहे हो। अपने भीतर झांको! आंखें दृष्टि देती हैं, हृदय राह दिखाता है।

नरेंद्र- क्या असफलता सही मार्ग पर चलने से अधिक कष्टदायक है?

श्री रामकृष्ण- सफलता वह मापदंड है जो दुसरे लोग तय करते हैं। संतुष्टि का मापदंड तुम स्वयं तय करते हो।

नरेंद्र- कठिन समय में कोई अपना उत्साह कैसे बनाये रख सकता है?

श्री रामकृष्ण- हमेशा इस बात पर ध्यान दो कि तुम अब तक कितना चल पाये, बजाय इसके कि अभी और कितना चलना शेष रह गया है। जो कुछ प्राप्त हुवा है, हमेशा उसे गिनो, जो प्राप्त नहीं हो सका उसे नहीं।

नरेंद्र- लोगों की कौन सी बात आपको परेशान करती है?

श्री रामकृष्ण- जब भी वो कष्ट में होते हैं तो पूछते हैं ‘मैं ही क्यों’ ? जब वे खुशी में डुबे रहते हैं तो कभी नहीं सोचते हैं कि ‘मैं ही क्यों’।

नरेंद्र- मैं अपने जीवन का सर्वोत्तम कैसे प्राप्त कर सकता हूं?

श्री रामकृष्ण- विना किसी पश्चाताप के अपने अतीत का सामना करो! पुरे आत्मविश्वास के साथ अपने वर्तमान को संभालने का प्रयास करो! निर्भिक होकर अपने भविष्य की तैयारी करो!!

नरेंद्र- कभी कभी मुझे लगता है कि मेंरी प्रार्थनाऐं व्यर्थ जा रही हैं?

श्री रामकृष्ण- कोई भी प्रार्थना व्यर्थ नहीं है, अपनी आस्था बनाए रखो और भय को दूर रखो। जीवन एक रहस्य है, जिसे तुम्हें खोजना है! यह कोई समस्या नहीं है!!

सीख- जीवन में जब कोई समस्या हो, कोई शंका हो तो बुद्धिमान व्यक्ति मिलने पर उनसे अपनी शंकाओं का हल जान लेना चाहिए। समस्या का हल सही समय पर मिल जाए तो जीवन बदल जाता है।

पिता के अकस्मात् निधन के पश्चात जब घर में नरेन्द्रनाथ को दारूण दारिद्रय का सामना करना पड़ा, तब विवश होकर उन्हें श्री रामकृष्ण से मॉं काली से प्रार्थना करने को कहना पड़ा। किन्तु गुरूदेव ने उन्हें स्वयं जाकर मॉं से प्रार्थना करने को कहा। अपने इस अनुभव का उल्लेख करते हुए नरेंद्रनाथ ने बाद में कहां था- 

“मन्दिर में पहुंच मॉं की प्रतिमा पर दृष्टि डालते ही मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया कि मॉं चिन्मयी हैं! दिव्य प्रेम और अलौकिक सौंदर्य का शाश्र्वत स्रोत!! भक्ति और प्रेम के उत्ताल तरंगों से मैं अभिभूत हो गया। आनन्दातिरेक से विह्वल हो मैं बार-बार उन्हें साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना करने लगा- मॉं मुझे विवेक दो! वैराग्य दो! ज्ञान दो! भक्ति दो! नित्य निरन्तर तुम्हारा दर्शन पाता रहूॅं, ऐसा आशीर्वाद दो!!! मेंरी आत्मा में विलक्षण शक्ति छा गई! संसार विस्मृत हो गया! बस, केवल जगन्माता ही मेंरे हृदय में प्रकाशित हो रही थी।” 

विवेकानंद की गुरुभक्ति!

स्वामी विवेकानंद हमेशा कहा करते थे कि उनमें जो भी गुण और ज्ञान हैं, ये उनके गुरु का है। और जो भी कमी है वो स्वयं उनका है। उनकी गुरु भक्ति उनके रोम रोम में व्याप्त था। किसी मौके पर उन्होंने कहा है कि –

