ध्यान की धारा का अर्थ क्या है?
‘ध्यान की धारा’, इस वाक्यांश में दो विपरीत प्रकृति के
शब्दों का प्रयोग हुआ है। एक है ‘ध्यान और दुसरा है ‘धारा’। ध्यान एक क्रिया है, और धारा में भी क्रिया है। एक की प्रकृति में स्थिरता है, और दुसरे की प्रकृति में गतिशीलता। फिर दो विपरीत प्रकृति के शब्दों का एक साथ प्रयोग करने का आशय क्या है? अगर ‘ध्यान’ और ‘धारा’ दोनों को मन के साथ जोडकर देखा जाए, तो ‘ध्यान की धारा’ का आशय समझ में आ सकता है।
‘ध्यान’ तो मन का विषय है ही, ‘ध्यान की धारा’ को समझने के लिए ‘धारा’ को भी मन के साथ जोडकर देखना होगा। ‘ध्यान’ मन को एकाग्र करने की क्रिया है। ध्यान की क्रिया में विचारों के प्रवाह को स्थिर करने का प्रयत्न किया जाता है। अर्थात् ‘ध्यान क्रिया का उद्देश्य मन की स्थिरता है। और ‘धारा’ में गतिशीलता है, यह प्रवाहित होती है। मन में विचारों का प्रवाह होता रहता है। ‘धारा’ का संबंध विचारों के प्रवाह से है, मन की चंचलता से है।
अब जरा सोचिए, स्थिरता के विपरीत की स्थिति है चंचलता। जहां स्थिरता का प्रभाव होता है, वहां चंचलता का कोई अस्तित्व नहीं होता। जिस प्रकार जहां उजाला होता है, वहां अंधेरा नहीं होता। तो फिर ‘ध्यान की धारा’ का क्या आशय हो सकता है? कुछ तो है, जो छुपा हुवा है। कुछ तो है, जो विचार के योग्य है।
ध्यान की जो क्रिया है, इसे बारम्बार, दिन-प्रतिदिन, महीनों तक, सालों तक करना पड़ सकता है। अर्थात् ध्यान निरंतर और नियमित अभ्यास करने की प्रक्रिया है। प्रक्रिया अपने आप में एक श्रंखला है, क्रियाओं की धारा का ऋंखला। किसी प्रकिया विशेष मे दिन-प्रतिदिन की क्रियाओं से क्रियाओं की ऋंखला का निर्माण हो जाता है। बारम्बार की जानेवाली ध्यान की क्रिया से क्रियाओं की धारा का प्रवाह होता है। और प्रत्येक धारा नए विचारों को प्रतिपादित करती है। जिन विचारों से मन ग्रसित होता है, उन विचारों का शोधन होता चला जाता है। और मन सकारात्मक विचारों की ओर अग्रसर हो जाता है। यह जो प्रक्रिया है, नित नए विचारों के प्रवाह की प्रक्रिया, इसे ‘ध्यान की धारा’ कहा जा सकता है।
यह जो धारा है, तब तक प्रवाहित होती रहती है, जब तक विचारों का प्रवाह थम न जाए। अर्थात् किसी एक विचार पर आकर स्थिर न हो जाए। जब विचारों का प्रवाह में विराम लग जाता है, तो कोई एक विचार पर मन एकाग्र हो जाता है। मन शांति की दशा को प्राप्त कर लेता है। और यही ध्यान की क्रिया का उद्देश्य भी है। मन में उमड़ घुमड़ रहे विचारों पर विराम लगाना ही ध्यान की क्रिया का उद्देश्य होता है।
जीवन में ‘ध्यान की धारा’ प्रवाहित हो, यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि मन में विचारों का प्रवाह तो होता रहता है। और सामान्यत: मन में विचारों का प्रवाह मन की आकांक्षाओं के अनुरूप होता है। भौतिक वस्तुओं के द्वारा सुख भोग की आकांक्षा, महत्व की आकांक्षा आदि आकांक्षाओं के अनेक रूप होते हैं। यह जो आकांक्षाएं हैं, लालसाओं को जन्म देती हैं। और यह जो लालसा है, अगर पुरी न हो, तो क्रोध, चिंता, अवसाद में परिवर्तित हो जाती है। मन अशांत हो जाता है, यह नकारात्मक स्थिति है, जो दुख का कारण बन जाता है।
विचारो के प्रवाह पर लगाम जरूरी है।
अतः जीवन में ‘ध्यान की धारा’ का होना जरूरी है। और इसके लिए ‘विचारों के प्रवाह’ को रोकना जरूरी है। मन को अनेक तल में बांटकर देखा-समझा जा सकता है। मुख्यतः तीन तलों में बांटकर विचार करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए सागर को तीन तलों में बांटकर देखा जाए। तो ऊपरी जो सतह है, लहरें मचलती रहती हैं। बीच का तल में हलचल की मात्रा कम होती है। और भीतर तल में हलचल नहीं के बराबर होती है। सागर का भीतरी तल शांत और स्थिर होता है।
ऐसा ही मन के साथ होता है। मन को समझना और स्वयं को समझाना जरूरी है। इसके लिए मन के ऊपरी सतह से भीतरी सतह तक की यात्रा जरुरी है। बात दुसरो की नहीं, खुद के मन को समझने की है। एक पुरानी कहावत है कि ‘आप भला तो जग भला’। जो स्वयं का भला नहीं कर सकता, वो दुसरे का भला नहीं कर सकता है। जो खुद को नहीं सुधार सकता, वो दुसरे को कैसे सुधार सकता है?
