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कामना का अर्थ क्या है — Meaning of Desire

कामना एक मनोवृति है !

जब कोई किसी चीज को पाने की इच्छा करता है, तो इसे कामना समझा जाता है।  मन की इच्छा का प्रबल रुप कामना है। यह हर किसी के मन में किसी ना किसी रूप में मौजूद होता है। अपने शुद्ध स्वरुप में कामना उन्नतिशील और ज्ञान के अभाव में पतनशील हो जाता है। संत कबीरदास कहते हैं ‘झुठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद’ ! अर्थात् मनुष्य भौतिक संसाधनों, धन-दौलत से प्राप्त होने वाले क्षणिक सुख को ही सुख समझ लेता है। इसी क्षणिक सुख को भोगने में अपना सारा जीवन लगा देता है। उसके भोग में अंधा होकर मन ही मन प्रसन्न होते रहता है। 

मन की इच्छाएं अनंत हैं, और मनुष्य की इंद्रियां इसके इच्छानुसार ही संचालित होती हैं। वह इन्द्रियों के द्वारा अपनी कामनाओं को पूर्ण करना चाहता है। परन्तु इन्द्रियों से प्राप्त सुख क्षणिक ही होता है। और ज्ञान के अभाव में क्षणिक सुखों को प्राप्त करना ही वह जीवन का उद्देश्य समझता है। एक मिल गया, एक जरूरत पुरी हो गई तो दुसरे की दौड़ शुरू हो जाती है। 

साधारण मनुष्य इन्द्रियगत वस्तुओं में ही सुख ढुंढ रहा होता है। इन्द्रियगत वस्तुओं से अधिक लगाव कामना की विकृति का कारण होता है। इन वस्तुओं से सुख की चाहत उसके मन में लोभ उत्पन्न करता है। इन्द्रियों को बहुत अधिक महत्व देने से काम उत्पन्न होता है। मन की इच्छाओं को अधिक महत्व देने से मोह उत्पन्न होता है। साधारण मनुष्य मन की इच्छाओं को पकड़ कर रखता है। और मनुष्य चाहता है कि सब-कुछ उसकी इच्छा के अनुसार हो। ऐसा नहीं होने पर उसके मन में क्रोध उत्पन्न होता है। लोभ, मोह, काम और क्रोध के प्रभाव में आकर वह असीम चेतना को समझने में असमर्थ होता है।

ओशो के शब्दों में ” तुम जो मांगते हो, उससे दुगुना भी मिल जाए, तो दौड़ नहीं मिटती। तुम्हारे जीवन की व्यवस्था शिकायत है। और जबकि इतना मिला है कि काश, तुम उसे देख सको। और तुम्हारी विना किसी पात्रता के मिला है। तुमने अर्जित नहीं किया है। काश! तुम उसे देख सको तो आभार उठे, आनंद का! तुम्हारे भीतर संगीत गुंजे, यही प्रार्थना है! यही प्रार्थना व्यक्ति के जीवन में अमृत रस घोल देती है।”

मनोकामना और महाशंख !

ओशो इस बात को एक कहानी से समझाते हैं ! एक आदमी ने बहुत दिन तक परमात्मा की पूजा की। फिर परमात्मा प्रगट हुए। उस आदमी ने वरदान मांगा कि मैं जब भी जो मांगु, मुझे मिल जाए। पास ही शंख था पूजा गृह में, परमात्मा ने उठाकर दे दिया। और कहा कि इसे संभाल, जो मांगोगे मिल जायगा! यह कहकर परमात्मा चले गए। उस आदमी ने तत्क्षण शंख से कहा, एक लाख रूपया! एक लाख मिल गया। धूरे के भाग्य फिरे! उसने महल पर महल बनाये, बहुत धन की वर्षा हुवी। मगर बैचेनी जैसी थी वैसी की वैसी बनी रही। आशाएं पुरी होने लगीं,  पर निराशा में कोई कमी नहीं आई। अब जो मांगता वह मिल जाता, पर क्या जो मांगो वो मिल जाय, उससे हल होता है ? मन कहता है! और मांग एक महल से क्या होता है ? दो मांग! दो से क्या होगा ? लाख मांगे मिल गये, ठीक है! रोज जो मांगता मिल जाता, लेकिन परमात्मा को उसने धन्यवाद नहीं दिया।