“बात यह है कि उनके शिष्यों ने उन्हें जैसा समझा वे उससे कहीं अधिक महान हैं। वे मुर्तिमान अनन्त आध्यात्मिक भाव हैं जो स्वयं को अगणित रुपों में व्यक्त करने में समर्थ है। भले ही किसी को भ्रम ज्ञान की अंतिम सीमा का बोध हो जाये, पर हमारे गुरुदेव की चेतना की अगाध गहराइयों को नाप लेना संभव नहीं। उनके एक कृपा-कटा  से शत-सहस्त्र विवेकानन्दों का पल भर में निर्माण हो सकता है। यदि उन्होंने मुझे निमित बनाकर स्वयं को अभिव्यक्त करने का निर्णय किया है तो मैं उनकी इच्छा के संमुख केवल प्रणत ही हो सकता हूं।”

गुरु के महासमाधि के पश्चात उनका मन व्यथित गया। वे भारत भ्रमण को निकल पड़े और घुमते हुवे कन्याकुमारी तक जा पहुंचे। स्वयं विवेकानंद ने यह कहा है कि तमिलनाडु के राजा सेतूपति ने उन्हें कन्याकुमारी जाने की सलाह दी थी। उन्होंने मॉं कुमारी के मंन्दिर में पूजा अर्चना की। उसके बाद मुख्य भुमि से अलग समुद्र के बीच स्थित चट्टान पर तैरकर चले गए। भारत के अंतिम शिलाखंड पर बैठकर उन्होंने अंतर्दृष्टि से अपने देश के उन्नति के शिखर से पतन की ओर गिरने को जाना। एक सरल संयासी अब एक महान सुधारक और संगठक में परिवर्तित हो गया था।

विवेकानंद ने एक दिन सपने में देखा कि श्री रामकृष्ण परमहंस समुद्र पार जा रहे हैं और उन्हें अपने पीछे आने का इशारा कर रहे हैं। उन्होंने सपने के विषय में मॉं सारदा को बताया और मार्गदर्शन मांगा। कुछ दिनो पश्चात मॉं सारदा ने भी एक सपना देखा। उन्होंने देखा कि रामकृष्ण गंगा के पानी के बीच जा रहे हैं और ओझल हो ग्रे। माता ने विचार करते हुए विवेकानंद को विदेश जाने का संदेश भेजा। उन्होंने कहलवाया कि उनके गुरु की इच्छा है कि वे विदेश भ्रमण करें।

सन 1893 का शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन कोलम्बस द्वारा अमेरिका के खोज करने के 400 वर्ष पुरा होने पर आयोजित समारोह का एक हिस्सा था। गुरु कृपा से अनेक बाधाओं के बावजूद विवेकानंद उस महासम्मेलन में भाग लेने में सफल हुवे। सम्मेलन में दिया गया उनका व्याख्यान युगों युगों तक याद रखा जाएगा। 2 नवम्बर 1893 को आलासिंगा को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा है-

“सभी देशों के लोग वहां थे। एक भव्य जुलूस में हमें मंच पर ले जाया गया। मंच के नीचे एक विशाल सभा भवन तथा ऊपर एक विशाल दीर्घा की कल्पना करो। देश की श्रेष्ठ संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले छ: या सात हजार नर नारियों से भरपूर सभा भवन और मंच पर पृथ्वी के सभी देशों के विद्वान।

.वे सभी लोग पूर्व तैयारी करके आये थे तथा उनके पास तैयार भाषण थे। मैं ही एक मुर्ख था जिसके पास कुछ नहीं था, किन्तु मैंने मन ही मन मॉं सरस्वती को प्रणाम किया और खड़ा हुवा तथा डाक्टर बेरोज ने मेंरा परिचय कराया। मैंने एक छोटा व्याख्यान दिया और जब यह समाप्त हुवा तब मैं लगभग चूर होकर बैठ गया।”

यह वो क्षण था जब  उनके व्यक्तित्व से सारा विश्व मुग्ध हो उठा था। इसके बाद के दिनों में वे पश्चिमी देशों में घुम घुमकर अनेक स्थानों पर व्याख्यान दिए। इससे भारतीय वेदान्त का तथ्य समस्त विश्व के समक्ष आया। ‘राजयोग’ नामक पुस्तक में उनके व्याख्यानों को संकलित किया गया है। 