लेकिन यह होगा कैसे? यह जोर-जबरदस्ती से नहीं होगा, दबाव डालने से नहीं होगा। मन के ऊपरी सतह पर जो विचार होते हैं, अपनी लालसाओं को तुष्ट करने के लिए उमड़ती घुमड़ती रहती हैं। आकांक्षाओं, लालसाओं से प्रभावित मन की भावनाएं बलवती होती हैं। जोर-जबरदस्ती से रोकने की कोशिश हो, तो और अधिक बलवती हो जाती हैं। यह नदी की उमड़ती घुमड़ती तीव्र धारा को प्रवाहित होने से रोकने के समान है। नदी की धारा को बांधा तो जा सकता है, लेकिन अगर बांध टुट गया तो अनिष्टकारी हो जाता है। ‘विचारों के प्रवाह, के साथ भी ऐसा ही होता है, जोर-जबरदस्ती से लाभ की जगह हानि की संभावना अधिक होती है।
अतः ‘विचारों के प्रवाह को रोकना’ तो जरूरी है। लेकिन इसके लिए मन में चल रहे विचारों को शोधित करना जरूरी है। ‘सोच की दिशा’ को मोड़कर अंतर्मुखी करना जरूरी है। यह नियमित अभ्यास करने से ही संभव हो सकता है, निरंतर प्रयास से ही संभव हो सकता है। और यह जो नियमित अभ्यास की क्रिया है, निरंतर प्रयास की क्रिया है, ध्यान की क्रिया का पुरक तत्त्व है। ध्यान क्रिया के द्वारा मन में ‘ध्यान की धारा’ को प्रवाहित किया जा सकता है।
लेकिन ऐसा होता क्यों नहीं है? अगर ऐसा हो पाता, तो बात ही कुछ अलग होता। मन क्लेश से, इर्ष्या से, क्रोध से ग्रस्त नहीं होता। मन में लालसा नहीं होती, चिंता नहीं होती। अगर मन के पटल पर ‘ध्यान की धारा’ का प्रवाह हो पाता तो, जीवन में दुख नहीं होता, शांति होती, सुख होता। लेकिन ऐसा होता नहीं है। जीवन में दुख इसलिए है, क्योंकि जीवन में ‘ध्यान की धारा’ का प्रवाह नही
लेकिन ऐसा होता क्यों नहीं है? इस पर विचार की जरूरत है। वो इसलिए कि या तो ध्यान क्रिया का अभ्यास नहीं किया जाता। या फिर जोर जबरदस्ती से विचारों के प्रवाह को रोकने का प्रयास होता है। या तो मन की आकांक्षाओं के अनुरूप कार्य होता है, या फिर इच्छाओं का दमन करने का प्रयास होता है। मन की सभी इच्छाओं की तुष्टि कभी होती नहीं है। और अगर इच्छाओं का दमन किया जाए तो और बलवती होती चली जाती हैं। दोनों ही स्थितियां दुख का कारण है। अगर कभी सुख की स्थिति आता भी है, तो यह क्षणिक होता है।
अब जरा सोचिए! आखिर यह होगा कैसे? जब ध्यान की बात कही गई है। यह केवल कही हुवी बात नहीं है, प्रमाणित भी है। संसार में अनेक महापुरुषों का अवतरण हुआ है, जिनके जीवन में ‘ध्यान की धारा’ प्रवाहित हुआ है। लेकिन साधारण मनुष्य के लिए ऐसा कर पाना कठिन जरूर है। कठिन इसलिए कि साधारण मनुष्य मन के मतानुसार कार्य करता है।
भोग की लालसा, महत्व की आकांक्षा के साथ ही साथ उसे अनेक दायित्वों का भी निर्वहन करना पड़ता है। उसका ध्यान बस इन्हीं गतिविधियों में लगा रहता है। ध्यान तो उसके जीवन में भी होता है, लेकिन ध्यान का दिशा सांसारिक गतिविधियों की ओर होता है। उसके मन में जो विचारों का प्रवाह होता है, सांसारिक होता है। इसमें भी कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जो पुरे मन से कार्य कर पाते हैं। और कभी ऐसा भी होता है कि आकांक्षाओं को पूरा करते करते, दायित्वों का निर्वहन करते करते, मन विरक्त भी हो जाता है। लेकिन यह विरक्ति भी क्षणिक ही होता है। कुल मिलाकर सांसारिक गतिविधियों के प्रति वह आसक्त और विरक्त होता रहता है। लेकिन सांसारिक गतिविधियों में रहते हुए भी ‘ध्यान कि धारा’ की तरंगें मन में प्रवाहित हो सकती हैं।
