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व्यवहार कुशल होना जरुरी क्यों है…

व्यवहार एक मान्सिक प्रवृत्ति है, मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है। यह ऐसी क्रिया है जो किसी मनुष्य के द्वारा किया जाता है। वह प्रक्रिया है जो हम दुसरों के लिए काम में लाते हैं। विभिन्न परिस्थितियों में दुसरों के द्वारा हम पर जो क्रियात्मक पहल होती है, हमारे प्रति उनकी ओर से और उनके प्रति हमारी ओर से जो प्रतिक्रिया होती है, व्यवहार कहलाता है। यह हमेशा पारस्परिक होता है।

यह हमारी उम्मीद है जो दुसरों से हम रखते हैं। अपने मन से, वचन से या कर्म से दुसरों के साथ संपर्क बनाने के लिए हमारा जो भाव व्यक्त होता है, इससे ही हमें जाना-पहचाना जाता है। इस क्रिया को हम अनेक प्रकार से प्रगट करते है। इसे हम अच्छा-बुरा, शान्त-अशान्त, सामाजिक-व्यवसायिक आदि अनेक रुप में प्रगट करते हैं। अतः हमें हमेशा अपने व्यवहार को विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।

जीवन एक प्रतिध्वनि है!

जीवन में बहुत कुछ हमारे व्यवहार पर निर्भर करता है। जैसा सोचते हैं, हम जो कहते हैं, हम जो करते हैं, हम जैसे होते हैं, ठीक वैसा ही चारों तरफ से लौटना शुरू हो जाता है। आप जैसा व्यवहार दुसरों से करोगे, प्रतिक्रिया स्वरूप ठीक वैसा ही आपके पास लौटकर आयेगा।

कहा गया है कि दुसरों से वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए जो आप स्वयं पसंद नहीं करते हैं। मनुष्य के जीवन में व्यवहार का अत्यधिक महत्व है। अतः हमें इस गुण को विकसित करना चाहिए।

ओशो के शब्दों में; तुम्हारे मन में अगर किसी को भी दुख देने का जरा सा भी भाव है, तो तुम अपने लिए बीज बो रहे हो। क्योंकि तुम्हारा यह भाव तुम्हारे मन की भूमि में ही गिरेगा, किसी दुसरे के मन की भूमि में नहीं गिर सकता। बीज तो तुम्हारे भीतर है, वृक्ष भी तुम्हारे भीतर ही होगा। फल भी तुम्हीं भोगोगे।

हर परिस्थिति में अपने वर्ताव को सामान्य बनाये रखें!

अगर हम दुसरों के प्रति अच्छी सोच रखते हों। अपने मन से, वचन से, कर्म से किसी को भी आहत नहीं करते हों तो हमारे साथ भी हमेशा अच्छा ही होता है। हां कभी ऐसा भी होता है कि दुसरे हमारे साथ बुरा व्यवहार करते हैं। हमे कष्ट देने का प्रयास करते हैं। इन परिस्थितियों में भी हमारा वर्ताव वैसे लोगों के प्रति अच्छा बनाये रखना चाहिए। संत कबीरदास का यह दोहा इसी तथ्य को उजागर करता है।

जो तोको कांटा बुवै ताहि बोव तू फूल।

तोहि फूल का फूल है वोको है त्रिशूल।।

संत कबीर कहते हैं; जो तुम्हारे लिए कांटा बोता है, उसके लिए तुम्हें फूल बोना चाहिए अर्थात् जो तुम्हारे साथ बुरा व्यवहार करता है, तुम उसकी भलाई करो। तुम्हें फूल बोने के कारण फूल मिलेंगे और जो कांटे बोता है उसे कांटे ही कांटे मिलेंगे। तात्पर्य यह है, कि नेकी के बदले नेकी और बदी के बदले बदी ही मिलता है। यही प्रकृति का नियम है।

प्रत्येक क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है!