28 फरवरी 1897 को एक स्वागत भाषण के उत्तर में स्वामी विवेकानंद ने कहा था-

“हमारे वीरों को आध्यात्मिक होना पड़ेगा। रामकृष्ण के रुप में हमें एक ऐसा नेता मिला है, यदि हम देश को ऊंचा उठाना चाहते हैं तो मेंरी इस बात को गांठ बांध लो कि इसे उत्साहपूर्वक उनके नाम के चारों ओर एकत्र करना होगा। अपनी जाति के कल्याण के लिए, अपने धर्म के कल्याण के लिए कर्तव्यरत होकर मैं यह आदर्श तुम्हारे सामने रख रहा हूं। मेंरे द्वारा उनका मुल्यांकन न करो। मैं उनका एक सामान्य उपकरण हूं। मुझे देखकर उनके चरित्र का मूल्यांकन न करो। वह इतना महान था कि मैं या उनके अन्य शिष्यगण सैंकड़ों जन्म बिता दें तब भी वे वास्तव जो थे उसके दस लाखवें भाग के प्रति भी न्याय नहीं कर सकेंगे।”

श्री रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य विवेकानंद ने 1 मई 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। मिशन की स्थापना का उद्देश्य वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार है। रामकृष्ण मिशन का ध्येयवाक्य है   “आत्मनोमोक्षार्थ जगद्हिताय च” , अर्थात् ‘अपने मोक्ष और संसार के हित के लिए।’  यह कोलकाता के बेलुर में स्थित है।

श्री रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य स्वामी विवेकानन्द भी उन्हीं के तरह ओजस्वी परन्तु सरल स्वभाव के धनी थे। उन्होंने कभी अपनी सफलता को मस्तिष्क पर हावी नहीं होने दिया। प्रसिद्ध होने के वावजूद खुद के विषय में उन्होंने कहा था; 

“आखिर मैं वो लड़का ही तो हूं जो दक्षिणेश्वर में वट वृक्ष के नीचे विस्मय-विमुग्ध हो श्री रामकृष्ण के अलौकिक वचनों को सुना करता था वही तो मेंरा सच्चा स्वभाव है। सेवा आदि सभी कार्यकलाप तो अध्यारोप मात्र हैं।”

विवेकानंद

विवेकानंद की शिष्या निवेदिता ने उनके संबंध में कहा है; “विद्वान तथा राजपुरुष उनसे जितना प्रेम करते थे उतना ही प्रेम करते थे साधारण अशिक्षित लोग। नाविक उनकी अनुपस्थिति में नदी की ओर देखता हुवा उनके वापस आने की प्रतीक्षा करता रहता। उनकी सेवा करने के लिए सेवक अतिथियों से भी भिड़ जाते और इन सबके बीच एक खेल का भाव सदैव बना रहता। वे ईश्वर के साथ ही लीला करते रहे हैं, यह भाव उन्हें स्वभावत: ही हो जाता। जिन्हें इस प्रकार का अनुभव है, उनका जीवन अधिक मधुर और परिपूर्ण हो जाता है।”

गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने स्वामी विवेकानंद के सम्बन्ध में कहा था, “यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये, उनमें आप सब-कुछ सकारात्मक पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं”।

श्री रामकृष्ण लीलाप्रसंग रामकृष्ण परमहंस की प्रामाणिक जीवनी ग्रन्थ है। श्री रामकृष्ण के संयासी शिष्य स्वामी सारदानंद ने इसकी रचना की है। “Ramakrishna the great master” के नाम से इस जीवनी ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है। हाल के दिनों में एक और अनुवाद “Ramakrishna and his devine play” के नाम से स्वामी चेतनानन्द के द्वारा किया गया है। पंडित विद्याभास्कर शुक्ल ने भी उनके विषय में  “जगमगाते हीरे” नामक एक पुस्तक लिखी है।

महान गुरु रामकृष्ण परमहंस एवम् महान शिष्य स्वामी विवेकानंद के विषय में पढंना किसी शास्त्र को पढ़ने के समान है। एवम् इनके निमित लिखना तो मानो सुरज को दीपक दिखाने के समान है। गुरु-शिष्य के इस अप्रतीम जोड़ी को युगों युगों तक याद किया जाएगा। इनके विचारों पर चिंतन किया जाय तो जीवन सरल हो सकता है। इस आलेख में देवतुल्य गुरु एवम् राष्ट्र गौरव शिष्य के संबंध में जो भी लिखा गया है! इसका आधार उनके संबंध में लिखे गये पुस्तकों के अध्ययन एवम् उनके संदर्भ में विद्वजनों के विचारों को जानने के उपरांत मिली जानकारी है। मेेंरे आदर्श पुरुष स्वामी तपेश्वरानंद से मुझे गुरु शिष्य के विषय में बहुत कुछ जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आशा करता हूं कि इन बातों का प्रभाव  सभी पाठकों के मन पर पड़ेगा और सभी उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकेंगे।