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स्वामी विवेकानंद — Swami Vivekanand Ka Mahan Jeevan

परम पूज्य रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानन्द एक असाधारण पथप्रदर्शक, खासकर युवाओं के प्रेरणास्त्रोत् रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने युवाओं के पुरे जीवन चरित्र के निर्माण पर बल दिया है। इनके कथन यूवाओं में जोश वो उम्मीद की नई किरण पैदा करती है।

इन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए ‘कठोपनिषद’ का एक प्रेरणा से ओतप्रोत मंत्र कहा था “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत:”। अर्थात् “उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य को प्राप्त न कर लो”।

गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने स्वामीजी के सम्बन्ध में कहा था, “यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये, उनमें आप सब-कुछ सकारात्मक पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं”।

स्वामी विवेकानंद का संक्षिप्त परिचय :

भारत के पावन धरा पर 12 जनवरी 1863 ई° को एक विलक्षण प्रतिभा का अवतरण हुआ। आज दुनिया इस विभुति को स्वामी विवेकानंद के नाम से जानती है। वे एक ओजस्वी वक्ता एवम् वेदान्त दर्शन के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने राजयोग, कर्मयोग एवम् ज्ञानयोग जैसे ग्रन्थों के रचना की। स्वामी विवेकानंद ने अल्पायु में ही भारतीय संस्कृति की महक पुरी दुनिया में बिखेरने में सफलता हासिल की थी।

मूल नाम: नरेंद्रनाथ दत्त। जन्म: 12 जनवरी 1863। जन्म स्थान: कोलकाता। पुण्यतिथि: 04 जुलाई 1904। कर्मक्षेत्र: दार्शनिक, उपदेशक, रचनाकार और संन्यासी। प्रसिद्ध रचना: राजयोग, कर्मयोग, वेदान्त दर्शन। उपलब्धि: वेदान्त दर्शन का पुरे दुनिया में प्रचार।

प्रेरणा के अपार स्रोत हैं; स्वामी विवेकानंद :

उनकी कही एक-एक बात हमें उर्जा से भर देती है। अपने अल्प जीवन में ही उन्होंने पूरे विश्व पर भारत और हिंदुत्व की गहरी छाप छोड़ दी। स्वामीजी जीवन का एक-एक क्षण जन सेवा में लगाते थे और ऐसा करने के लिए सबको प्रेरित करते थे। स्वामी जी ने अमेरिका और यूरोप में वेदांत के दर्शन का प्रचार-प्रसार किया।

शिकागो धर्म सम्मेलन में दिया गया उनका व्याख्यान युगों-युगों तक याद रखा जाएगा। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर देश में स्वामी विवेकानंद के द्वारा पहूचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जो आज भी अपना काम कर रहा है। उनके जन्मदिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मां शारदा से ऐसे मिला था आशीर्वाद:

स्वामी विवेकानंद के गुरु का नाम रामकृष्ण परमहंस था। वो किसी भी काम को करने से पहले उनसे सलाह-मशविरा और आशीर्वाद लिया करते थे। स्वामी जी के गुरु का देहांत हो चुका था। जिस साल उन्हें अमेरिका जाना था वो उनके साथ नहीं थे। इस स्थिति में उन्होंने अपनी गुरु मां का आशीर्वाद लेना चाहा।

विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस की पत्नी मां शारदा के पास पहुंचे। उन्होंने उनके पैर छुए और उन्हें बताया कि उन्हें अमेरिका में भाषण देने जाना है। उन्होंने उनका आशीर्वाद लेना चाहा, इस पर मां शारदा ने बाद में आने को कहा। मां ने कहा कि तुम कल आना, मैं देखना चाहती हूं कि तुम इस काबिल हो भी या नहीं।

मां शारदा की बात सुनकर स्वामी जी थोड़ा हैरान हो गए। लेकिन गुरु मां के कहे अनुसार वो अगले दिन फिर उनका आशीर्वाद लेने पहुंचे। विवेकानंद जब पहुंचे तो मां शारदा रसोई में थीं। विवेकानंद ने उनसे कहा कि मां मैं आपका आशीर्वाद लेने आया हूं। मां शारदा ने यह सुनकर कहा; ठीक है, पहले तुम मुझे चाकू उठाकर दो मुझे सब्जी काटनी है। विवेकानंद ने चाकू उठाया और मां की तरफ बढ़ा दिया।