अगर ऐसा हो सके, तो आकांक्षाओं को दमित करने की आवश्यकता नहीं होगी। धीरे-धीरे मन उस अवस्था को प्राप्त कर सकता है कि जो जरुरी हो उसके लिए ही प्रयास हो। दायित्वों का निर्वहन करने की ऊर्जा का भी उद्भव होने लगता है। यह मध्य की अवस्था है, मन के मध्य तल की अवस्था है। इस अवस्था में ‘विचारों का प्रवाह’ में संतुलन होता है। क्या करना चाहिए, और क्या नहीं करना चाहिए, इस पर विचार होता है। और विचार के बाद जो कार्य होता है, पुरे मन से होता है। कार्यों के प्रति उदासीनता नहीं होती और ना ही परिणाम का चिंता होती है। क्योंकि सोच की दिशा सही होती है, इसलिए सार्थक परिणाम की संभावना भी प्रबल हो जाती है।
लेकिन यह होगा कैसे? बिल्कुल हो सकता है, क्योंकि साधारण से ही असाधारण बनने तक की यात्रा तय होती है। प्रयास करना महत्वपूर्ण है, पुरे मन से प्रयास हो तो कुछ भी असम्भव नहीं होता। लेकिन प्रयास समुचित ज्ञान के साथ होना चाहिए। ज्ञान कर्म से विमुख नहीं करता है, दायित्वों के निर्वहन से विमुख नहीं करता है। हां ज्ञान लालसा को नियंत्रित अवश्य करता है, महत्व की आकांक्षा को नियंत्रित करता है। ज्ञान के साथ जो कर्म होते हैं, कर्म के लिए जो प्रयास होते हैं, सार्थक होते हैं।
साधारण से ही असाधारण बनने तक की यात्रा की शुरुआत होती है।
संसार में रहकर भोग से अलग नहीं रहा जा सकता है।
तन और मन की जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्म करना ही पड़ता है। भिन्न भिन्न दायित्वों का निर्वाह के लिए क्रियाशील रहना पड़ता है। ज्ञान इसके लिए बाधा उत्पन्न नहीं करता है। ज्ञान से परिश्रम करने की समझ, उत्साह और लगन का विकास होता है। हां ज्ञान अनुशासित करता है, मन को संतुलित करता है। ज्ञान भोग से रोकता नहीं है, इन्द्रिय सुख भोग हो अथवा दायित्वों का निर्वहन हो, इसके लिए कोई रोक नहीं है।
अगर ऐसा होता, तो पूजा प्रक्रिया में भोग लगाने का विधान नहीं होता। आखिर वस्त्र-आभुषण अर्पित करने का, श्रंगार क्रिया का आशय क्या है? पुष्प अर्पित करने का, मन्त्रोचारण करने का आशय क्या है? धुप दिखाने का, दीप प्रज्ज्वलित करने का और नैवेद्य अर्पित करने का अर्थ क्या है? इन क्रियाओं का अर्थ है और इनमें उद्देश्य भी निहित है। सीधा और सरल संदेश यह है कि भोग महत्वपूर्ण है, और भोग से योग की ओर अग्रसर हुवा जा सकता है।
पूजा प्रक्रिया में चंदन, गूलाब आदि गंधयुक्त पदार्थों का उपयोग किया जाता है। सुस्वादिष्ट एवम् स्वास्थ्यवर्धक फल एवम् भोज्य पदार्थों का उपयोग किया जाता है। रंग बिरंगे खिले हुवे पुष्प अर्पित किए जाते हैं। शंखनाद, एवम् वाद्ययंत्रों से कर्णप्रिय ध्वनि गुंजायमान होती है। आराध्य को वस्त्र-आभुषण अर्पित किए जाते हैं एवम् साज-सज्जा, ऋंगार का भी विधान है। ये सब जो विधियां हैं, मनभावन हैं। जो मन को भाते हैं, जो इन्द्रिय सुख का विषय है, उसी भाव से ही आराध्य की आराधना की जाती है।
पुष्प अर्पण में स्पर्श का भाव होता है, धूप आदि का प्रयोग गंध का अर्थात् नासिका का विषय है। साज-ऋंगार दृश्य का अर्थात् आंखों का, तो भोज्य पदार्थों का चढ़ावा स्वाद का विषय है। वहीं शंखनाद, मंत्रोच्चारण आदि कर्णप्रिय विषय है। मंत्रोच्चारण में सकारात्मक शब्दों का प्रयोग होता है। वहीं दीप प्रज्ज्वलित करना कुमति से सुमति की ओर अग्रसर होने का संकेतक क्रिया है। किसी को इन क्रियाओं में आडम्बर दिखता होगा, ये सोच की दृष्टिकोण पर निर्भर है। आडम्बर ही सही, परन्तु इस आडम्बर में आचार निहित होता है, अनुशासन निहित होता है।