एक रात एक संन्यासी उसके घर में मेंहमान हुवा। संन्यासी ने यह देख लिया कि उसके पास शंख है, वह जो मांगता है, मिल जाता है। सन्यासी ने कहा यह शंख कुछ भी नहीं, मेंरे पास महाशंख है। उस आदमी ने पूछा: महाशंख की क्या खुबी है ? संन्यासी ने कहा: तुम जितना मांगो उससे दोगुना देता है। लाख मांगो तो दो लाख देता है। लोभ बढ़ा! उस आदमी ने कहा: आप तो संन्यासी हैं, त्यागी हैं, आपको क्या करना! आप मेंरा शंख ले लो, मुझ गरीब को महाशंख दे दो। उस जैसा कोई अमीर नहीं था, पर वह कहता है: मुझ गरीब को महाशंख दे दो। सन्यासी ने महाशंख दे दिया। 

महाशंख बिल्कुल जैसा संन्यासी ने कहा था वैसा ही था। उसे कहो, लाख रुपया दो! वह कहे, लाख क्या करोगे, अरे दो लाख ले लो। उससे कहो, अच्छा दो लाख दे दो भइया! वह कहे, दो क्या करोगे चार ले लो। वह बस बात ही करे! लेने देने का कोई सवाल ही नहीं। लेकिन तब तक संन्यासी जा चूका था। संन्यासी के कमरे में जाकर देखा, संन्यासी तो शंख लेकर नदारत हो गया था। यह महाशंख पकड़ा गया। महाशंख एक तरह का राजनेता रहा होगा। तुम जितना कहो, उससे दुगुना ले लो। लेना-देना कुछ भी नहीं है! लेन-देन की बात ही मत उठाओ! बस, वह दोगुना करता ही चला जाए।

तुम्हारा मन शंख भी है और महाशंख भी। तुम जो मांगते हो, वह मिल जाए, तो ‘और’ की दौड़ नहीं मिटती। तुम जो मांगते हो, उससे दोगुना भी मिल जाए, तो भी दौड़ नहीं मिटती। दौड़ बढ़ती ही चली जाती है। लोग दौड़ते दौड़ते अपनी कब्रों में गिर जाते हैं। मंजिल आती कहां है, कब्र आती है। जीवन के लिए धन्यवाद नहीं उठता, लेकिन शिकायतें उठती हैं।  इतना क्यों नहीं दिया! यह क्यों नहीं हुवा ? तुम्हारी जीवन की व्यवस्था शिकायत है। 

देह धरे का दंड है सब काहू को होय। ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।

कबीर कहते हैं ; यह जो शरीर है दंड देनेवाला है, दुख देनेवाला है। सुख भोग की कामना, भोग को भोगना ही इस शरीर का दंड है। और यह दंड सभी को बार बार भुगतना पड़ता है। अंतर सिर्फ इतना है कि ज्ञानी इसे संतुष्टि से भोगते हैं और अज्ञानी दंड स्वरुप भोग को रोते-रोते झेलते हैं। अज्ञान के अंधेरे में जीवन में हाय हाय लगा रहता है।

जीवन का आनंद कैसे उठाएं – Jeevan Ka Anand Kaise Uthayein 👈

काजल केरी कोठरी मसि कर्म कपाट। पाहनी बोई पृथ्वी पंडित पाड़ी बात।।

मनुष्य में कामना का अपने विकृत रुप में होना ही समस्त दुखों का जड़ है। कबीरदास जी कहते हैं यह संसार काजल की कोठरी है। यह जो सांसारिक कर्म होते हैं, ये कर्म रुपी कपाट कालिमा के ही बने हुवे हैं। इन कर्मजनित दुखों से छुटकारा पाने के लिए जीवन में भक्ति का, प्रार्थना का होना जरूरी है। कामना जनित कष्टों से मुक्ति के लिए कामना रहित कर्म का होना जरूरी है। यही कारण है कि ज्ञानियों ने पत्थर की मुर्तियां स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है। जिसके जीवन में प्रार्थना है, वही वास्तव में सुख है।