चाकू लेते ही मां शारदा ने अपने विवेकानंद को आशीर्वाद दे दिया। मां शारदा ने कहा; जाओ नरेंद्र मेरे समस्त आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। मां का आशीर्वाद पाने के बाद भी नरेंद्र को बेचैनी थी। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर चाकू का आशीर्वाद से क्या जुड़ाव है और उन्होंने आखिरकार मां से यह पूछ ही लिया। तब मां ने उन्हें बताया कि बेटा, “जब भी कोई दूसरे को चाकू पकड़ाता है तो धार वाला सिरा पकड़ाता है लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया।”

अद्भुत थी विवेकानंद की बोधशक्ति:

दुनिया के हर हिस्से में ऐसे लोग हुए हैं, जो अपनी बोध-क्षमता पांचों इंद्रियों से आगे ले गए। स्वामी विवेकानंद के बारे में एक दिलचस्प कहानी है। वे पहले योगी थे जो पश्चिम गए और वहां जा कर उन्होंने हलचल मचा दी।

यह घटना सौ साल पुरानी है । उन्होंने अपना पहला कदम शिकागो में रखा और फिर वहां से वे यूरोप गये। जब वे जर्मनी पहुंचे, तो एक सज्जन के घर का मेहमान बने। वो सज्जन उस समय का मशहूर कवि और दार्शनिक था।

रात के भोजन के बाद, वे दोनों अध्ययन कक्ष में बैठ कर बातचीत कर रहे थे। मेज पर एक किताब रखी थी, जो थोड़ी पढ़ी हुई लग रही थी। वे दार्शनिक महाशय उस किताब की बहुत तारीफ कर रहे थे। यह सुनकर स्वामीजी ने कहा “मुझे एक घंटे के लिए यह किताब दे दीजिए, जरा देखूं तो इसमें क्या है।”

उन महाशय को बुरा लगा और थोड़े आश्चर्य के साथ उन्होंने पूछा, क्या? एक घंटे के लिए ! एक घंटे में आप क्या जान लेंगे? मैं यह किताब कई हफ्तों से पढ़ रहा हूं, पर अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया हूं। इतना ही नहीं, यह किताब जर्मन भाषा में है और आप जर्मन भाषा नहीं जानते। आप इसको पढ़ेंगे कैसे? विवेकानंद ने कहा; “मुझे बस एक घंटे के लिए दे दीजिए; देखूं तो सही।” उन महाशय ने मजाक समझ कर वह किताब उनको दे दी।

उनके विवेक ने उन्हें विवेकानंद बनाया:

विवेकानंद ने किताब लेकर अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा कर पकड़ ली और बस यूं ही एक घंटे तक बैठे रहे। फिर उन्होंने किताब लौटा दी और कहा, “इस किताब में कुछ खास नहीं है।” उन महाशय ने सोचा कि यह तो आला दर्जे का अहंकार है। ये किताब खोल भी नहीं रहे। यह उस भाषा में है जो इनको आती ही नहीं और ये इस पूरी किताब के बारे में अपनी राय दे रहे हैं! वे महाशय बोले, “बिलकुल बेकार की बात है।”

विवेकानंद ने कहा, “आप मुझसे किताब के बारे में कुछ भी पूछ लीजिए। बोलिए, आप कौन-से पेज के बारे में जानना चाहते हैं?” उन महाशय ने जो भी पेज संख्या बताई। स्वामी विवेकानंद ने उसी वक्त पूरे पेज का एक-एक शब्द उनको सुना दिया।

उन्होंने किताब खोली ही नहीं, बस उसे दोनों हथेलियों के बीच पकड़े रहे। पर वे किसी भी पेज को इसी तरह सुना देते। उन महाशय को बिलकुल यकीन नहीं हो पाया। उन्होंने कहा; यह क्या है? किताब खोले बिना और वह किताब भी उस भाषा की जो आपको नहीं आती। आप यह सब कैसे बता सकते हैं?