व्यवहार एक क्रिया है और प्रत्येक क्रिया का प्रतिफल उसके प्रतिक्रया के रुप में हमारे सामने आता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इसे समझा जा सकता है! जब दो वस्तु एक दूसरे पर पारस्परिक प्रभाव डालते है, तब पहले वस्तु के द्वारा दुसरे वस्तु पर लगाए जाने वाले बल को क्रिया और दुसरे वस्तु द्वारा पहले वस्तु पर लगाए जाने वाले बल को प्रतिक्रिया कहते है। यह सोचना ज़रूरी है कि क्रिया और प्रतिक्रिया हर समय दो अलग वस्तुओं पर लागू होती है।

गति का तृतीय नियम यह इंगित करता है की जब एक वस्तु किसी दुसरे वस्तु पर बल का प्रयोग करता है, तो तत्क्षण ही वह दूसरा वस्तु पहले वस्तु पर वापस बल लगाता है। प्रयोग किए गए दोनों बल परिमाण में बराबर होते है , पर दिशा में विपरीत। यह नियम हम सभी के साथ, हमारे व्यवहार पर भी लागू होता है।

एक कहानी है, संभवतः, यह सच भी हो।, क्योंकि यह संत तुकाराम से संबंधित है। एक समय की बात है, संत तुकाराम अपने आश्रम में बैठे हुए थे। तभी उनका एक शिष्य, जो स्वभाव से थोड़ा क्रोधी था उनके समक्ष आया और बोला, ” गुरूजी, आप कैसे अपना व्यवहार इतना मधुर बनाए रहते हैं, ना आप किसी पर क्रोध करते हैं और ना ही किसी को कुछ भला-बुरा कहते हैं, आपकी इस खुशी रहस्य क्या है? कृपया अपने इस अच्छे व्यवहार का रहस्य बताएं।

संत बोले, मुझे अपने रहस्य के बारे में तो नहीं पता, पर मैं तुम्हारा रहस्य जानता हूँ! मेरा रहस्य! वह क्या है गुरु जी? शिष्य ने आश्चर्य से पूछा। ” तुम अगले एक हफ्ते में मरने वाले हो!, संत तुकाराम दुखी होते हुए बोले। कोई और कहता तो शिष्य इस बात को मजाक में टाल सकता था, पर स्वयं संत तुकाराम के मुख से निकली बात को कोई कैसे काट सकता था?

शिष्य उदास हो गया और गुरु का आशीर्वाद ले वहां से चला गया। उस समय से शिष्य का स्वाभाव बिलकुल बदल सा गया। वह हर किसी से प्रेम से मिलता और कभी किसी पे क्रोध न करता, अपना ज्यादातर समय ध्यान और पूजा में लगाता। वह उनके पास भी जाता जिससे उसने कभी गलत व्यवहार किया हो और उनसे माफ़ी मांगता।

देखते-देखते संत की भविष्यवाणी को एक हफ्ते पूरे होने को आये। शिष्य ने सोचा चलो एक आखिरी बार गुरु के दर्शन कर आशीर्वाद ले लेते हैं। वह उनके समक्ष पहुंचा और बोला, ” गुरु जी, मेरा समय पूरा होने वाला है, कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिये!” “मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है पुत्र। अच्छा, ये बताओ कि पिछले सात दिन कैसे बीते ? क्या तुम पहले की तरह ही लोगों से नाराज हुए, उन्हें अपशब्द कहे ?”, संत तुकाराम ने प्रश्न किया।

नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं। मेरे पास जीने के लिए सिर्फ सात दिन थे, मैं इसे बेकार की बातों में कैसे गँवा सकता था? मैं तो सबसे प्रेम से मिला, और जिन लोगों का कभी दिल दुखाया था उनसे क्षमा भी मांगी , शिष्य तत्परता से बोला।

संत तुकाराम मुस्कुराए और बोले, “बस यही तो मेरे अच्छे व्यवहार का रहस्य है। मैं जानता हूँ कि मैं कभी भी मर सकता हूँ, इसलिए मैं हर किसी से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता हूँ, और यही मेरे अच्छे व्यवहार और मेंरी प्रसन्नता का रहस्य है”।

शिष्य समझ गया कि संत तुकाराम ने उसे जीवन का यह पाठ पढ़ाने के लिए ही मृत्यु का भय दिखाया था, उसने मन ही मन इस पाठ को याद रखने का प्रण किया और गुरु के दिखाए मार्ग पर आगे बढ़ गया।

प्रतिरोध और प्रतिशोध में अंतर है!