और जरा सोचिए! यह जो विभिन्न पदार्थों का अर्पण किया जाता है, किसे किया जाता है। मंत्रोच्चारण किया जाता है, या मन की कामनाओं को अभिव्यक्त किया जाता है, किससे किया जाता है। दीप जलाकर किसके लिए उजाला प्रकाशित किया जाता है। इसका उत्तर तो यही है कि आराध्य के मुर्त रुप को। लेकिन वास्तव में यह सबकुछ स्वयं के लिए किया जाता है। एक प्रतीक के रूप में आराध्य के मुर्त रुप को सामने रखकर आराधना की जाती है। परन्तु स्वयं से ही बातें होती हैं, स्वयं को ही भोग लगाया जाता है। और यह जो ‘स्वयं’ है, मन का शुद्ध स्वरूप है, जिसे आत्मा की संज्ञा दी गई है। और शास्त्रों में आत्मा को परमात्मा का अंश बताया गया है। पुजा करते समय जो भी क्रिया कलाप किया जाता है, जो भी विचार शब्द में परिवर्तित होते हैं, प्रतिक्रिया में उसी स्वरूप में वापस खुद को ही प्राप्त होता है।
शास्त्रों में जो विधि-विधान का उल्लेख मिलता है, जीवन को सही दिशा में जीने का आचार संहिता है। नित्यक्रिया की विधि, पुजा-पाठ, प्रार्थना-आराधना, योग-ध्यान सब इसी आचार संहिता का अंग है। नियमबद्ध होकर जीवन व्यतीत करना हर किसी के लिए उत्तम होता है। इस विषय पर ध्यान देना हर किसी के लिए आवश्यक है। आचार से व्यवहार को सुधारने में सहायता मिलती है। जीवन संयमित ढंग से जीने का विचार प्रबल होता है। ‘ध्यान की धारा’ की तरंगों से प्रभावित विचारों का प्रवाह सही दिशा की ओर अग्रसर हो जाता है। और जीवन सुखमय हो जाता है, जीवन जीना सरल हो जाता है। परेशानियां तो आती हैं, परिस्थितियों से संघर्घ भी करना पड़ता है। लेकिन इन सब चीजों से मन चंचल नहीं होता है, परिस्थितियों को संभालने की ऊर्जा विकसित होती है।
‘ध्यान की धारा’ में कामना भी है, वासना भी है, लालसा भी है। और आचार भी है, व्यवहार भी है, कर्तव्यनिष्ठा भी है। ध्यान की धारा में आराधना भी है, भक्ति भी है, योग भी है और वैराग्य भी है। चिंतन भी है, और ज्ञान के खोज की प्रवृत्ति भी है। किसी ने पेड़ से फल को नीचे धरातल पर गिरते देखा। देखते तो सभी थे, लेकिन बात ध्यान देने की है। जिसने ध्यान लगाया इस घटना पर उसने खोजा। उसके खोजने का प्रयास सफल हुआ, और जो परिणाम निकलकर आया, उसे ही गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत कहा जाता है। जिसने जिस लक्ष्य पर ध्यान लगाया, और ध्यान की धारा के अनुसार अग्रसर हुवा, गंतव्य तक पहुंचने में सफल हो गया। चाहे कला का क्षेत्र हो, चाहे विज्ञान का क्षेत्र हो। चाहे सामाजिक अथवा राजनीतिक क्षेत्र हो, सभी क्षेत्रों में ध्यान लगाने से सफलता अर्जित होती है। चाहे भोग का विषय हो अथवा योग का विषय हो, जो जिस दिशा में ध्यान देता है, वह उसी दिशा की ओर अग्रसर हो जाता है। ‘ध्यान की धारा’ से ऐसे विचारों का प्रवाह भी होता है, जो देवत्व की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। संसार में ऐसे महापुरूषों का अवतरण हुआ है, जिन्होंने देवत्व को प्राप्त किया है। संसार उन्हें अवतार, पैगम्बर आदि नामों से पुकारती है। इस संसार में मनुष्य के द्वारा सबकुछ संभव है, महत्वपूर्ण यह है कि ध्यान किधर है। सबकुछ ‘ध्यान की धारा’ पर निर्भर करता है।