तब स्वामी विवेकानंद ने कहा, “इसीलिए तो मैं विवेकानंद हूं।” ‘विवेक’ का मतलब बोध होता है। उनका असली नाम नरेन था। इसीलिए उनका नाम था ‘विवेकानंद’, क्योंकि उनके पास ऐसी विशेष बोध-क्षमता थी।

स्वामी-विवेकानंद-का-जीवन-परिचय

जब एक वैश्या से मिला विवेकान्द को ज्ञान :

विवेकानन्द अमेंरिका जाने से पहले और विश्व प्रसिद्ध होने से पहले, जयपुर के महाराजा के महल में ठहरे थे। वह महाराज भक्‍त था, विवेकानंद और रामकृष्‍ण का।

जैसे कि राजा- महाराजा करते है, जब विवेकानंद उसके महल में ठहरने आये, उसने इसी बात पर बड़ा उत्‍सव आयोजित कर दिया। उसने स्‍वागत उत्‍सव पर नाचने ओर गाने के लिए वेश्‍याओं को भी बुला लिया। अब जैसा महा राजाओं का चलन होता है; उनके अपने ढंग के मन होते है।

वह बिलकुल भूल ही गया कि नाचने-गाने वाली वेश्‍याओं को लेकर संन्‍यासी का स्‍वागत करना उपयुक्‍त नहीं है। पर कोई और ढंग वह जानता ही नहीं था। उसने हमेशा यही जाना था कि जब तुम्‍हें किसी का स्‍वागत करना हो तो, शराब, नाच, गाना, यही सब चलता था। विवेकानंद अभी परिपक्‍व नहीं हुए थे। वे अब तक पूरे संन्‍यासी न हुए थे। यदि वे पूरे संन्‍यासी होते, यदि तटस्‍थता बनी रहती तो, फिर कोई समस्‍या ही न रहती। लेकिन वे अभी भी तटस्‍थ नहीं थे।

वे अब तक उतने गहरे नहीं उतरे थे पतंजलि में। युवा थे। और बहुत दमनात्‍मक व्‍यक्‍ति थे। अपनी कामवासना और हर चीज दबा रहे थे। जब उन्‍होंने वेश्‍याओं को देखा तो बस उन्‍होंने अपना कमरा बंद कर लिया। और बाहर आते ही न थे।

महाराजा आया और उसने क्षमा चाही उनसे। वे बोले, हम जानते ही नहीं थे। इससे पहले हमने किसी संन्‍यासी के लिए उत्‍सव आयोजित नहीं किया था। हम हमेशा राजाओं का अतिथि-सत्‍कार करते है। इसलिए हमें राजाओं के ढंग ही मालूम है। हमें अफसोस है, पर अब तो यह बहुत अपमानजनक बात हो जायेगी। क्‍योंकि यह सबसे बड़ी वेश्‍या है इस देश की और बहुत महंगी है। हमने इसे इसका रूपया दे दिया है। और अगर आप नहीं आते तो वह बहुत ज्‍यादा चोट महसूस करेगी। इसलिए बाहर आयें।

भय का अंतिम सीमा परम साहस होता है:

किंतु विवेकानंद भयभीत थे बाहर आने में। इसीलिए मैं कहता हूं कि तब तक अप्रौढ़ थे तब तक भी पक्‍के संन्‍यासी नहीं हुए थे। अभी भी तटस्‍थता मौजूद थी। मात्र निंदा थी। एक वेश्‍या? वे बहुत क्रोध में थे, और वे बोले नहीं। वेश्‍या ने एक संन्‍यासी गीत गाना शुरू कर दिया। गीत बहुत सुंदर था। गीत कहता है – मुझे मालूम है कि मैं तुम्‍हारे योग्‍य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्‍यादा करूणामय हो सकते थे। मैं राह की धूल सही; यह मालूम मैं मुझे। लेकिन तुम्‍हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्‍मक नहीं होना चाहिए। मैं कुछ नहीं हूं। मैं कुछ नहीं हूं। मैं अज्ञानी हूं। एक पापी हूं। पर तुम तो पवित्र आत्‍मा हो। तो क्‍यों मुझसे भयभीत हो तुम?