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमेंं समाज में रहते हुए अनेकानेक विषयों में लिप्त होना पड़ता है। सामाजिक, व्यवसायिक क्षेत्र में उतर कर परिश्रम करना पड़ता है। ऐसे में हमारा व्यवहार, वर्ताव, आचरण अथवा स्वभाव हमारे जीवन को प्रभावित करता है। ‌‌‌‌‌हमारा वर्ताव आंतरिक चीजों से अधिक बाहरी वातावरण से प्रभावित होता है। ऐसे में हमें अपने वर्ताव के प्रति सावधानी बरतना चाहिए।

अगर हमारे लिए कोई परेशानी खड़ा करता है तो हमें परेशान नहीं होना चाहिए। अगर आपके साथ कोई गलत कर रहा हो तो उसका प्रतिरोध किजिए। परन्तु प्रतिशोध का भाव मन में नहीं लाना है। उसके आचरण के विरोध में हमें अपने अच्छे स्वभाव नहीं खोना चाहिए। लेकिन हम किसी के बुरे व्यवहार को अपने मन मस्तिष्क में जगह दे देते हैं और स्वयं को आहत कर देते हैं।

अगर बदले की भावना से प्रेरित होकर प्रतिक्रिया करो तो परस्पर क्रिया प्रतिक्रिया का जंग शुरू हो जाता है और उभय पक्ष स्वयं के साथ साथ समाज का भी नुकसान करने लगते हैं। अगर बुरा करनेवाले से बदला ना भी लो, फिर भी खुद का मन अशांत तो हो ही जाता है। हमेशा संयम बनाए रखिए!

प्रतिरोध का सरल उपाय है कि आप किसी के गलत वर्ताव को मन मस्तिष्क में जगह नहीं दें। अगर आप ऐसा कर पाने में कामयाब होते हैं तो प्रतिक्रिया स्वरुप आप उसका नुकसान करने की सोचेंगे ही नहीं। फिर क्या होगा? अगला जो आपके प्रति किया है वो लौटकर पुनः उसी के पास चला जायेगा। उसने जो कहा, उसने जो सोचा, उसने जो किया आपने उसे लिया ही नहीं।

आप जो सोच रहे हैं उसके प्रति, अगर अच्छा सोच रहे हैं, आपका व्यवहार उसके प्रति अच्छा है, फिर भी अगर वो आपका बुरा ही सोचता है तो तो उसे सोचने दिजिए। उसके सोच का नतीजा उसे ही भुगतना पड़ेगा। उसकी सोच लौटकर लौटकर उसी के पास चली आयेगी और हमारा मन मस्तिष्क शान्त बना रहेगा। उसकी सोच उसका व्यवहार का जो नुकसान होगा, वह उसके साथ होगा। जो जैसा सोचेगा उसके साथ वैसा ही होगा।

अच्छा या सभ्य व्यवहार का सार किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के भावनाओं को आहत किये बिना अपना प्रभाव को बनाये रखना होता है। दुसरों के प्रति अपने मनोभावों को अच्छे स्वभाव यानी कि सद्भभाव में बदल लेना चाहिए। स्वयं को ऐसा बना लेना चाहिए कि यदि कोई हमें बुरा भी कहे तो अन्य उसपर विश्वास न कर सकें। जानकारों का कहना है कि अच्छे व्यवहार का कोई आर्थिक मोल भले ही ना हो, परन्तु यह करोड़ों दिलों को खरीदने का शक्ति रखता है,  यह ऐसा गुण है जो करोड़ो दिलों पर राज करने का सामर्थ्य होता है। 

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7 thoughts on “व्यवहार कुशल होना जरुरी क्यों है…”

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