जीवन यात्रा में पुरुषार्थ का होना जरूरी है। बाहर की यात्रा हमें अनेक प्रकार की सफलताएं अवश्य दिलाता है। भौतिक सुखों की कामना हो तो इसके लिए प्रयास करने ही होते हैं। परन्तु इनसे आनंद नहीं मिलता, मन को शान्ति नहीं मिलती। अगर मन की शांति अभीष्ट हो तो भीतर की यात्रा करनी होगी। संतुष्टि किसी पदार्थ में नहीं, इनसे मिलने वाला सुख क्षणिक होता है। जीवन का आनंद लेना हो तो, उसके भीतर की गहराई में उतरने का पुरुषार्थ करना पडेगा। समन्दर की गहराइयों में उतर कर मोती निकालना पड़ेगा।

संतोष क्या है ..! What is satisfaction ! 👈

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषू कदाचन। मा कर्मफलहेतूर्भूर्मा ते संड्गोऽस्त्वकर्मणि।।२.४७।।

पवित्र गीता के इस श्लोक में कामना रहित कर्म करने की बात कही गई है। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है; कि कर्म करने में तेरा अधिकार है! कर्म के परिणाम में नही। तू कर्मफल का हेतु वाला मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।

ध्यान क्या है जानिए ! Know what is meditation.👈

मनुष्य का कर्म करने में ही अधिकार होता है, उसके परिणाम में नहीं। अतः किसी भी अवस्था में कर्मफल की कामना के साथ कोई कर्म नहीं करना चाहिए। अगर कामना से वशीभूत होकर कर्म होता है,  तो कर्मफल की प्राप्ति का कारण भी कर्ता ही होता है। ऐसा कर्म बंधन का कारण होता है, मुक्ति का नहीं।

अब प्रश्न ये कि अकर्मन्य नहीं होना है, और  कर्म फल की कामना भी नहीं करना है तो कर्म होगा कैसे?कर्मयोग का रहस्य : secret of Karma yoga इस असमंजस की स्थिति को सरलता से लें, और हर कर्म को, हर कर्तव्य को सफलता-असफलता की चिंता किये वगैर करने का प्रयत्न करें। वैराग्य भाव से अपने समस्त दायित्वों का निर्वहन ही मानव का कर्त्तव्य है। वैरागी मन क्या है जानिए ! Know what is the recluse mind इस बात को समझने के लिए आत्मचिंतन की आवश्यकता है, आत्मज्ञान की आवश्यकता है। क्योंकि चेतना को जगाये विना बंधनों से, कामना से, दुखों से मुक्ति नहीं मिल सकती। जिसके जीवन में ध्यान का दीपक जला है, उसका मन कामना से मुक्त हो जाता है। 

भगवान बुद्ध ने कहा है कि सहजता पर ध्यान केंद्रित करो और जो सरल है, सुगम है, उसे जियो, अहंकार के आकर्षण में मत पड़ो। महात्मा बुद्ध जीवन में परमशांति को ही मुक्ति माना है, जिसे उन्होंने मोक्ष कहा है।

कामना, वासना, रोग और दुख के जाल में उलझे मानव को मुक्ति दिलाने की वेदना से व्यथित राजकुमार सिद्धार्थ सबकुछ त्याग कर इस बात को समझने के लिए निकल पड़े।वेदना का अर्थ क्या है ! What is the meaning of anguish उस कर्मपथ पर निकल पड़े जहां से उन्हें मानव को मुक्ति दिलाकर मोक्ष के द्वार तक पहुंचाया जा सके। बर्षों के कठिन तप और चिंतन के पश्चात अंततः उन्हें इस बात की समझ आ गई। निरंतर साधना में लीन होकर उन्होंने स्वयं को परम ऊर्जा से जोड़ा। उनके अन्तर्तम में परम प्रकाश के प्रगट होते ही उनका मन शांत हो गया और वे बुद्ध हो गये। 

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