कहते है, विवेकानंद ने अपने कमरे से गीत सुना। वह वेश्‍या रो रही थी और गा रही थी। उन्‍होंने पूरी स्‍थिति भाँपी और अपनी ओर देखा कि वे क्‍या कर रहे है? बात अप्रौढ़ थी, बचकानी थी। क्‍यों हों वे भयभीत? यदि तुम आकर्षित होते हो तो ही भय होता है। तुम केवल तभी स्‍त्री से भयभीत होओगे यदि तुम स्‍त्री के आकर्षण में बंधे हो। यदि तुम आकर्षित नहीं हो तो भय तिरोहित हो जाता है। भय है क्‍या? तटस्थता आती है बिना किसी विरोधात्‍मकता के।

किसी को कब, कैसे और कहां से प्रेरणा मिल जाए; कोई नहीं जानता

वे स्‍वयं को रोक ने सके और द्वार खोल दिये। वे पराजित हुए थे, वेश्‍या विजयी हुई थी। उन्‍हें बाहर आना ही पडा। वे आये और बैठ गये। बाद में उन्‍होंने अपनी डायरी में लिखा, ईश्‍वर द्वारा एक नया प्रकाश दिया गया है मुझे। भयभीत था मैं। जरूर कोई लालसा रही होगी मेरे भीतर। इसीलिए भयभीत हुआ मैं। किंतु उस स्‍त्री ने मुझे पूरी तरह से पराजित कर दिया था। और मैंने कभी नहीं देखी ऐसी विशुद्ध आत्‍मा। वे अश्रु इतने निर्दोष थे। और वह नृत्‍य गान इतना पावन था कि मैं चूक गया होता। और उसके समीप बैठे हुए, पहली बार मैं सजग हो आया था कि बात उसकी नहीं है जो बाहर होता है। महत्‍व इस बात का है जो हमारे भीतर होता है।

उस रात उन्‍होंने लिखा अपनी डायरी में; “अब मैं उस स्‍त्री के साथ बिस्‍तर में सो भी सकता था। और कोई भय न होता।” वे उसके पार जा चूके थे। उस वेश्‍या ने उन्‍हें मदद दी पार जाने में। यह एक अद्भुत घटना थी। रामकृष्‍ण न कर सके मदद, लेकिन एक वेश्‍या ने कर दी मदद। अत: कोई नहीं जानता प्रेरणा कहां से आयेगी। कोई नहीं जानता क्‍या है बुरा? और क्‍या है अच्‍छा? कौन कर सकता है निश्‍चित? मन दुर्बल है और निस्‍सहाय है। इसलिए कोई दृष्‍टिकोण तय मत कर लेना। यही है अर्थ तटस्‍थ होने का।

स्वामी विवेकानन्द का शिकागो भाषण

साल 1893 में विवेकानंद शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करने गए थे। जब वो वहां पहुंचे तो आयोजकों ने उनके नाम के आगे शून्य लिख दिया था। जानकारी के मुताबिक ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि कुछ लोग उन्हें परेशान करना चाहते थे।

जानकारी के मुताबिक विवेकानंद जब भाषण देने के लिए खड़े हुए तब उनके सामने दो पेड़ों के बीच में एक सफेद कपड़ा बंधा हुआ पाया जिसके बीच में एक ब्लैक डॉट था। स्वामी विवेकानंद पूरी बात को अच्छे से भांप चुके थे। इसलिए उन्होंने यहां पर अपने भाषण की शुरूआत शून्य से ही की थी। शिकागो में दिया गया उनका भाषण विश्व प्रसिद्द है, इसके माध्यम से स्वामी जी ने पूरी दुनिया में हिंदुत्व और भारत का परचम लहरा दिया था।

स्वामी-विवेकानंद-का-शिकागो-भाषण

स्वामीजी का संबोधन का अंदाज सबसे अलग था

अमेरिकी बहनों और भाइयों,

आपके इस स्नेह्पूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय आपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया के सबसे पौराणिक भिक्षुओं की तरफ से धन्यवाद् देता हूँ।

मैं आपको सभी धर्मों की जननी कि तरफ से धन्यवाद् देता हूँ, और मैं आपको सभी जाति-संप्रदाय के लाखों-करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से धन्यवाद् देता हूँ। मेरा धन्यवाद् उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में शहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है।

मुझे अपने धर्म, अपने देश पर गर्व है

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ, जिसने दुनिया को शहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति (universal acceptance) का पाठ पढाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक शहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूँ जिसने इस धरती के सभी देशों के सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है, कि हमने अपने हृदय में उन इस्राइलियों के शुद्धतम स्मृतियाँ बचा कर रखीं हैं, जिनके मंदिरों को रोमनों ने तोड़-तोड़ कर खँडहर बना दिया, और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूँ, जिसने महान पारसी देश के अवशेषों को शरण दी और अभी भी उन्हें बढ़ावा दे रहा है।

रास्ते भिन्न हैं पर, मंजिल एक है

भाइयों मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियाँ सुनाना चाहूँगा, जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है, और जो रोज करोड़ों लोगो द्वारा हर दिन दोहराया जाता है – ”जिस तरह से विभिन्न धाराओं कि उत्पत्ति विभिन्न स्रोतों से होती है उसी प्रकार मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है, वो देखने में भले सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।”

वर्तमान सम्मलेन, जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, स्वयं में गीता में बताये गए एक सिद्धांत का प्रमाण है। जो भी मुझ तक आता है; चाहे किसी भी रूप में, मैं उस तक पहुँचता हूँ, सभी मनुष्य विभिन्न मार्गों पे संघर्ष कर रहे हैं जिसका अंत मुझ में है।

सांप्रदायिकता, कट्टरता, और हठधर्मिता से सभ्यताओं का विनाश हुवा है

सांप्रदायिकता, कट्टरता, और इसके भयानक वंशज, हठधर्मिता लम्बे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है, कितनी बार ही ये धरती खून से लाल हुई है, कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और कितने देश नष्ट हुए हैं।

अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता। लेकिन अब उनका समय पूरा हो चूका है, मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिता, हर तरह के क्लेश, चाहे वो तलवार से हों या कलम से, और हर एक मनुष्य के अन्दर के दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।

स्वामीजी के कथनों पर विचार करना चाहिए

जीवन के किसी भी मोड़ पर रुक जाने का मतलब है सफलता की उम्मीद को खो देना। विपरीत परिस्थितियों में भी शान्त रहना और जीवन-पथ पर आगे बढ़ते रहना ही किसी भी क्षेत्र में सफलता का मूलमंत्र है। हमें खुद को प्रेरित करने के लिए ऐसे लोगों का कहना मानना चाहिए, जिन्होंने जीवन में सफलता हासिल की है।

हमें ऐसे लोगों के कथनों पर विचार करना चाहिए। उनका अनुसरण करना चाहिए और यह जानने का प्रयास करना चाहिए, कि उन्होंने सफल होने के लिए क्या क्या किया। उन्हें किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है।

स्वामी विवेकानन्द का अनुसरण कर मानवीय मूल्यों के विकास में, राष्ट्र एवं समाज के निर्माण में सार्थक योगदान दिया जा सकता है। मगर यह तभी संभव है, जब युवाओं में देश व समाज को दिशा प्रदान करने की प्रबल इच्छा के साथ साथ उनमें आवश्यक समझ हो।

युवाओं में चरित्र के निर्माण के लिए, बुद्धि के विकास के लिए, विवेक के सृजन के लिए, देश के समृद्धि के लिए, समाज के सुधार के लिए, स्वामीजी के विचार कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और हमेशा रहेंगे।

स्वामी विवेकानंद के अनमोल विचार

स्वामीजी ने युवाओं को सबल और रचनात्मक बनने के लिए सरल और सहज शब्दों में अपने विचार रखे हैं। स्वामीजी के कुछ प्रेरक विचार का उल्लेख कर रहा हूं।

१> “आदर्श अनुशासन, मर्यादा, परिश्रम, ईमानदारी तथा मानविय मूल्यों के विना किसी का जीवन महान नहीं हो सकता”

२> “जैसा तुम सोचते हो वैसा ही बन जावोगे। खुद को निर्बल मानोगे तो निर्बल और सबल मानोगे तो सबल ही बन जावोगे”

३> “हम वो हैं जो हमारी सोच ने हमें बनाया है। अतः इस बात का ध्यान रखो कि आप क्या सोचते हो। शब्द गौण है, विचार रहते हैं, वे दुर तक यात्रा करते हैं”।

४> “एक समय में एक काम करो और ऐसा करते वक्त अपनी पुरी ताकत, पुरी आत्मा उसमें डाल दोऔर बाकि सब भूल जाव।”

५> “एक विचार लो उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बिषय में सोचो, उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नशों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डुब जाने दो, बाकि सभी विचारों को किनारे कर दो, यही सफल होने का तरीका है”

६> “दुनिया एक महान व्यायामशाला है, जहां हम खुद को महान बनाने आते हैं”

७> “यह कभी मत कहो कि मैं नहीं कर सकता, क्योंकी आप अनंत हैं, ‌आप कुछ भी कर सकते हैं”

८> “संभव की सीमा को जानने का सबसे उत्तम तरीका है, असंभव के सीमा से आगे निकल जाव”

९> “आप जोखिम लेने से भयभीत न हों, यदि आप जीतते हैं तो नेतृत्व करते हैं, और यदि हारते हैं तो दुसरों का मार्गदर्शन कर सकते हैं”

१०> “यदि आपके लक्ष्य मार्ग पर कोई समस्या न आते, तो आप सुनिश्चित कर लो कि आप गलत मार्ग में जा रहे हो”

११> “उम्मीदों को कभी टुटने मत देना, इस दोस्ती को कम होने मत देना, दोस्त मिलेंगे और भी पर इस दोस्त की जगह किसी और को यह मत देना”

१२> “दिन में कम से कम एक बार खुद से जरुर बात करें, अन्यथा आप हर दिन एक अच्छे व्यक्ति के साथ मिलने एक मौका खो देंगे”

१३> “दिल और दिमाग के टकराव में दिल की सुनो”

१४> “चिंतन करो चिन्ता नहीं, नये विचारों को जन्म दो”

१५> “जो कुछ भी तुम्हें कमजोर बनाता है, शारिरीक, मानसिक या बौद्धिक, उसे जहर समझकर त्याग दो”

१६> ”हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं”

१७> “किसी दिन जब आपके समक्ष कोई समस्या न आये तो समझ लो कि आप गलत मार्ग पर चल रहे हो”

१८> “बाहरी स्वभाव केवल अंदरुनी स्वभाव का बड़ा रुप है”

१९> “जब तक जीना है तब तक सीखना है, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है”

२०> “कुछ मत कहो, बदले में कुछ मत मांगो। जो देना है वो दो, वो तुम तक वापस जरुर आयगा, पर उसके विषय में अभी मत सोचो”

२१> “जब लोग तुम्हें गाली दें तो तुम उन्हें आशिर्वाद दो। यह सोचकर कि तुम्हारे झुठे दम्भ को बाहर निकालकर वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहे हैं”

२२> “यही संसार है; यदि तुम किसी का उपकार करो तो लोग उसे महत्व नहीं देंगे, किन्तु जैसे ही तुम उस कार्य को बन्द कर दोगे, वे तुरन्त तुम्हें बदनाम करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेंरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे-संबंधियों द्वारा ठगे जाते हैं”

२३> “सच्ची सफलता और आनन्द का सबसे बड़ा रहस्य है; बदले में कुछ नहीं मांगना! पूर्ण रूप से निस्वार्थ व्यक्ति सबसे सफल है”

२४> “ब्रम्हांड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं, वो हम ही हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है”

२५> “उठो जागो’ और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य को प्राप्त न कर लो”

अद्भुत योगी के अमृतवचनों को आत्मसात करें

युवा देश का भविष्य होता है, परन्तु वह किन विचारों से, किन लोगों से प्रभावित हो रहा होता है, यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है। समस्त युवाओं को स्वामीजी के विचारों पर चिन्तन करना चाहिए।

अतः साथियों, आइये खुद को समझायें, दुसरों को समझाने का प्रयास करें, स्वामी के प्रेरक विचारों पर चिंतन-मनन करें और उनके महान व्यक्तित्व का अनुसरण करें। स्वयम् को, देश को, समाज को उन्नति के मार्ग पर ले जाने का प्रयास करें।

उम्मीद करता हूं कि पाठक गण वेदान्त के महान व्याख्या करने वाले, असाधारण पथप्रदर्शक पूज्य स्वामीजी के विचारों पर अवश्य चिंतन-मनन करेंगे और खुद को सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण करने का प्रयास करेंगे।

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